Wednesday 22 June 2016

परेशानी का सबब बनता एनपीए (प्रो. लल्लन प्रसाद)

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने दूसरा कार्यकाल लेने से मना कर दिया है। हाल के दिनों में भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी और उनके बीच विवाद बढ़ गया था। सुब्रमण्यम स्वामी ने सार्वजनिक रूप से उन्हें पद से हटाने की बात कही थी। राजन और स्वामी दोनों ही प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री हैं। राजन ने 2005 में 2008 के विश्वव्यापी मंदी की भविष्यवाणी की थी जो सच निकली। स्वामी की भूमिका 2जी घोटाले में संप्रग सरकार को कटघरे में लाने में अहम रही। राजन के समर्थकों का मानना है कि उन्होंने महंगाई पर लगाम लगाने के लिए }याज दर पर नियंत्रण रखा जिसमें वे सफल रहे। 2013 में जब उन्होंने पदभार संभाला था तब महंगाई चरम पर थी। भारतीय रुपये की कीमत भी तेजी से गिर रही थी जिसे उन्होंने रोका। विदेशी निवेशकों के मन में विश्वास पैदा किया, विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाया। दूसरी ओर राजन के विरोधियों का मानना है कि इस सफलता के पीछे मोदी सरकार की नीतियों और प्रशासनिक सुधारों की बड़ी भूमिका थी। रेपो रेट को लेकर राजन ने अड़ियल रुख अपनाया जो औद्योगिक विकास के रास्ते का रोड़ा बना रहा। बैंकों के एनपीए (दिया हुआ कर्ज, जिसके वापस आने की संभावना न के बराबर है) को लेकर उन्होंने बहुत समय लिया, अन्यथा स्थिति में सुधार आ सकती थी। मार्च 2017 तक बैंकों को अपने बैलेंस शीट साफ करने का निर्देश उन्होंने संप्रग सरकार के समय में क्यों नहीं दिया? स्थिति तो तब भी ऐसी ही थी। बहरहाल राजन का जाना तय होने पर नए गवर्नर की नियुक्ति को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। वहीं दूसरी ओर बढ़ते एनपीए का संकट जस का तस बना हुआ है।
सरकारी बैंक घाटे में जा रहे हैं, उनका एनपीए तेजी से बढ़ रहा है। वित्त वर्ष 2015-16 के अंत में कुल एनपीए 5.81 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया जो पिछले वर्ष 3.01 लाख करोड़ रुपये था। रिजर्व बैंक ने जबसे निर्देश दिया है कि मार्च 2017 तक सभी बैंक अपने बैलेंस सीट साफ करें और एनपीए समायोजित करके सही वित्तीय स्थिति दिखाएं तबसे अधिकांश सरकारी बैंक सकते में हैं। बैंकों का कहना है कि अधिकांश डिफाल्टर्स ने कर्ज देने में असमर्थता दिखाई है। लोहा और इस्पात, टेक्सटाइल, पावर और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्रों में बैंकों का काफी धन फंसा है। इन उद्योगों की स्थिति कुछ दिनों से अछी नहीं रही। खेती की पैदावार सूखे के कारण देश के बड़े हिस्से में कम हुई और किसानों की आमदनी में भारी गिरावट आई। इसके साथ ही उत्पादित वस्तुओं की मांग में भी गिरावट आई और औद्योगिक उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ। निर्यात विश्व के बड़े हिस्से में मंदी के कारण गिरा हुआ है। कर्ज में डूबी कंपनियां पुनस्र्थापना के बावजूद आर्थिक मंदी के चलते कर्ज वापस करने में असमर्थता दिखाती रहीं। एनपीए का बड़ा हिस्सा वर्षो से चला आ रहा अदेय कर्ज है। समस्या पुरानी है और दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। एनपीए बढ़ते जाने से बैंकों की पूंजी खिसकती जा रही है। कर्ज देने की उनकी क्षमता गिरी है। सरकारी बैंकों की प्रबंध व्यवस्था, नेताओं और प्रशासन का हस्तक्षेप भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है।
