Wednesday 8 June 2016

दल-बदल कानून के अनसुलझे प्रश्न (विजय कुमार चौधरी, अध्यक्ष , बिहार विधानसभा)

दल-बदल निरोधक कानून (दसवीं अनुसूची) को भारतीय संविधान में शामिल हुए तीन दशक से ऊपर हो चुके हैं। इसमें संसद या विधान मंडल के सदस्यों के दल बदलने के आधार पर उनकी सदस्यता खत्म करने के प्रावधान किए गए हैं। अब तक इस कानून के आधार पर दर्जनों सदस्यों की सदस्यता समाप्त की जा चुकी है और अनेक मामलों में उच्च व सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय भी किए हैं। इन सबके बावजूद दसवीं अनुसूची के विभिन्न प्रावधानों की प्रक्रिया से जुड़े कई अनसुलझे प्रश्न अब भी बरकरार हैं।
राजनीतिक लाभ और सत्ता के लिए दल-बदल की होड़ हम पिछली सदी में काफी देख चुके हैं। इससे अवसरवादिता व राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा मिलता था और यह प्रवृत्ति देश की राजनीति के लिए एक शर्मनाक स्थिति पैदा कर रही थी। इसी को देखते हुए 1968 में तत्कालीन गृह मंत्री वाईवी चव्हाण की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। उस समिति ने अनेक अनुशंसाएं की थीं, जिनके आधार पर साल 1973 व 1978 में संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश हुए, मगर इसमें सफलता नहीं मिली।
जनवरी, 1985 में संविधान (52वां संशोधन) विधेयक पेश किया गया, जिसे संसद के दोनों सदनों ने पारित कर दिया। 52वें संविधान संशोधन के मुताबिक, किसी सदस्य द्वारा स्वेच्छा से दल त्याग करने या पार्टी व्हिप की अवहेलना करने की स्थिति में उसकी सदस्यता खत्म हो सकती है। इसमें दल-बदल और दल विभाजन में फर्क करते हुए कहा गया कि किसी दल के एक तिहाई सदस्य अगर अलग होते हैं या किसी दूसरे दल में मिलते हैं, तो सदस्यता खत्म करने का यह प्रावधान उन पर लागू नहीं होगा। बाद में, 91वें संविधान संशोधन में यह अनुपात दो-तिहाई सदस्य कर दिया गया। इस संशोधन के बाद अब सदस्य विभाजन के पश्चात कोई स्वतंत्र ग्रुप नहीं बना सकते, बल्कि उन्हें किसी दूसरे अन्य दल में शामिल होना होगा।
दल-बदल कानून लागू करने के सभी अधिकार सदन के अध्यक्ष या सभापति को दिए गए हैं। मूल प्रावधानों के तहत अध्यक्ष के किसी निर्णय को न्यायालय की समीक्षा से बाहर रखा गया और किसी न्यायालय को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं दिया गया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने नगालैंड के किरोतो होलोहन (1990) मामले में इस प्रावधान को खारिज कर दिया। न्यायिक सिद्धांतों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि 'न्यायिक समीक्षा' भारतीय संविधान के मूल ढांचे में आती है, जिसे रोका नहीं जा सकता।
इन सबके बावजूद व्यावहारिक राजनीति की जटिलताओं से ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं, जिनके संबंध में इस अनुसूची में स्पष्ट प्रावधान का अभाव है। ऐसे में, अध्यक्ष या सभापति को अपने विवेक से निर्णय करना पड़ता है, जो बाद में न्यायिक समीक्षा में विवाद का कारण बनता है। जैसे, अगर हम स्वेच्छा से दल छोड़ने को ही लें, तो सामान्य रूप से किसी सदस्य द्वारा अपने दल से इस्तीफा देना स्वेच्छा से दल त्यागने का मामला बनता है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने चर्चित गोवा के रवि नायक (1993) मामले में स्वेच्छा दल त्याग की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया कि इसका मतलब सिर्फ दल से त्याग-पत्र देना नहीं है, बल्कि इसके व्यापक आयाम हैं।
