Monday 10 October 2016

विलय के बाद रेलवे का इम्तिहान (अरविंद कुमार सिंह)


रेल मंत्री सुरेश प्रभु की कोशिशें कामयाब रहीं। रेल बजट अब इतिहास का हिस्सा बनने जा रहा है। 2017 से केवल आम बजट ही पेश होगा जिसमें रेलवे का बजट भी समाहित होगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अलग रेल बजट की व्यवस्था समाप्त कर उसे आम बजट में मिलाने का प्रस्ताव मंजूर कर लिया है। संसद के बजट सत्र में अब तक पहले रेल बजट और चंद रोज बाद आम बजट पेश करने की परिपाटी रही है। अंग्रेजी राज में1924 से ही रेल बजट पेश होता आ रहा था। हालांकि केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि नई व्यवस्था के बाद भी रेलवे की अलग पहचान बरकरार रहेगी और उसे मिलने वाली सहायता में किसी तरह की कोई कमी नहीं आएगी। केंद्र सरकार ने देबराय समिति की सिफारिशों के तहत ऐसा करने का फैसला किया। रेल बजट को आम बजट में समाहित करने और बजट पेश करने की तिथि पहले करने से अलग से विनियोग विधेयक और लेखानुदान पेश करने की आवश्यकता नहीं होगी। अभी अप्रैल से जून माह के व्यय के लिए पहले लेखानुदान पारित होता है।
रेल बजट को समाप्त करने संबंधी विचार को अमलीजामा पहनाने के लिए रेल मंत्री के विशेष आग्रह पर सेवानिवृत्त हो रहे रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष एके मित्तल का कार्यकाल दो साल बढ़ाया गया। बेशक सरकारी दावा सही है कि नई व्यवस्था से रेलवे की नीतियों और योजनाओं पर मंत्रलय का पहले जैसा नियंत्रण बना रहेगा। नए कदम से रेलवे को नकदी की तंगी नहीं होगी। लेकिन ये दावे हैं, जमीन पर कितना खरे उतरते हैं इसे अभी देखना शेष है।
रेल बजट के समापन की पहल रेल मंत्री ने वित्त मंत्री को पत्र लिख कर की। उनका दावा था कि यह रेल और देश दोनों के हित में है। चूंकि रेलवे पर सातवें वेतन आयोग का 40 हजार करोड़ रुपये का बोझ है और तमाम सेवाओं पर उसे 32 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देनी होती है। इस नाते रेल बजट को अलग करने का फैसला रेलवे के हित में है। आम बजट का हिस्सा होने से रेलवे को सरकार को लाभांश देने से मुक्ति मिलेगी और किराया भाड़ा बढ़ाने में संसद की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। रेल मंत्रलय ने सुरेश प्रभु के प्रस्ताव को अमलीजामा पहनाने के लिए पांच सदस्यीय समिति बनाई थी। उसने भी रेल बजट को आम बजट में समाहित करने की राय दी। नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय समिति ने भी यही सिफारिश प्रधानमंत्री से की थी और आयोग के दूसरे सदस्य किशोर देसाई भी ऐसी ही राय के बताए जाते हैं।
विलय के बाद रेलवे का ढांचा भी दूसरे सरकारी विभागों जैसा होगा और कामकाज का तौर तरीका भारतीय डाक जैसा होगा जाएगा। यह अलग बात है कि अपनी सकल यातायात आय 1.8 लाख करोड़ रुपये से अधिक होने के कारण यह दूसरे मंत्रलयों से हैसियत में अलग होगा। लेकिन अगर यह कदम इस नाते उठाया जा रहा है कि किराया तय करने या नई रेलगाड़ियों के लिए संसद पर निर्भर रहने जैसी बाध्यता इससे समाप्त हो जाएगी तो यह सोच उचित नहीं है। संसद सवरेच है। उसका नियंत्रण रेल बजट के आम बजट में समाहित हो जाने के बाद भी कायम रहेगा।
ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय रेल की शुरुआत निजी कंपनियां ने किया, जिनके मुख्यालय लंदन में थे और उनके एजेंट भारत में काम करते थे। ये कंपनियां ही रेल का निर्माण और संचालन करती थीं। लेकिन स्थिति संतोषजनक नहीं थी इस नाते आम बजट से अलग रेल बजट की मांग 1884 से उठनी शुरू हुई। सरकार ने 1899 और 1901 में इस पर विचार मंथन किया, लेकिन कोई सहमति नहीं बनी।
