Sunday 26 June 2016

गांधी की नैतिकता और चम्पारण सत्याग्रह (दीपंकर श्री ज्ञान)

हम समय के लिहाज से चम्पारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। चम्पारण सत्याग्रह भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसने तत्कालीन भारतीय राजनीति की न सिर्फ दिशा बदली बल्कि आने वाले समय में जो स्वतंत्रता आन्दोलन का संघर्ष था, उसकी रूपरेखा भी खींच दी।गांधी ने पूरी दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाया। सत्य-अहिंसा को गांधी ने अपने सनातन मूल्यों से लिया, जिसका प्रतिफलन संपूर्ण भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के संघर्ष के दौरान दिखाई पड़ता है। गांधी जी के व्यक्तित्व का हम दो स्वरूप देखते हैं। एक स्वतंत्रता संघर्ष के लिए रणनीतिकार के रूप में जिससे हमें राजनीतिक आजादी मिली। दूसरा स्वरूप था नैतिकतावादी गांधी का। दरअसल, उनकी सारी राजनीति नैतिकता के संबल पर टिकी थी। गांधी की नैतिकता सत्य-अहिंसा और आध्यात्मिकता पर आधारित थी। छोटी-छोटी घटनाओं में गांधी जी की नैतिक पराकाष्ठा का दर्शन होता है। गांधी के लिए नैतिकता सिर्फ दिखावे के लिए नहीं है। वह वरण करने की चीज है। गांधी जी का यह रूप संत-संन्यासियों सा दिखाई पड़ता है। गांधी की नैतिकता सिर्फ वाचिक नहीं थी। उनकी राजनीति और नैतिकता, दोनों अलग-अलग नहीं थीं। दोनों समानांतर चलती थीं। उन्होंने कई बार राजनीति से ज्यादा महत्व अपने नैतिक विचारों को दिया। चौरीचौरा हत्याकांड इसका बेहतर उदाहरण हो सकता है। इस मुद्दे पर गांधी जी की आलोचना आज भी होती है। 1917 के चम्पारण सत्याग्रह के दौरान महात्मा गांधी को नैतिक मूल्यों के प्रति आग्रह कई बार देखा जा सकता है।आज गांधी सत्य के पर्याय हैं। उनकी आलोचना करने वाले भी उनकी सत्यनिष्ठा पर कभी सवाल नहीं कर सकते। गांधी के विरोधियों का भी उन पर अटल विास था। बिल्कुल सामान्य सी दिखने वाली बात में भी गांधी कैसे अपने मूल्यों से नहीं डिगते थे, यह काबिलेगौर है कि गांधी जी को भी चम्पारण में नीलवरों के खिलाफ जांच का सदस्य बनाया गया था। जांच से संबंधित रिपोर्ट अंग्रेजों द्वारा गांधी जी के पास भेजी गई। गांधी के सहयोगी ने उस रिपोर्ट को पढ़ लिया और इससे संबंधित बातें कुछ लोगों को जाहिर कर दीं। गांधी जी को इस बात की जानकारी हुई और वे बहुत बिगड़े। उन्होंने कहा अंग्रेजी सरकार ने सत्यनिष्ठा और विास पर हमें यह रिपोर्ट भेजी है। इस रिपोर्ट को पढ़कर इसे दूसरों पर जाहिर करना विासघात होगा। गांधी के लिए यह सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं थी। यह विरोधी के भरोसे की बात थी, जिसे तोड़ना उनके लिए अपराध था। यहां गांधी की नैतिकता ही उनके आचरण को शुद्धि देती है। एक दूसरी घटना का उदाहरण भी उनके नैतिक बल को दिखाता है। हुआ यूं कि चम्पारण के जिला कलक्टर के स्टेनोग्राफर ने जांच रिपोर्ट की एक कॉपी चोरी से अनुग्रह नारायण सिंह के पास भेजी। अनुग्रह नारायण सिंह ने स्वयं उस रिपोर्ट को पढ़कर अपने साथियों को पढ़ने के लिए दिया। सबने तय किया कि यह जरूरी कागजात है, जो विरोधियों से मुकाबला करने यानी जवाब तैयार करने में हमारी मदद करेगा। खुशी से भाव-विह्वल सहयोगी रिपोर्ट लेकर गांधी जी के पास पहुंचे। रिपोर्ट कैसे मिली गांधी जी ने पूछा और बिना पढ़े उस रिपोर्ट को लौटा दिया। असत्य के साधन द्वारा सफल साध्य के प्राप्ति की कल्पना गांधी जी नहीं कर सकते थे।