सदस्य के आचरण से अगर यह लगता है कि उन्होंने दल त्याग दिया है, तो उन पर सदस्यता खत्म होने का प्रावधान लागू होगा। इस व्याख्या से इस प्रावधान का सकारात्मक दायरा बढ़ा, लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि सदस्य के किन आचरणों से यह माना जाएगा कि उन्होंने स्वेच्छा से दल का त्याग किया है। इन स्थितियों का उल्लेख अगर विस्तार से प्रावधान में ही कर दिया जाए, तो इन्हें बेहतर तरीके से लागू किया जा सकेगा।
इसी तरह, पार्टी व्हिप के उल्लंघन पर भी सदस्यता खत्म करने का प्रावधान किया गया है। लेकिन सदन के अंदर दल के सदस्यों द्वारा व्हिप का उल्लंघन कर मतदान करने पर उनके मतों की वैधता के बारे में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं किया गया है। दल-बदलुओं के मत वैध होंगे या अवैध? बहुमत वाले किसी दल की सरकार अगर व्हिप का उल्लंघन करने से गिर जाती है और उसके बदले दूसरी सरकार बना दी जाती है या राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है, तब भी दसवीं अनुसूची के रहते हुए दल-बदल के कारण राजनीतिक अस्थिरता पैदा होगी।
ऐसी स्थिति में अध्यक्ष या सभापति से क्या अपेक्षा की जाती है? खुल्लमखुल्ला दल-बदल करके सरकार गिराने की इस कोशिश को सदन का अध्यक्ष रोके या फिर मूक-दर्शक बना रहे? सदस्यता खत्म करने की पूरी प्रक्रिया में देरी हो सकती है और इस बीच राजनीतिक हालात पूरी तरह बदल सकते हैं। फिर दसवीं अनुसूची की प्रासंगिकता व उपयोगिता क्या रह जाएगी? इसे रोकने का एक तरीका यह हो सकता है कि जो सदस्य पार्टी व्हिप का उल्लंघन करके मतदान करते हैं, उनकी सदस्यता तो खत्म हो ही, साथ ही उनका मत भी अवैध माना जाए।
साथ ही, विभाजन के प्रावधानों को और ज्यादा स्पष्ट बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए समय-समय पर विभिन्न विधानसभा अध्यक्षों ने कई तरह के कदम उठाए हैं, जो बाद में न्यायिक समीक्षा और आलोचना के शिकार हुए। इस प्रक्रिया को स्पष्टता से परिभाषित करना होगा। विभाजन किसी समय विशेष पर होने वाली क्रिया होगी या एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया होगी, यह विवाद का प्रश्न है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब कुछ माननीय सदस्य किसी दल से आज अलग हुए, कुछ बाद में और फिर कुछ उसके भी बाद में और फिर सबको मिलाकर विभाजन का मामला करार दे दिया गया। यह अजीब लगता है। इन सब चीजों के लिखने का मतलब किसी निर्णय की आलोचना करना नहीं, बल्कि दसवीं अनुसूची के प्रावधानों में स्पष्टता लाने की तरफ ध्यान आकर्षित करना है।
दल के किसी सदस्य को निष्कासित कर दिए जाने के मामले में भी यदा-कदा विवाद उपजता रहता है। किसी मामले में उन्हें असंबद्ध श्रेणी का सदस्य घोषित किया गया, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने आपत्ति जताई, क्योंकि दसवीं अनुसूची में इस तरह की किसी श्रेणी का उल्लेख नहीं है। जी विश्वनाथन (1994) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना कि इससे निष्कासित सदस्य की वास्तविक स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि संबंधित सदस्य दल द्वारा जारी किए गए व्हिप के अधीन बने रहेंगे और यदि किसी दूसरे दल में शामिल होते हैं, तो उन पर सदस्यता रद्द होने का प्रावधान लागू होगा।
जाहिर है, दसवीं अनुसूची की मूल भावना को व्यावहारिक ढंग से लागू करने के लिए इसके विभिन्न प्रावधानों को और स्पष्ट बनाने की जरूरत है। इसके लिए संशोधन किए जाने चाहिए, वरना इसके तहत किए गए निर्णयों पर विवाद होते रहेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
(Hindustan )

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