Wednesday 8 June 2016

नई ऊंचाई पर विदेश नीति (सी. उदय भाष्कर )

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता में अपने दो साल पूरे किए हैं। इन दो सालों में उन्होंने विशेष रूप से विदेश नीति के मामलों में व्यक्तिगत रुचि दिखाई है और तीसरे साल के आरंभ में ही शनिवार से उनकी पांच देशों की पांच दिनी यात्र भी आरंभ हो गई। इस दौरान वह सबसे पहले अफगानिस्तान के महत्वपूर्ण दौरे पर पहुंचे। छह महीने में यह मोदी की दूसरी अफगानिस्तान यात्र है। रविवार को प्रधानमंत्री कतर में होंगे और इसके बाद स्विट्जरजैंड, अमेरिका और मैक्सिको की यात्र करेंगे। अफगानिस्तान और कतर में कुछ बुनियादी अंतर है। कतर की गिनती जहां प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से दुनिया के सबसे धनवान देशों में होती है वहीं अफगानिस्तान निर्धन देशों में शुमार है। यद्यपि क्षेत्रीय संदर्भ में दोनों देश व्यक्तिगत रूप से खासा मायने रखते हैं। दोनों का इस्लामिक कट्टरता या आतंकवाद से जटिल संबंध है। खासकर तालिबान भारत के लिए नया खतरा बनने को आतुर है। प्रधानमंत्री मोदी अफगानिस्तान ऐसे समय में पहुंचे जब युद्धगस्त देश के सुरक्षाकर्मियों पर नए सिरे से तालिबान हमले का खतरा मंडरा रहा है। गत हफ्ते हेलमंड प्रांत में पचास से अधिक पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गई थी। यह हमला उस समय हुआ जब पुलिसकर्मी ड्यूटी से लौट रहे थे। कुछ हमलावर बुर्का पहने हुए थे। 1हाल ही में अमेरिकी ड्रोन हमले में तालिबान नेता मुल्ला मंसूर की मौत हो गई, जिसके बाद से तालिबान में काफी उथल-पुथल मची हुई है। तालिबान के नए नेता के रूप में सिराजुद्दीन हक्कानी का भी नाम सामने आया है। कतर ने तालिबान को अरब महाद्वीप में कार्यालय खोलने के लिए उत्साहित करने में सक्रिय भूमिका निभाई है। इसके साथ ही वह अफगानिस्तान के अंदर कुछ गुटों के लिए विश्वसनीय मददगार की भूमिका में भी नजर आता रहा है। इस प्रकार दिल्ली के लिए कतर-तालिबान कनेक्शन एक अवसर है जो कुछ गैर-पाकिस्तानी संभावनाएं उपलब्ध कराता है। बहरहाल शनिवार को सारा ध्यान हेरात प्रांत में फिर से बनाए गए सलमा बांध के उद्घाटन पर रहा। इस बांध का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने संयुक्त रूप से किया। इस बांध को भारत-अफगानिस्तान की मित्रता का बांध कहा जा रहा है। यह बांध भारतीय मदद से वहां हो रहे ढांचागत विकास का एक बड़ा सुबूत है। भारतीय कर्मियों ने अपने अफगानी सहयोगियों के साथ इस परियोजना को पूरा करने में कठिन परिस्थितियों का सामना किया है। याद होगा कि गत साल दिसंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय मदद से काबुल में बने संसद भवन को अफगानी नागरिकों को सौंपा था। यह संसद भवन युद्ध और कट्टरपंथी हिंसा से सहमी आबादी की आकांक्षाओं का प्रतीक है। 1अफगान चुनाव बहुत ही कठिन परिस्थितियों में संपन्न हुए। ये चुनाव स्थानीय तालिबान की धमकियों के बावजूद लोकतंत्र की जड़ों की मजबूती के लिए साहसी अफगानी नागरिकों की प्रतिबद्धता और संकल्प की गवाही देते हैं। हेरात में सलमा बांध के पुनर्निर्माण में 275 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत आई है। यह भारत के दो अरब रुपये के राहत पैकेज का ही एक हिस्सा है। जरांग-देलाराम सड़क कोरिडोर जो कि अफगानिस्तान को ईरान के चाबहार से जोड़ देगा और पावर ट्रांसमिशन लाइन दूसरी महत्वपूर्ण परियोजनाएं हैं। तालिबान के साये में घिरे अफगानिस्तान में ऐसी परियोजनाओं को पूरा करना आसान नहीं है। जिस किसी ने भी निर्माण स्थल का दौरा किया होगा वह इससे पूरी तरह परिचित होगा। हालांकि इन प्रमुख परियोजनाओं का समय पर समापन होने से विदेशों में भारत की विश्वसनीयता भी उजागर होती है। हालांकि निकट भविष्य में अफगानिस्तान की परिस्थितियां सुधरने की संभावना नहीं है और इसका मुख्य कारण बाहरी तत्वों की बढ़ती नकारात्मक भूमिका है। 