Wednesday 8 June 2016

जापानियों को आता है डूबकर उबरना (मोहन राजपूत)

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल ही में जापान की यात्रा कर के कई मोर्चो पर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। यह यात्रा न सिर्फ जापान-अमेरिका के आपसी संबंधों को मजबूत कर गया बल्कि इस यात्रा के माध्यम से ओबामा ने पूरी दुनिया को यह संदेश देने का काम किया है कि पुरानी दुश्मनियों को भूलाकर नवयुग के मुताबिक अपने संबंधों को मजबूत किया जाना चाहिए।
वहीं दूसरी तरफ अमेरिका द्वारा जापान पर किए गए परमाणु हमले के लिए माफी मागे जाने-नहीं मांगे जाने के मसले पर मीडिया ने खूब चर्चा है। इसकी वजह है कि एटमी हमले के सात दशक बाद पहली बार कोई अमेरिकी राष्ट्रपति जापान पहुंचा था। दुनिया के कई देशों के मानवाधिकार वादी संगठनों, हमले के शिकार हुए लोगों तथा उनके परिजन अमेरिका के माफी मांगने की मांग समय-समय पर उठाते रहे हैं। अमेरिका इस मांग को ठुकराता रहा है। इस बार भी ओबामा स्पष्ट कर दिया कि वह माफी नहीं मांगेंगे।
जापान की सरकार व वहां के नागरिकों का भी इस मुद्दे से यादा सरोकार नहीं है, जापानी पिछली बातों को भुलाकर भविष्य की सोचते हैं, यही प्रवृत्ति उन्हें दुनिया के नागरिकों में विशिष्ट बनाती है। दूसरे विश्व युद्ध के अंतिम चरण में अमेरिका ने जापान पर आत्मसमर्पण के लिए दबाव बनाने के मकसद से छह अगस्त 1945 की सुबह 8:15 बजे हिरोशिमा पर बी-29 श्रेणी के लड़ाकू तथा इनोला गे नाम के विमान से लिटिल ब्वॉय नाम का एटम बम गिराया। इस हमले में बम के रेडियेशन तथा झुलसन से पहले ही दिन 70 हजार लोग मारे गए। बम के दायरे में आया हिरोशिमा का इलाका पूरी तरह तहस-नहस हो गया। एटम बम से मरने वालों की संख्या बाद में 1 लाख 60 हजार से ज्यादा जा पहुंची। ठीक तीन दिन बाद नौ अगस्त को नागासाकी पर भी इसी किस्म का एटम बम गिराया गया। नागासाकी पर हुए हमले में 75 हजार लोगों की मौत हुई। एटम बम के इस्तेमाल पर अमेरिका की दुनिया भर में खूब आलोचना हुई थी।
एटम बमों के रेडियेशन का दुष्परिणाम जापान के लोग वर्षो तक भुगतते रहे हैं। एटमी हमले के सात दशक बाद अमेरिका के किसी राष्ट्रपति ने जापान की यात्रा की है। ऐसे में अमेरिका पर माफी मांगने का दबाव बनना स्वभाविक ही है। हालांकि दूसरी ओर जापानियों में अब यह भाव नहीं रह गया है कि अमेरिका माफी मांगे ही। इसकी खास वजह है। जापानी परमाणु हमले के लिए जितना जिम्मेदार अमेरिका को मानते हैं उतना ही जिम्मेदार उस समय के तत्कालिन राजा हिरोहितो को भी मानते हैं। वहां के स्थानीय लोगों का स्पष्ट मानना है कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान पर परमाणु हमले के लिए जापानी सरकार ने ही अमेरिका को उकसाया। यदि अमेरिका व एलाइड शक्तियों की इच्छाओं के मुताबिक जापान ने पहले ही आत्म समर्पण कर दिया होता तो न तो एटमी हमला होता और न जापान पर अमेरिकी कब्जा।
वहीं दूसरी तरफ एक बात यह भी है कि जापान के लोग मेहनत करने और आगे बढ़ने में विश्वास करते हैं, वे अतीत को ढोते रहने वालों में से नहीं है। यही कारण है कि वे आज पूरी दुनिया में अपनी उद्यमिता के लिए जाने-पहचाने जाते हैं। यहीं कारण है कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अमेरिका माफी मागता है अथवा नहीं। आज के समय में जब हमला हुए सात दशक गुजर गए हैं, जापान और अमेरिका के बीच के संबंध पहले की तुलना में बेहतर है। दोनों देशों के बीच में राजनीतिक, आर्थिक व सामरिक संबंध काफी मजबूत हैं। भले ही एटमी हमले के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति की जापान की यह पहली यात्रा हो, लेकिन बीते वर्षो में कई जापानी प्रधानमंत्री अमेरिका की यात्रा पर जा चुके हैं। पिछले वर्ष ही जापान के राजा अकाहितो और बाद में प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने अमेरिका की यात्रा की थी। आबे तो प्रधानमंत्री के तौर पर पहली बार वहां के दोनों सदनों को संबोधित करने के साथ ह्वाइट हाउस में डिनर भी किया था। आमतौर पर आम जापानी अमेरिका को दुश्मन के तरीके से देखने की बजाय सकारात्म क दृष्टिकोण से देखता है। 