अंग्रेजी राज में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के भारतीय सदस्यों की मांग थी कि रेलवे के व्यय और नीतिगत मुद्दों पर विधान मंडल का नियंत्रण हो। इसी दबाव में 1920 में सरकार ने एकवर्थ समिति गठित की जिसने पड़ताल के बाद माना कि सरकार रेलों के विकास के लिए पर्याप्त पूंजी राजस्व देने में विफल रही है। समिति का मत था कि अगर रेलवे का बजट सामान्य बजट से अलग रहा होता तो भारतीय रेल तेज गति से विकास कर देश की जीवनरेखा बन सकती थी। एकवर्थ समिति के विचार से 1922 में सर मेलकान की अध्यक्षता वाली रेलवे वित्त समिति और इंचकैप समिति ने भी सहमति जताई तो सरकार को रेल बजट अलग करने का फैसला करना पड़ा। बाद में दिल्ली में तत्कालीन सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली ने 20 सितंबर 1924 को इसकी मंजूरी दे दी। रेलवे का समाहित आखिरी आम बजट 1923-24 का था। यह 262 करोड़ रुपये का बजट था। इसमें 82 करोड़ रुपये का बजट रेल विभाग का था, जो कुल बजट का 31 फीसदी था।
इतिहास बताता है कि 1924 में रेल बजट अलग होने से अधिक स्वायत्ता के माहौल में रेल के विकास की गति तेज हुई। 1924 में ही रेलवे बोर्ड का पुनर्गठन हुआ। विधायिका में शुरू से ही रेल सेवाओं में सुधार को लेकर सरकार को लगातार सवालों से जूझना पड़ता है। इस नाते बहुत से सुधारात्मक कदम भी उठे। केंद्रीय विधायिका में 1924-25 में उठे कुल सवालों में 29 फीसदी रेलों से संबंधित थे जो 1927-28 तक ये बढ़ कर तीस फीसदी हो गए। यह रेलवे की उपयोगिता और महत्व को दर्शाता है।
रेल बजट अलग होने के दौरान भारतीय रेल के पास 38,579 मील की रेल पटरियां थीं और उसकी आय 3,875 लाख रुपये थी। सबसे अधिक 3,412 लाख रुपये की आय तीसरे दर्जे के मुसाफिरों से होती थी। तीसरा दर्जा बेहद पीड़ादायक था और महात्मा गांधी ने इसे लेकर काफी कुछ लिखा। आजादी के बाद लाल बहादुर शास्त्री के रेल मंत्री काल में 1952 में तीसरा दर्जा समाप्त हुआ। बाद में कई और कदम उठे। तमाम रेल मंत्रियों ने नए प्रयोग किए लेकिन किसी ने रेल बजट को समाप्त करने का इरादा नहीं जताया।
विलय के बाद भारतीय रेल निजीकरण की ओर तेज गति से बढ़ेगी। डॉ. बिबेक देबरॉय समिति की राय पर ही रेल मंत्री चल रहे हैं, जिसका मानना था कि यात्री और माल गाड़ी चलाने समेत तमाम काम निजी कंपनियों को सौंप देना चाहिए। निजी क्षेत्र को माल डिब्बे, सवारी डिब्बे और इंजनों के निर्माण जैसी गतिविधियां सौंपने पर काम आगे चल रहा है।
भारतीय रेल की 27.19 फीसदी आमदनी यात्री यातायात से होती है। यात्री सेवाओं में भी 76 फीसदी आय लंबी दूरी की एक्सप्रेस ट्रेनों से होती है। माल ढुलाई में भी करीब 88 फीसदी आय चुनिंदा क्षेत्रों से होती है। दूसरे सामान्य माल से आय 10 फीसदी से भी कम है। रेलवे की तमाम सेवाएं घाटे में जा रही हैं और संचालन व्यय बढ़ता जा रहा है। भारतीय रेल अपने आठ हजार से अधिक स्टेशनों से यह रोज दो करोड़ तीस लाख से अधिक मुसाफिरों को गंतव्य तक पहुंचाती है। इसकी 19 हजार से अधिक रेलगाड़ियों में मालगाड़ियां केवल 7,421 हैं।
रेलवे को उम्मीद है कि 2016-17 के दौरान वह 1.84 लाख करोड़ रुपये का राजस्व जुटा सकेगी। बेशक आज रेल परिसंपत्तियों पर भारी दबाव है। लंबित परियोजनाओं की सूची लंबी चौड़ी होती जा रही है और उसके लिए आज करीब पांच लाख करोड़ रुपये से अधिक की जरूरत है। सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है और साफ-सफाई, समय पालन, संरक्षा, टर्मिनलों की गुणवत्ता, गाड़ियों की क्षमता, यात्रियों की सुरक्षा गंभीर मसले हैं। इसी नाते राष्ट्रीय माल और यात्री यातायात में रेलवे की हिस्सेदारी में कमी आती जा रही है। आज भी रेलवे का सबसे भरोसेमंद संसाधन बजटरी सहायता है जिसे केंद्र सरकार मुहैया कराती है। राष्ट्रीय परियोजनाओं के लिए भी धन केंद्र सरकार दे ही रही है। तमाम दावों के बाद भी आतंरिक संसाधनों से रेलवे का सृजन सीमित है इसी नाते रेलवे के आधारभूत ढांचे की रफ्तार को गति नहीं मिल पा रही है। फिर भी अगले पांच वर्षो में रेलवे ने तमाम मदों में आठ लाख छप्पन हजार करोड़ रुपये से अधिक निवेश का ताना बाना बुना है। देखना यह है कि अलग रेल बजट से भारतीय रेल का कौन सा कायाकल्प होता है।