1पाकिस्तान द्वारा अफगानिस्तान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे समूहों को समर्थन देना सबसे बड़ी बाधा है। इसके अलावा अमेरिकी नेतृत्व वाले दाता देशों का दोहरा रवैया, क्षेत्रीय सामरिक राजनीति द्वारा पैदा की गई विकट कट्टरता, मादक पदार्थो के सेवन और सामाजिक-आर्थिक विरासत के नाम पर आदिवासियों और महिलाओं के खिलाफ चली आ रही मूल परंपराएं जैसे दूसरे कारक अफगानिस्तान की समस्या को और बढ़ा रहे हैं। अफगानिस्तान के लोगों को ये तमाम संरचनात्मक बाधाएं एक न एक दिन स्वयं ही खत्म करनी होंगी और भारत जैसे दोस्ताना संबंध रखने वाले देश उन्हें सिर्फ इसमें मदद कर सकते हैं। इस संबंध में भारत की प्रतिबद्धता संसद, बांधों, पावर प्रोजेक्ट, अस्पतालों के निर्माण, शिक्षा से जुड़ी स्कीमें चलाने (जिसके तहत दिल्ली द्वारा हर साल अफगान छात्रों को एक हजार छात्रवृत्ति दी जाती है) और सीमित सैन्य प्रशिक्षण से उजागर होती है। भारत को यह विचार करना होगा कि रावलपिंडी यानी पाकिस्तानी सेना के विरोध के बीच वह कितने अच्छे तरीके से राजनीतिक स्थितियों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकता है? इस मामले में कुछ ऐसे सुझाव भी दिए गए हैं कि अतीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तेहरान और मास्को को नई दिल्ली के साथ परिदृश्य में लाया जा सकता है। यही वह विषय है जिसके कारण मोदी की कतर यात्र बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। कतर अरब का एक विशेष देश है, जिसके पास हाईड्रोकार्बन का बड़ा भंडार है। यह भारत की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति करता है। इस देश की आबादी सिर्फ 20 लाख है, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कतर ने मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे गैर-सरकारी समूहों का खुलकर पक्ष लिया है। उसने तालिबान को अपने यहां दफ्तर खोलने के लिए कूटनीतिक समर्थन दिया और शांतिवार्ता के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराईं। 1पश्चिम एशिया नीति में कुछ ऐसा भाव होना चाहिए जिससे यह प्रतीत हो कि भारत पश्चिम एशिया से सीधे संपर्क करने के लिए तैयार है और टिकाऊ उच्च स्तरीय राजनीतिक निवेश का इरादा रखता है। यह कुछ इसी प्रकार होना चाहिए जैसे भारत ने एक्ट ईस्ट पालिसी अपना रखी है। पश्चिम एशिया का इलाका भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है-न केवल इसलिए कि ऊर्जा की ज्यादातर आपूर्ति यहीं से होती है, बल्कि इसलिए भी कि एक बड़ी संख्या में भारतीय यहां रहते हैं। इस क्षेत्र के सामरिक समीकरण ईरान की मुख्यधारा में वापसी के बाद धीरे-धीरे बदल रहे हैं। मोदी ने विदेश नीति पर जिस तरह लगातार ध्यान दिया है और अपनी ऊर्जा खपाई है उसकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन हमेशा की तरह सबसे बड़ी चुनौती कथनी को करनी में तब्दील करने की है। 1(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस के निदेशक रहे हैं)(DJ)

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