2013 में किए गए एक सर्वे के अनुसार 87 प्रतिशत जापानी अमेरिका को अच्छी नजर से देखते हैं और चाहते हैं कि दोनों देशों के संबंध और अधिक मजबूत हों। दरअसल, 18वी सदी की शुरुआत से ही अमेरिका व जापान के आर्थिक व व्यापारिक संबंध बन गए थे। साथ ही 19वीं सदी के प्रारंभ में जब अमेरिका ने हवाई द्वीप में गन्ने की खेती प्रारंभ की तो हजारों जापानी मजदूरों को इस कार्य में लगाया गया। दूसरे विश्व युद्ध से पहले जापान 90 प्रतिशत तेल आयात करता था तो उसमें 80 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका का होता था। इसके अलावा लोहा व खनिज वस्तुओं के लिए भी जापान अमेरिका पर ही निर्भर था। बदले में अमेरिका कृषि मशीनरी, मांस व खाद्यान का निर्यात करता था। कालांतर में जापान की विस्तारवादी नीति तथा प्रशांत महासागर क्षेत्र में अमेरिका के इच्छा के विरुद्ध सैन्य क्षमता विकसित करने के कारण दोनों देशों के संबंध में कड़वाहट आनी शुरू हो गई। इसका सीधा असर अमेरिका के सामरिक, आर्थिक एवं व्यापारिक हितो पर पड़ रहा था। जापान पर लगाम लगाने के अमेरिका ने विभिन्न, प्रतिबंध लगाने के साथ ही 1924 में आव्रजन एक्ट पारित कर जापानी कामगारों का अमेरिका जाना प्रतिबंधि कर दिया। जिसके कारण दोनों देशों के संबंधों में कड़वाहट और बढ़ गई। इधर, जापान ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में सैन्य क्षमता बढ़ाने के साथ ही उपनिवेश व्यवस्था के खिलाफ माहौल बनाना प्रारंभ कर दिया। जापान ने 1931 में मंचुरिया तथा 1937 में चीन के पूर्वी हिस्सों पर कब्जा कर लिया। इस दौरान साउथ कोरिया तबाही मचाते हुए वहां के नागरिकों को गुलाम के तौर पर अपने देश में ले आया। इससे अमेरिका के साथ ही ब्रिटेन, फ्रांस व नीदरलैंड जैसे देशों में जापान की इस हरकत से रोश पनपने लगा। इसी दौरान 1940 में जापान ने वियतनाम पर कब्जा कर लिया तो अमेरिका ने जापान को सबक सिखाने के लिए तेल व अन्य वस्तुओं की आपूर्ति बंद कर दी। इससे जब उसका मन नहीं भरा तो उसने अमेरिका में जापानी संपत्ति को भी जब्त कर लिया। इससे तिलमिलाए जापान ने 1941 में अमेरिकी नौ सैनिक बेस पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया। इस पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैक्लिन रुजवेल्टम ने उसी वर्ष आठ दिसंबर को जापान के खिलाफ पैसिफिक वॉर की घोषणा कर दी। इस युद्ध में दोनों तरफ भारी नुकसान हुआ। खुद जापान के 70 हजार के करीब सैनिक मारे गए। इस दौरान जापान को आत्मसमर्पण के लिए कहा जाता रहा। जापान सरकार ने अपने नागरिकों की इच्छा के विरुद्ध युद्ध जारी रखा।
जापानी सरकार की हठधर्मिता के कारण तथा उस पर दबाव बनाने के लिए 1945 में अमेरिका ने पहले हिरोशिमा और बाद में नागासाकी पर एटमी हमला कर दिया। हमले में जान माल का भारी नुकसान व इसके कुछ द्वीपों पर अमेरिकी कब्जा होने पर जापान को विवश होकर अतत: 15 अगस्त को आत्मसमर्पण की घोषणा करनी पड़ी। आठ सितंबर 1951 को सैन फ्रांसिसको में 48 देशों के गठबंधन तथा जापान के बीच एक शांति समझौता हुआ उसके बाद अमेरिका ने कब्जा किए गए हिस्सों को जापान के हवाले कर दिया।
शांति समझौते के बाद अमेरिका ने जापान को उबारने के लिए आर्थिक व तकनीकी दोनों स्तरों पर हरसंभव मदद की। परिणाम स्वरूप जापानियों को एक बार फिर से उठने का हौसला मिल गया। तब से लेकर अब तक जापानियों ने अपनी मेहनत से लगभग खत्म हो चुके देश को दुनिया के नक्शे पर पुन: सम्मान के साथ स्थापित कर दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति की जापान यात्र खत्म हो चुकी है। लेकिन इस यात्रा की चर्चा जापान के अखबारों में अभी भी हो रही है। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस यात्रा को एक ऐतिहासिक यात्रा बताया जा रहा है। विदेश मामलों के जानकारों का कहना है कि ओबामा ने जापान जाकर बहुत ही साहस का काम किया है। ओबामा ने भी माफी न मांगने के सवाल पर दो टूक जवाब दिया है कि युद्ध के समय राष्ट्राध्यक्षों के सही-गलत निर्णय लेने पड़ते हैं। यह इतिहासकारों का काम है कि वे परीक्षण करें की किसने गलती की और किसने नहीं की।
यह तो कहा ही जा सकता है कि ओबामा ने जापान जाकर शांति का जो संदेश दिया है उससे किसी को न तो ऐतराज हो सकता है और न ही उन सचाइयों से कोई मुंह मोड़ सकता है। इस यात्र को शांति के संदेश के रूप में देखा जाना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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