(लेख्खक वरिष्ठ पत्रकार हैं)(DJ)

भारत-नेपाल : बेहतर की शुरुआत (संगीता थपलियाल)

नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल के भारत दौरे को दोनों देशों के परस्पर संबंधों में सुधार के रूप में देखा जा रहा है। नेपाल में 2015 में नया संविधान लागू होने की र्चचा के बाद दोनों देशों के बीच तनाव के चलते परस्पर संबंधों में ठहराव आ गया था। भारत के बार-बार आग्रह-‘‘सभी पक्षों और राजनीतिक दलों के बीच सर्वसम्मति बनाकर संविधान लागू कराया जाए’-के प्रति प्रमुख राजनीतिक दलों नेपाली कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी ऑफनेपाल (यूनाइटेड मार्क्‍सिस्ट लेनिनिस्ट)-सीपीएन (यूएमएल) ने कोई ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया था। भारत से विदेश सचिव एस. जयशंकर, जो संविधान की घोषणा के ठीक एक दिन पहले नेपाल पहुंचे थे, जैसे प्रमुख भारतीयों के जल्दबाजी में किए दौरों को नेपाल की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप के रूप में देखा गया। नेपाल में संविधान का विरोधकर रहे लोगों के कारण भी नेपाल के साथभारत के संबंध प्रभावित हुए। मधेसियों ने अपनी भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाते हुए दोनों देशों के मध्य व्यापार एवं आवागमन के नाकों को अवरुद्ध कर दिया था। समूचे घटनाक्रम में अपनी भूमिका से भारत के नकार के बावजूद नेपालियों का मानना था कि अवरोध लगाने के लिए भारत ने मधेसी प्रदर्शनकारियों को समर्थन दिया था। प्रधानमंत्री केपी ओली ने जिस तरह स्थिति को संभाला उससे हालात और बिगड़ गए। मधेसी और जौन्ती जैसे प्रदर्शनकारियों से वार्ता करने के बजाय ओली ने ऊर्जा आपूत्तर्ि, जिसे आंदोलनकारियों ने अवरुद्ध कर दिया था, बनाए रखने के लिए चीन के साथबातचीत करके समझौतों पर हस्ताक्षर करने को तरजीह दी। चीन अनुदान के रूप में 1000 मीट्रिक टन ईधन की आपूत्तर्ि करने को सहमत हो गया था। लेकिन खराब मौसम और अपर्याप्त ढांचागत सुविधाएं होने के कारण चीन से आपूत्तर्ि नाकाफी रही। खाद्य पदार्थो, दवाओं आदि की कमी हो गईथी। नेपाल ने भारत से घिरी अपनी सीमाओं और आवागमन के लिहाज से भारत पर निर्भरता से निजात पाने के लिए चीन के साथ सड़क और रेल नेटवर्क जैसे यातायात साधनों की बाबत भी समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इस कड़ी में तिब्बत क्षेत्रमें सात नए व्यापार मार्ग खोले गए ताकि स्थानीय स्तर पर सीमा व्यापार सुगम हो सके। नेपाल में बहुत से लोगों ने ओली की इस बात के लिए आलोचना की कि वह देश में हालात को सामान्य बनाने के लिए प्रदर्शनकारियों से बातचीत नहीं कर रहे या कुछ लोग इस बात से भी खफा थे कि घरेलू मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण किया जा रहा था। कुछने इसे ओली और भारतीय नेतृत्व के बीच अहम का टकराव करार दिया। लेकिन कुछको इस बात पर खुशी थी कि वह भारत के सामने उठ खड़े हुएथे। नेपाल की घरेलू राजनीति के चलते नेपाली कांग्रेस (एनसी) तथा कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी-सेंटर)-सीपीएन (एम-सी)-एक दूसरे के करीब आ गई। फलस्वरूप प्रचंड प्रधानमंत्री के तौर पर आसीन हुए हैं। उनके नेतृत्व में नौ माह के लिए सरकार बनी है। तत्पश्चात बाद नौ माह तक के लिए नेपाली कांग्रेस की सरकार रहेगी। पहले के विपरीत जब प्रचंड ने 2008 में प्रधानमंत्री बनने के उपरांत अपना पहला दौरा चीन का किया था, इस बार वह भारत के दौरे पर पहुंचे। उनका दौरा परेशानियों