देश जब आजाद हुआ तब 1000 से अधिक कॉमर्शियल बैंक निजी क्षेत्र में कार्यरत थे, अधिकांश छोटे बैंक थे। इम्पीरियल बैंक जो सबसे बड़ा था उसे 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में परिवर्तित कर दिया गया। 14 बड़े कॉमर्शियल बैंकों का राष्ट्रीयकरण जुलाई 1969 में हुआ। इंदिरा गांधी ने यह साहसपूर्ण कदम उठाया। वित्तमंत्री मोरारजी देसाई इसके पक्ष में नहीं थे। उन्होंने इस्तीफा दे दिया, सरकार से अलग हो गए। राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य था बैंकिंग व्यवस्था का लाभ गरीबों तक पहुंचाना, किसानों और छोटे उद्योगों के हितों को ध्यान में रखना, बड़े उद्योगपतियों और कंपनियों का एकाधिकार समाप्त करना एवं क्षेत्रीय विषमता दूर करना। राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर 1980 में शुरू हुआ। राष्ट्रीयकरण के बाद कुछ वर्षो तक बैंकिंग व्यवस्था का विकास तेजी से हुआ। बड़ी संख्या में नए ब्रांच खोले गए। सरकार ने बैंकों को निर्देश दिया कि 40 प्रतिशत कर्ज किसानों, ग्रामीण, लघु और मध्यम उद्योगों को दें, किंतु कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप, आधुनिकीकरण का अभाव और कमजोर प्रशासन के चलते बैंक राष्ट्रीयकरण के उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाए। अधिकांश बैंकों की वित्तीय स्थिति बहुत अछी नहीं रही। लागत के अनुसार लाभ देने में सरकारी बैंक असमर्थ रहे।
एनपीए में लगातार वृद्धि से बैंकों की पूंजी का ह्रास होता रहा, जिसकी पूर्ति के लिए सरकारों ने समय-समय पर समितियां बनाईं और बैंकिंग व्यवस्था में स्थिरता के लिए सरकारी खजाने से धन उपल}ध कराए। एनपीए की वृद्धि का सिलसिला फिर भी रुका नहीं। 1998 में एनपीए बैंकों की संपत्ति का 16 प्रतिशत तक पहुंच चुका था। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने नरसिम्हन कमेटी बैठाई। कमेटी का मत था कि एनपीए को 2002 तक तीन प्रतिशत तक लाने के प्रयास होने चाहिए और उसके बाद जीरो प्रतिशत। कमेटी के सुझाव पर पुन: बैंकों को भारी मात्र में पूंजी उपल}ध कराई गई। बैंकों की नाकामी करदाताओं को भुगतनी पड़ी। 1999 में सरकार ने वर्मा कमेटी बैठाई। कमेटी ने बैंकों की कार्यशैली में बदलाव, बैंकों द्वारा आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल और एक एआरएफ फंड (एस्टेट रीकंस्ट्रक्शन फंड) की स्थापना के सुझाव दिए। वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए रीकैपिटलाइजेशन और कर्ज रिकवरी से संबंधित कानून में भी सुधार के सुझाव वर्मा कमेटी ने दिए। बढ़ते एनपीए के मद्देनजर सरकार बराबर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अतिरिक्त पूजी उपल}ध कराती रही, बैंकिंग व्यवस्था को स्थिर रखने के लिए दूसरे विकल्पों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया। स्थिति अब इतनी गंभीर हो चुकी है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कहना पड़ा रहा है कि सरकारी बैंकों की सर्जरी की आवश्यकता है।
सरकारी बैंकों के बड़े कर्जदार निजी एवं सार्वजनिक कंपनियां हैं, जिनको 60 प्रतिशत से अधिक कर्ज जाता है जो कर्ज एनपीए हो गए हैं। किसानों, छोटे-मध्यम उद्योगों और समाज के पिछड़े लोगों को दिए गए कर्ज का एनपीए मात्र 34 प्रतिशत है। एनपीए के संकट से सरकारी बैंकों को उबारने के लिए मोदी सरकार ने भी कई कदम उठाए हैं। सितंबर 2015 में केंद्र सरकार ने 13955 करोड़ रुपये का प्रावधान किया। 2018-19 तक बैंकों की पूंजी बढ़ाने के लिए सरकार 70,000 करोड़ रुपये देगी, जिसमें से 25,000 करोड़ रुपये दिए जा चुके हैं। रिजर्व बैंक ने बैंकों को एनपीए की समस्या से राहत देने के लिए एक नई योजना पेश की है, जिसके अंतर्गत अदेय कर्ज को बैंक शेयरों में बदल सकते हैं। सरकारी बैंक स्वयं साधन जुटाने में अक्षम हैं, यही वजह है कि सरकार हर बार उनकी मदद के लिए आगे आती रही। बैंकों के राष्ट्रीयकरण की आधी शता}दी पूरी होने को है, यह सवाल मौजूं है कि सरकारी बैंक कब आत्मनिर्भर और व्यावसायिक वित्तीय संस्थान के रूप में काम करने योग्य होंगे?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग के प्रमुख रहे हैं)(DJ)

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