Wednesday 8 June 2016

राज्यसभा की भूमिका (ए. सूर्यप्रकाश)

राज्यसभा के मौजूदा द्विवार्षिक चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के सांसदों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है, लेकिन वह सदन में बहुमत से कुछ दूर ही रहेगा। इसका अर्थ है कि राजग सरकार, जो कि 245 सदस्यों वाली सभा में बहुमत के आंकड़े से पचास सीट कम है, को प्रतिकूल विपक्ष की अवरोधक गतिविधियों का शिकार होना पड़ेगा और विरोधी संसद को बंधक बनाते रहेंगे। हालांकि मोदी सरकार ऐसी पहली सरकार नहीं है, जिसको लोकसभा और राज्यसभा में भिन्न-भिन्न स्थितियों का शिकार होना पड़ा हो। जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री, जिन्हें अपने पूरे शासनकाल में संसद के उच्च सदन राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत का लाभ मिला, को छोड़ दूसरी सरकारों को राज्यसभा में बहुमत के अभाव के कारण पैदा हुई दिक्कतों का सामना करना पड़ा।1हालांकि सभी राजनीतिक पार्टियों में कांग्रेस ही एक ऐसा दल है जिसे अपने कार्यकाल में अधिकांश समय में या तो स्वयं या सरकार में शामिल गठबंधन दलों के बल पर राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत का लाभ मिला है। 1952 में दोनों सदनों के गठन के बाद कांग्रेस को राज्यसभा में पूर्ण बहुमत मिला। आरंभ में 216 सदस्यों वाली सभा में उसके पास 146 सदस्य थे। बाद में उसके बहुमत का आंकड़ा बढ़कर 186 हो गया। इंदिरा गांधी भी जब सत्ता में आईं तब वह राज्यसभा में पूर्ण बहुमत के आंकड़े से काफी दूर थीं। उन्हें 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद तीन साल तक बहुमत के अभाव का सामना करना पड़ा। हालांकि 1972 में विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी कई प्रदेशों में विपक्ष को हराने में सफल रही। परिणामस्वरूप राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनावों में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी अच्छी खासी सीटें जीतने में सफल रही, जिसके कारण उच्च सदन में भी कांग्रेस को बहुमत हासिल हो गया। 1984-89 के अपने कार्यकाल के अधिकांश समय तक राजीव गांधी की सरकार भी राज्यसभा में बहुमत में रही थी। भाजपा इतनी भाग्यशाली नहीं रही है। 1998-2004 में जब केंद्र में उसकी सरकार थी तब राज्यसभा में उसके 45 सांसद थे और पूरे गठबंधन के सांसदों की संख्या करीब 80 थी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के अंतिम साल में राज्यसभा में राजग के सांसदों की संख्या बढ़कर करीब 90 हुई थी। नरेंद्र मोदी ने भी राज्यसभा में अपने 47 सांसदों के साथ कार्यकाल की शुरुआत की है। हालांकि गठबंधन दलों के अन्य 30 सांसदों का उन्हें समर्थन प्राप्त है। 
यह एक विचित्र स्थिति है जब एक दल या गठबंधन लोकसभा चुनावों में निर्णायक बहुमत हासिल कर लेता है, लेकिन पाता है कि राज्यसभा में उसके अल्पमत में होने के कारण उसकी योजनाएं अवरोध की भेंट चढ़ जाती हैं। संविधान सभा में चर्चाओं को देखें तो यह पूरी तरह स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने कभी यह आशा नहीं की थी कि उच्च सदन कानून के निर्माण और गवर्नेस की राह में बाधक बनेगा। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि देश की राजनीति इस तरह खंडित हो जाएगी कि मुख्य पार्टियां हाशिये पर चली जाएंगी और दर्जनों क्षेत्रीय, धर्म और जाति आधारित पार्टियां उभर आएंगी और उन पार्टियों की उच्च सदन में महत्वपूर्ण भूमिका हो जाएगी। 