से खाली नहीं था। उनकी अपनी पार्टी समेत राजनीतिक पार्टियों का उन पर दबाव था कि देश के ‘‘राष्ट्रीय हित’ के खिलाफभारत के साथकिसी भी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए जाने चाहिए। संभवत: तात्पर्य यह था कि ऐसा समझौता न कर लिया जाए जो उनकी पार्टी के लिए चुनावी राजनीति में दिक्कतों का सबब बन जाए। नेपाल से रवाना होने से पहले प्रचंड ने लोगों को आास्त किया कि नये समझौते के बजाय पुराने समझौतों के क्रियान्वयन पर ही बातचीत करेंगे। उन्होंने लोगों से अपील की कि बंदिश लगाने के बजाय उन्हें खुलकर फैसले करने दिए जाएं। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रचंड को ‘‘नेपाल में शांति की प्रेरक शक्ति’ करार दिया। पहले भी कई मौकों पर मोदी ने माओवादियों की इस बात के लिए प्रशंसा की थी कि हिंसा छोड़कर मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने के लिएउन्होंने संविधानिक तौर-तरीकों को अपनाया। मोदी ने विास व्यक्त किया कि प्रचंड के नेतृत्व में ‘‘नेपाल अपने विविध समाज के सभी वगरे की आकांक्षाएं पूरी करते हुए समावेशी बातचीत के जरिए सफलतापूर्वक संविधान को लागू कर सकेगा।’ प्रचंड ने कहा है कि वह मधेसियों और जौन्तियों जैसे हाशिये पर पड़े समुदायों को राष्ट्र निर्माण के कार्य में अपने साथ जोड़ेंगे। उनकी पार्टी के कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि हाशिये पर पड़े समुदाय भी माओवादियों के प्रति हमदर्दी रखने वाले उनके समर्थक रहे हैं। नागरिक युद्ध के दौरान माओवादियों ने मधेसियों, जौन्तियों, संघवाद पर महिलाओं और दलितों, राज्य पुनर्गठन, सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण की मांगें जोर-शोर से उठाईथीं। समी पक्षों को साथलेकर संविधान का मुद्दा उठाकर प्रचंड चाहते हैं कि उन मतभेदों को पाटा जाए जो 2014 में नया संविधान लागू किए जाने के दौरान उनके एनसी और यूएमएल का समर्थन किए जाने के फैसले से उभर आएथे।प्रचंड भारत, नेपाल और चीन के बीच अच्छे संबंधों के हामी हैं। देखा जाना है कि वह कितना बेहतर संतुलन बनाए रखते हैं। भारत के अपने पहले आधिकारिक दौरे से उन्होंने सफलतापूर्वक दोनों देशों के तनावपूर्ण संबंधों को सुधारने की दिशा में प्रयास किया है। ‘‘सर्वसम्मति के माध्यम से संविधान’ पर भारत के रुख से सहमति जता कर उन्होंने अपने घरेलू मोर्चे पर फायदा उठाने का प्रयास किया है। इससे उन्हें अपना खोया हुआ कुछजनाधार, खासकर हाशिये पर पड़े समूहों में, फिर से हासिल करने में सफलता मिलना तय है। वह ओली की घरेलू राजनीति और भारत के साथसंबंधों के मोर्चो पर अपरिपक्वता की आलोचना करते रहे हैं। प्रचंड की तात्कालिक चिंता है कि संवैधानिक संशोधनों और उनके क्रियान्वयन को अच्छे से सिरे चढ़ाया जाए। उनकी सरकार स्थानीय चुनाव कराना चाहती है। इसके लिए स्थानीय इकाइयों का गठन व प्रांतों के पुनर्गठन को अंतिम रूप देना होगा। प्रांतीय और आम चुनाव से पूर्व यह करना होगा। प्रचंड व नेपाली कांग्रेस के समक्ष बड़ी चुनौती है। (चेयरपर्सन, सेंटर फॉर इनर एशियन स्टडीज, जेएनयू)(RS)

गुटनिरपेक्ष : प्राथमिकता से बाहर (पुष्पेश पंत)


हाल ही में वेनेजुएला में संपन्न गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन ने एक बार फिर हमें इस आंदोलन की प्रासंगिकता और सार्थकता के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है। गुट निरपेक्षता की अवधारणा शीत युद्ध के उस दौर में प्रकट हुई थी, जब दुनिया दो परस्पर विरोधी वैचारिक ध्रुवों में विभाजित थी। दो प्रतिद्वंद्वी महाशक्तियां अमेरिका और सोवियत संघ न केवल एक-दूसरे का विरोध सैद्धांतिक रूप से कर रहे थे वरन सैनिक संधियों के माध्यम से एक-दूसरे की घेराबंदी का प्रयास कर रहे थे। एटमी हथियारों के प्रयोग