गांधी जी को उनका नैतिक बल भय मुक्त बनाता था। उन्होंने किसी भी तरह के अनैतिक अवलंब को स्वीकार नहीं किया। अपने और सहयोगियों के सामर्य पर उन्होंने भरोसा किया। चम्पारण में सहयोग के लिए सीएफ एन्ड्रूज को भी तार देकर बुलाया गया। अंग्रेज सहयोगी को अपने बीच पाकर सहयोगियों ने बड़ी राहत की सांस ली। आखिर, मुकाबला अंग्रेजों से जो था। स्थानीय प्रशासन द्वारा गांधी पर से मुकदमा उठा लिया गया। एंड्रूज साहब का फिजी जाने का कार्यक्रम निर्धारित था। वहां के सहयोगी एंड्रूज को अभी रोकना चाहते थे। विनती लेकर सभी लोग गांधी जी के पास पहुंचे। गांधी जी एंड्रूज साहब को रोकने के पीछे की मंशा भांप गए और कहा, ‘‘एक अंग्रेज रहेगा तो तुम लोग उसकी ओट में काम करोगे, इसकी वजह से कुछ मुरौवत मिलेगी ही।’ अब तो गांधीजी भय की कमजोरी को दूर कर ही देना चाहते थे। एंड्रूज साहब फिजी जरूर जाएंगे। यहां गांधी अपने सहयोगियों के मन से अंग्रेजी साम्राज्य का भय निकालना चाहते थे, वैसा ही उन्होंने किया भी। दूसरी तरफ गांधी को चम्पारण के किसानों के मन से साम्राज्य का भय दूर करना था। चम्पारण के भोले-भाले किसान थे। अंग्रेजों के लाल टोपी वाले सिर्फ एक सिपाही को देखकर पूरा का पूरा गांव छिप जाया करता था। लोगों में आतंक का भय था। दरअसल, किसानों के लिए अंग्रेजी सत्ता का पर्याय था लाल टोपीवाला अंग्रेज सिपाही। जाने-माने वकील धरणीधर बाबू भी नील किसानों का बयान ले रहे थे। अंग्रेजी सरकार का दारोगा वहां आ पहुंचा। धरणीधर बाबू के पास खड़ा हो गया। धरणीधर बाबू किसानों के मन में भय ना हो इसके ख्याल से जगह बदल दी। वह दारोगा वहां भी आ पहुंचा। तीसरी बार जगह बदलने पर भी नहीं माना तो धरणीधर बाबू ने उसे डांटा। दारोगा शिकायत लेकर गांधी जी के पास पहुंचा। गांधी जी आए और कहा, ‘‘जब उतने किसानों के बैठने से आपको काई हर्ज नहीं तो सिर्फ एक और आदमी के आ जाने से क्यों घबराते हैं? इस बेचारे को किसानों के साथ क्यों नहीं बैठने देते।’ गांधी जी द्वारा दारोगा का इस तरह सामान्यीकरण कर देने से किसानों के मन पर गहरा साकारात्मक प्रभाव पड़ा। किसानों के मन से अंग्रेजों का भय जाता रहा। गांधी जानते थे कि अहिंसक लड़ाई में लोगों का निर्भय होना आवश्यक है। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी ने अहिंसा की मजबूत शक्ति का पाठ पढ़ाया और लोग अभय होकर लाखों की संख्या में घर से निकल पड़े थे। इसकी शुरुआत चम्पारण सत्याग्रह से हो चुकी थी। दरअसल, गांधी जी ने संपूर्ण स्वाधीनता आंदोलन में जनमानस को लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया। स्वाधीनता आंदोलन अहिंसक था। इसलिए सबसे पहले गांधी जी ने लोगों को अहिंसा की शक्ति से परिचय कराया। इसके लिए यह और जरूरी था कि लोगों के मन से भय की मुक्ति हो। यही गांधी का आत्मबल भी था।अनुशासनप्रिय गांधी का हृदय बहुत कोमल था। गांधी एक तरफ पिता की तरह कठोर दिखते हैं, तो दूसरी तरफ माता की तरह भावुक। मां के समान उनमें भावनाएं थीं। यह चम्पारण सत्याग्रह के दौरान ही दिखाई पड़ता है। एंड्रूज साहब को चम्पारण से जाना था। सुबह के समय एंड्रूज साहब के भोजन की थाली में उबले आलू और कच्ची-पक्की रोटी थी, जिसे वे बड़े चाव से खा रहे थे। गांधी जी स्नान करके बाहर निकले ही थे कि उनकी नजर भोजन की थाली पर पड़ी। गांधी जी बहुत बिगड़े। वे खुद रसोईघर में जाकर रोटी बेलने लगे और रोटी को अच्छी तरह सेंक कर एंड्रूज साहब की थाली में डालते रहे, वे खाते रहे। यह घटना गांधी के इस पक्ष को रूपायित करने के लिए काफी है। चम्पारण सत्याग्रह को आज हम सिर्फ इसलिए याद न करें कि यह भारत में गांधी का पहला सत्याग्रह था, और इस घटना को सौ वर्ष पूरा होने जा रहे हैं। हमें गांधी के सत्य, अहिंसक, मानवीय और कोमल रूप को याद करने की जरूरत है। गांधी के इस रूप की पूरी मानवीयता की जरूरत है। आज गांधी में इस रूप की ज्यादा जरूरत है, जिसके आधार पर उन्होंने भारत को स्वाधीनता दिलाई। उनके नैतिकता को जानने-समझने की आवश्यकता है।(RS)

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