1952 में राज्यसभा में मान्यता प्राप्त सिर्फ छह पार्टियां थीं, जबकि आज उनकी संख्या बढ़कर 27 हो गई है। हालांकि संविधान सभा के अधिकांश सदस्य संसद के इस दूसरे सदन के पक्ष में थे, क्योंकि उन्हें लगा कि विद्वानजनों का सदन लोकसभा के सदस्यों की तरह राजनीतिक तिकड़म में नहीं फंसेगा और कानून निर्माण के दौरान विधेयकों के प्रति निरपेक्ष भाव और आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखेगा। यही वजह है कि उन्होंने कानून निर्माण में दोनों सदनों की बराबर भूमिका तय की। सिर्फ धन विधेयक के मामले में लोकसभा को राज्यसभा की तुलना में अधिक शक्ति दी गई। धन विधेयक के मामले में संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट किया है कि राज्यसभा के सुझावों को मानना या न मानना पूरी तरह लोकसभा पर निर्भर करेगा। हालांकि अन्य दूसरे विधेयकों के संबंध में यदि उच्च सदन ने असहमति व्यक्त की है तो उसे पारित कराने का एक ही तरीका है कि दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर उस पर चर्चा कराई जाए, लेकिन यह प्रावधान संविधान संशोधन विधेयक के लिए मान्य नहीं है। 1इन प्रावधानों के जरिये संविधान निर्माताओं को लगा कि उन्होंने एक अच्छा संतुलन कायम किया है। हालांकि संविधान सभा में कुछ सदस्यों द्वारा उच्च सदन के विचार का कड़ा विरोध हुआ था। एक सदस्य मुहम्मद ताहिर ने कहा कि लोकतांत्रिक रूप से चुने हुए सदन के कामकाज में बाधा उत्पन्न करने के लिए उच्च सदन का विचार ब्रिटिश देन है। उन्होंने कहा कि निर्वाचित सदन के कामकाज की जांच परख करने का यह एक साम्राज्यवादी उपकरण होगा। प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना तो और मुखर थे। उन्होंने कहा कि किसी भी देश के विकास में उच्च सदन ने मदद नहीं की है। इसने प्रगति की राह में हमेशा एक बाधा का काम किया है। यह एक अच्छा विचार नहीं है।1उच्च सदन के सबसे प्रमुख समर्थक एन गोपालस्वामी आयंगर ने इस संबंध में प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। आयंगर ने कहा कि उच्च सदन गरिमापूर्ण बहस सुनिश्चित करेगा और यह बिल को पारित करने में तब तक विलंब करेगा जब तक उत्साह के भाव थम न जाएं। उन्होंने कहा कि उच्च सदन के द्वारा हम कार्रवाई को लंबित करते हैं और इसमें अनुभवी लोग रहते हैं, जो अपने साथ इस सदन में अपना ज्ञान भी लाते हैं। हालांकि इसके बाद भी प्रस्ताव को तैयार करने वाली कमेटी में मौजूद वह और उनके सहयोगियों ने कुछ ऐसे प्रावधान किए ताकि उच्च सदन या तो विधि निर्माण या फिर प्रशासन के काम में अवरोधक न बने। दूसरे शब्दों में धन विधेयक को वीटो करने के अधिकार से उच्च सदन को वंचित कर संविधान निर्माताओं को लगा कि उन्होंने एक संतुलन कायम किया है और इस प्रकार उच्च सदन गवर्नेस की राह में बाधक नहीं बनेगा। लेकिन अभी सदन की मौजूदा स्थिति पर नजर डालें। क्या इसमें सिर्फ अनुभवी लोग, विद्वान पुरुषों और महिलाओं का ही समावेश है? अभी यह सदन जिस तरह से कामकाज कर रहा है और खासकर जनता द्वारा निर्वाचित एक सरकार की इस शिकायत कि उच्च सदन विधेयकों को रोकने का काम कर रहा है, को देखते हुए क्या यह एक अच्छा विचार था कि एक ऐसा सदन जरूरी है जो कार्रवाई में देरी करने का काम करे? हाल के दिनों में राज्यसभा की कार्यवाही को देखकर अपने इस विचार के बारे में हमारे संविधान निर्माता क्या कहते?1(लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष हैं)(DJ)

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