के बाद यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि इनका प्रयोग आत्मघातक पागलपन ही होगा। अत: सीधे मुठभेड़ की बनस्बित परोक्ष-दूसरों के माध्यम से-युद्ध लड़े जाने की शुरुआत हुई। जब तत्कालीन बर्तानवी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने दुनिया के एक हिस्से पर लौह आवरण द्वारा पटाक्षेप की बात की। तभी से अब तक किसी भी खेमे में शामिल नहीं हुए नवोदित राज्यों के दिल और दिमाग जीतने वाले सामरिक अभियान का सूत्रपात हुआ। प्रकारांतर से धमकियां भी दी गई-अमेरिकी विदेश मंत्री डलेस ने चेतावनी दी-‘‘जो हमारे साथ नहीं, उसे हम अपना शत्रु समझते हैं।’ इस समय यूरोप की पारंपरिक बड़ी ताकतें खस्ताहाल थीं, यूरोप का विभाजन हो चुका था और रूसी लाल सेना का कब्जा बड़े भूभाग पर था। दक्षिण-पूर्व एशिया में हिंद चीन में उपनिवेशवाद विरोधी सशस्त्र मुक्ति संग्राम चल रहा था और मध्य-पूर्व में इस्रइल की स्थापना ने लाखों फिलिस्तीनियों को शरणार्थी बना दिया था और एक ऐसे संघर्ष को जन्म दिया जो आज तक जारी है। संक्षेप में कोरिया से ले कर क्यूबा तक कुछ ही वर्षो में पूरा विश्व शीतयुद्ध की चपेट में था। इस पृष्ठभूमि में भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने जब शक्ति संघर्ष से बाहर रह अपने विकास को प्राथमिकता देते गुटनिरपेक्षता की नीति का प्रतिपादन किया तो इंडोनेशिया, मिस, कंबोडिया और म्यांमार आदि देशों ने उनका बड़े उत्साह से समर्थन किया। युगोस्लाविया के टीटो ने भी संस्थापकों की इस टोली में जुड़ना सहर्ष स्वीकार किया। यहां इस बात का विस्तार से बखान करना जरूरी नहीं कि तीन दशकों तक अफ्रीकी एशियाई देशों के इस जमावड़े ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर कितनी सार्थक भूमिका निबाही। जिस बात पर इस घड़ी केंद्रित है; वह फर्क है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद क्या गुटिनरपेक्ष आंदोलन की कोई उपयोगिता बची रही है? जब चीन इसके हाशिए पर खड़ा पर्यवेक्षक है और पाकिस्तान इसका मानद सदस्य, तब क्या इसकी सदस्यता का कोई अर्थ बचा है? युगोस्लाविया का विखंडन बरसों पहले हो चुका है और मिस खस्ताहाल है। इंडोनेशिया 1960 के दशक के मध्य से ही अमरीकी सलाहवाली आर्थिक नीतियों का अनुसरण करता रहा है। यह सारी बातें आज इसलिए अनायास याद आ रही हैं कि इस बार प्रधानमंत्री ने इस शिखर सम्मेलन में भाग लेने की जरूरत नहीं समझी और न ही भारत की विदेश मंत्री ने। उपराष्ट्रपति को इस काम का जिम्मा सौंपा गया। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि नेहरू की इस मृतप्राय विरासत को ढोते रहने के लिए यह सरकार तैयार नहीं पर यह आक्षेप एनडीए या मोदी पर लगाना जायज नहीं। स्वयं कांग्रेस के जयराम सरीखे नेता दो टूक कह चुके हैं कि आज के विश्व में गुटनिरपेक्षता की बात बेमानी हो गया है। एक और बात को रेखांकित करने की जरूरत है। वेनेजुएला इस समय अमेरिका द्वारा लगाए आर्थिक प्रतिबंधों से आहत है। इसी कारण इस सम्मेलन को कामयाब बनाने लायक संसाधन जुटाना उसके लिए परेशानी पैदा करता रहा है। जिन राष्ट्राध्यक्षों ने इस शिखर सम्मेलन में भाग लिया, वह सभी छोटे-छोटे राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कोई प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता तक यहां मौजूद नहीं था। सम्मेलन में जो भाषण दिए गए, उनमें भी नया या विचारोत्तेजक कुछ नहीं था। हमारे उपराष्ट्रपति ने जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा जोर दिया वह आतंकवाद वाला था। इसके अलावा, बातचीत में पर्यावरण के संकट के प्रति भी साझेदारी के समाधान पर विचार-विमर्श हुआ। असलियत यह है कि आज गुटिनरपेक्ष देशों की बिरादरी में भयंकर फूट पड़ी है। अनेक सदस्यों के बीच ऐसे विस्फोटक उभयपक्षीय विवाद हैं, जिनका निबटारा आसान नहीं। इसके अलावा, 21 वीं सदी के दूसरे दशक में अनेक ऐसे वैकल्पिक क्षेत्रीय/ अंतरराष्ट्रीय राजनयिक मंच सुलभ हैं, जिनकी कल्पना 1950 वाले दशक में नहीं की जा सकती थी। