Tuesday 14 June 2016

रक्तदान दिवस : असुरक्षित खून का घातक संक्रमण (अभिषेक कुमार)

मामला खून का है, जिसका रंग बेशक एक ही यानी लाल होता है, पर जरूरत पड़ने पर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में खून के ट्रांसफर के रास्ते में मुश्किलें पैदा की हैं। इधर पिछले 17 महीनों में ही देश के अलग-अलग हिस्सों में 2234 लोग खून चढ़ाए जाने के बाद जिस तरह से एचआईवी संक्रमण की गिरफ्त में आए हैं, उससे समस्या की गंभीरता का पता चल रहा है। एक आरटीआई कार्यकर्ता चेतन कोठारी की आरटीआई के जवाब में नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (एनएसीओ) ने जो जानकारी दी है, उसके अनुसार उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, प. बंगाल, कर्नाटक, हरियाणा, बिहार और तमिलनाडु में ऐसे मामले पकड़ में आए हैं, जहां जरूरत पड़ने पर मरीजों को असुरक्षित खून चढ़ा दिया गया और वे एचआईवी की चपेट में आ गए। सवाल यह है कि क्या अस्पतालों में रक्तदाता से खून लेने के बाद उसकी जांच की कोई व्यवस्था नहीं है और क्या इसके कुछ नियम-कायदे नहीं हैं? विश्व स्वास्य संगठन के दिशा-निर्देशों की रोशनी में रक्तदाता से खून लेने और मरीज में खून चढ़ाने से पहले उसकी जांच के स्पष्ट कायदे बने हुए हैं, और अच्छे अस्पतालों में उनका पालन किया जाता है। अच्छे अस्पताल अव्वल तो किसी ऐसे रक्तदाता का खून ही नहीं लेते हैं, जिनमें उच्च कोलेस्ट्रॉल जैसी भी कोई समस्या हो। वहां सिर्फ पूर्ण स्वस्थ रक्तदाता का ही खून लिया जाता है। पर देश में खून चढ़ाने के बाद हजारों मरीजों में एचआईवी संक्रमण पहुंच जाने से पता चल रहा है कि खून की जांच के मामले में अस्पताल किस कदर लापरवाही बरत रहे हैं। असल में, इस समस्या के पीछे देश में रक्तदान की कमी और खून की बढ़ती मांग की अहम भूमिका है। हाल के वर्षो में डेंगू जैसी बीमारियों में रक्त से मिलने वाले प्लेटलेट्स की कमी ने एक अलग ही समस्या खड़ी कर दी है। ऐसी गंभीर बीमारियों में एक-एक यूनिट खून की खोज के लिए लोगों को यहां-वहां भाग-दौड़ करनी पड़ती है। असल में, भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश मरीजों में चढ़ाए जा सकने वाले खून का कम संग्रह होने के कारण विकट समस्याओं का सामना कर रहे हैं। दुनिया में रक्तदान में कमी आने और सर्जरी आदि में खून की मांग में बेतहाशा इजाफे के कारण मुश्किलें और बढ़ रही हैं। एक आकलन के मुताबिक दुनिया को हर साल 15 करोड़ यूनिट से ज्यादा खून की जरूरत होती है। पर विकासशील देशों में इस जरूरत की सिर्फ 40 फीसद ही भरपाई हो पाती है, जहां दुनिया की 85 फीसद आबादी रहती है। अकेले भारत में ही सालाना एक करोड़ यूनिट से ज्यादा खून की मांग है, पर हमारे ब्लड बैंकों में शायद ही कभी 50-60 लाख यूनिट से ज्यादा खून रहता हो। जाहिर है, खून की उपलब्धता में यह कमी हर साल हजारों मौतें न्योतती है। ऐसे सारे मामले देश के ब्लड बैंकों में खून की उपलब्धता के संकट को उजागर कर रहे हैं। हालांकि इस बारे में विश्व स्वास्य संगठन कमी को दूर करने के लिए प्रयासरत है। उसका लक्ष्य है कि 2020 तक दुनिया के सभी देश अपनी जरूरत के अनुसार ही दानदाताओं से रक्त इकट्ठा करने लगें ताकि इसके अन्य विकल्पों के बारे में सोचने की जरूरत नहीं पड़े। पर्याप्त मात्रा में रक्तदान नहीं होने के सूरतेहाल को देखते हुए विज्ञान जगत समस्या का हल निकालने की कोशिश कर रहा है। जैसे, एक समाधान यह हो सकता है कि इंसानों को जानवरों का खून चढ़ाया जा सके। इसका एक उदाहरण भी है, सत्रहवीं सदी में एक अंग्रेज डॉक्टर ने युद्ध में घायल एक सैनिक को भेड़ का खून चढ़ाने का प्रयास किया था। इसके बाद गाय का खून इंसानों में चढ़ाने की कोशिशें हुई पर ऐसे मामलों में समाज के नैतिक विरोधों को देखते हुए विज्ञानी इस दिशा में आगे नहीं बढ़े। एक अन्य हल यह हो सकता है कि साइंटिस्ट सिंथेटिक रक्त का निर्माण कर लें। प्रयोगशाला में तैयार किए जा सकने वाले ऐसे रक्त का जरूरत के मुताबिक निर्माण किया जा सकता है, लेकिन इस दिशा में भी अभी तक कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली है। चूंकि ये खोजें अभी प्रायोगिक चरण में हैं, इसलिए समस्या का उचित हल स्वैच्छिक रक्तदान को बढ़ावा देकर हो सकता है। फिलहाल, विकसित और विकासशील देशों में खून की मांग और उलब्धता के बीच भारी अंतर है। विकसित देशों में एक तो खून की बहुत विशाल जरूरत एकदम नहीं पैदा होती और दूसरे, वहां स्वैच्छिक रक्तदान एक प्रचलित ट्रेंड है, इसलिए वहां ऐसी कोई समस्या नहीं है। समस्या भारत जैसे विकासशील मुल्कों में है। हमें इस पर विचार करना होगा कि आखिर कर्ण और महर्षि दधीचि जैसी दानियों के इस देश में स्वैच्छिक रक्तदान की परंपरा जोर क्यों नहीं पकड़ पा रही है।(RS)

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