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के बाद एवं भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के गतिशील होने के बाद यह जमीन खाली नहीं रही। अपने आरंभिक दौर में भारत जैसे गुटनिरपेक्ष देश अंतरराष्ट्रीय विवादों में तटस्थ मध्यस्थता के लिए आमंत्रित किए जाते थे। कोरिया युद्ध हो या हिंद चीन में संघर्ष, कांगो में शांति की पुनस्र्थापना के लिए हस्तक्षेप हो या सुएज जैसे संकट के निवारण में रचनात्मक भूमिका; इसी जरूरत का प्रमाण हैं। आज इस तरह की भूमिका संभव नहीं। यह पूछना नाजायज नहीं कि फिर तब क्यों हम इस अनुष्ठान में भाग लेते हैं? इसका उत्तर तलाशने के लिए बहुत मशक्कत की दरकार नहीं। राजनय में हर मंच की अपनी उपयोगिता होती है। भारत एक शिखर सम्मेलन में अपने राष्ट्रहितों को परिभाषित कर दूसरे मंच पर उनकी व्याख्या कर उनके लिए समर्थन जुटाने की जमीन तैयार कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की दावेदारी करने वाला ‘‘उदीयमान’ भारत किसी भी ऐसे मंच पर अनुपस्थित नहीं रह सकता जहां सौ से अधिक देश मौजूद हों। अंत में यह न भूलें कि भारत इस आंदोलन के संस्थापकों में एक है। यदि इस अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करना है या इसे बदले वक्त की जरूरत के साथ बदलना है तो हम अपनी जिम्मेदारी से कतरा नहीं सकते। हां; इस मामले में सतर्क रहने की जरूरत है कि हम इस काम को फिलहाल सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं दे सकते।(RS)

भारत-इजरायल की मैत्री (एयर मार्शल (रि.) आरसी बाजपेयी)


भारतीय सेना हमेशा से अपने रण कौशल, वीरता, निर्भीकता, अदम्य साहस, बलिदान और शासन के प्रति निष्ठा के लिए विश्व विख्यात रही हैं। पहले और दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश शासन की इम्पीरियल सेनाओं के साथ मिलकर तमाम सैन्य अभियानों में उसने अपनी वीरता का परिचय दिया है। स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान के 1947, 1965, 1971 और 1999 के हमलों का भारतीय सैन्य बलों ने मुंह तोड़ उत्तर दिया। इनमें पाकिस्तान को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इस क्रम में हम आप को प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार के फिलिस्तीन अभियान में भारतीय सेनाओं की वीरता का एक उदाहरण बताते हैं।
आटोमन साम्राय, जिसे तुर्किस्तान या तुर्की के नाम से भी जाना जाता है, एक बहुत शक्तिशाली, बहुरायीय तथा बहुभाषी साम्राय था, जिसने फिलिस्तीन (वर्तमान में इजराइल) के अतिरिक्त दक्षिण पूर्व यूरोप, पश्चिम एशिया, काऊकशस, उत्तरी अफ्रीका के मुहामे पर 400 वर्षो से भी अधिक समय तक राज किया था। 17वीं शताब्दी के शुरू में तुर्की साम्राय में 32 प्रदेश तथा बहुत से क्षेत्रीय राय (वसल स्टेट्स) थे। फिलिस्तीन भी तुर्की के आधीन था। वर्ष 1908 में इस साम्राय का विखराव शुरू हुआ। 1914 तक लगभग संपूर्ण यूरोप तथा दक्षिण अफ्रीका से उसका अस्तित्व समाप्त हो गया था। हायफा फिलिस्तीन का एक पोर्ट सिटी था। 1918 में ब्रिटिश साम्राय ने फिलिस्तीन को आटोमान साम्राय से मुक्त कराने का निर्णय लिया। भारत में इस अभियान के लिए उसने एक 15 इम्पीरियल ब्रिगेड का गठन किया जिसमें जोधपुर, मैसूर तथा हैदराबाद की कैवेलरी रेजिमेंट सम्मिलित थी। उसी समय तुर्की मध्य शक्तियों के साथ मिलकर प्रथम विश्व युद्ध में मध्य-पूर्वी क्षेत्र में भाग ले रहा था। एक ओर इम्पीरियल सेना थी जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस और रूस थे, वहीं दूसरी ओर केंद्रीय महाशक्तियां थी जिनमें जर्मनी, आस्टिया तथा आटोमन साम्राय शामिल थे। तुर्की ने हायफा की खाड़ी को समुद्री रास्ते से और जमीनी सुरंगे लगा कर सुरक्षित कर रखा था। इस कारण सभी आर्थिक और व्यापारिक गतिविधियां प्रतिबंधित हो गई थीं। दक्षिणी फिलिस्तीन में भुखमरी और गरीबी के हालात थे।
युद्ध का संचालन करने वाले जनरल ऐलेनबी ने निश्चय किया कि सेना को आवश्यक आपूर्ति के रेल हेड तथा हायफा पोर्ट पर कब्जा करना आवश्यक है। हायफा पोर्ट से जब लगभग 700 तुर्की सैनिक तिबेरियस की तरफ भाग रहे थे, तब 22 सितंबर, 1918 को उनकी मुठभेड़ 13वीं कवेलारी ब्रिगेड के 18 किंग जार्ज के लैंसर्स से हो गई। तुर्की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया, जिसमें उसके 30 सैनिक हताहत हो गए और उसके चार मशीन गानों के साथ 311 सैनिक बंदी बना लिए गए।
इम्पीरियल सेना ने जब शहर का हवाई निरीक्षण किया तो उसे लगा कि शहर लगभग पूरी तरह खाली हो गया है। इस कारण ब्रिगेडियर जनरल ए.डी.ए. किंग ने अपने लाइट आर्मर्ड ब्रिगेड की एक टुकड़ी को 22 सितंबर को नाजरथ रोड के किनारे किनारे हायफ़ा पर कब्जा करने के लिए रवाना कर दिया। पर हायफा तक पहुंचने के पहले ही उसे सड़क अवरोध का सामना करना पडा और साथ ही माउंट कारमेल से उसके ऊपर मशीन गन तथा बमों द्वारा हमला होने लगा। थोड़े नुकसान के साथ वह टुकड़ी वापस आ गई।
अगले दिन 23 सितंबर को सुबह पांच बजे 14वीं और 15वीं कैवेलरी ब्रिगेड ने हायफा की तरफ फिर कूच किया। उन्हें एक पतली गली से गुजरना था, जो बहुत सकरी थी, जिसके एक ओर किशोन तथा उसकी सहायक नदियां और दूसरी ओर माउंट कार्मल था। जैसे ही सुबह लगभग 10.15 बजे 15वीं कैवेलरी ब्रिगेड आगे बढ़ी उसके ऊपर गोलाबारी होने लगी और उसे पीछे हटना पड़ा। इधर 14वी कैवेलरी ने रेलवे पुल पर कब्जा कर लिया था। 23 सितंबर को ही जोधपुर लैंसर्स ने यह जानते हुए कि शत्रु के पास उससे बढ़िया और आधुनिकतम हथियार हैं, हायफा पर आक्रमण कर दिया। यहां उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। अपने प्राणों की परवाह न करते हुए और अदम्य साहस के साथ मेजर दलपत सिंह के नेतृत्व में जोधपुर कैवेलरी भयंकर गोलाबारी के बीच आगे बढ़ती रही।
आटोमन की सेना, जो माउंट कारमेल की ऊंचाई पर थी, जोधपुर लैसर्स पर गोले बरसा रही थी, लेकिन मेजर दलपत सिंह अपने घुड़सवारों के साथ आगे बढ़ते रहे तथा तलवार और बरछी भाले से तुर्की सेना को हताहत कर के हायफा पर कब्जा कर लिया और उसे 402 वर्षो के तुर्की शासन से स्वतंत्र कराया। उसी समय मैसूर लैसर्स ने माउंट कारमेल पर दक्षिण से हमला कर दुश्मनों की मशीन गानों की परवाह न करते हुए उनका सफाया कर दिया। इस युद्ध में मात्र डेढ़ घंटे के अंदर लैसर्स ने 1,500 शत्रुओं को युद्धबंदी बनाया। तीन बजे युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी गई। इस अभियान में मेजर दलपत सिंह सहित 900 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। मेजर दलपत सिंह को उनके अदम्य साहस, कर्तव्यनिष्ठा के लिए मरणोंपरांत मिलिटरी क्रॉस से सम्मानित किया गया। कैप्टन अनूप सिंह तथा लेफ्टीनेंट सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रॉस तथा जमादार जोधसिंह को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया। ब्रिटिश सरकार ने इस मुक्त किए गए भूभाग को यहूदियों को सौप दिया जो आज इजराइल के नाम से जाना जाता है।
भारतीय सेनाओं के शौर्य, वीरता और बलिदान का सम्मान करते हुए इजरायल ने भिन्न भिन्न स्थानों पर उनकी स्मृति में मेमोरियल बनाए हैं। इजरायल के पाठ्यक्रम में भी भारतीय सेनाओं की वीरता और योगदान का उल्लेख है। 19 सितंबर, 2011 को इजराइल ने भारतीय सेना के योगदान और बलिदान की यादगार में उनकी समाधि स्थल पर एक बहुत बड़े समारोह का आयोजन किया था। इधर भारत में हायफ़ा अभियान में शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में भारतीय थल सेना ने दो रेजिमेंट मैसूर तथा जोधपुर को मिलाकर 61वीं कैवेलरी की स्थापना की है। सेना प्रति वर्ष 23 सितंबर को हायफा दिवस के रूप में मनाती है।
फोरम फार अवेयरनेस ऑफ नेशनल सिक्योरिटी (फैन्स) दिल्ली नामक संस्था के तत्वाधान में 23 सितंबर, 2013 से प्रति वर्ष वीर सैनिकों के सम्मान में तीन मूर्ति चौक पर उनकी श्रद्धांजलि का कार्यक्रम होता है। तीन मूर्ति जो साऊथ ब्लॉक के समीप स्थित है, उन तीन कैवेलरी रेजीमेंट्स जोधपुर, मैसूर तथा हैदराबाद के प्रतीक है। वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों के नाम इन स्तंभों पर अंकित हैं। फैन्स ने तीन मूर्ति चौक का नाम ‘तीन मूर्ति हायफज्ञ मुक्ति चौक’ रखने का प्रस्ताव रखा है, जो सरकार के विचाराधीन है। भारतीय सेना आज भी अपनी वीरता, अदम्य साहस, रणकौशल तथा राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा के लिए विश्व विख्यात है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि केंद्र सरकार सैन्य जवानों के सम्मान की रक्षा करेगी और उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदैव संवेदनशील, सजग और संलग्न रहेगी।(DJ)

आत्मनिर्भरता की छलांग (शशांक द्विवेदी)


लगभग 20 साल की कड़ी मेहनत और कई असफल अभियानों के बाद अब कहा जा सकता है कि भारत क्रायोजेनिक तकनीक में आत्मनिर्भर हो गया है। इसरो ने देश में निर्मित क्रायोजेनिक इंजन के जरिये मौसम उपग्रह इनसैट-3 डीआर को जीएसएलवी-एफ 05 के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर दिया है। यह मिशन जीएसएलवी की 10वीं उड़ान थी। इसका भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के लिए खासा महत्व है क्योंकि यह स्वदेशी ‘क्रायोजेनिक अपर स्टेज’ वाले रॉकेट की पहली परिचालन उड़ान है। पहले, क्रायोजेनिक स्टेज वाले जीएसलवी के प्रक्षेपण ‘विकासात्मक’ चरण के तहत होते थे। आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित 49.1 मीटर लंबा यह रॉकेट 2,211 किलोग्राम वजनी अत्याधुनिक और सबसे बड़े मौसम उपग्रह इनसैट-3डीआर को उसकी वांछित कक्षा में स्थापित करने में कामयाब रहा।
जीएसएलवी एफ-05 के इस सफल प्रक्षेपण के साथ ही भारत विश्व का ऐसा छठा देश बन गया, जिसके पास अपना देसी क्रायोजेनिक इंजन है। अमेरिका, रूस, जापान, चीन और फ्रांस के पास पहले से ही यह तकनीक है। क्रायोजेनिक इंजन तकनीक से लैस चुनिंदा राष्ट्रों के क्लब में शामिल होने के बाद भारत को अपने भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। इसरो अब दूसरे देशों के भारी उपग्रहों का प्रक्षेपण कर और विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकेगा। इनसैट-3डीआर को इस तरह से तैयार किया गया है कि इसका जीवन 10 साल का होगा। यह पहले मौसम संबंधी मिशन को निरंतरता प्रदान करेगा तथा भविष्य में कई मौसम, खोज और बचाव सेवाओं में क्षमता का इजाफा करेगा।
इससे पहले, स्वदेशी तकनीक से विकसित क्रायोजेनिक इंजन युक्त जीएसएलवी के मात्र दो प्रक्षेपण सफल रहे थे। जनवरी 2014 में जीएसएलवी डी-5 ने संचार उपग्रह जीसैट-14 को और अगस्त 2015 में जीएसएलवी डी-6 ने अत्याधुनिक संचार उपग्रह जीसैट-6 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया था।
क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने में भारतीय वैज्ञानिकों की लगभग बीस वर्षो की मेहनत रंग लाई है। 2001 से ही देसी क्रायोजेनिक इंजन के माध्यम से जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए एक गंभीर चुनौती बना हुआ था। जीएसएलवी के कई परीक्षणों में हमें असफलता मिल चुकी है, इसलिए ये कामयाबी खास है।
असल में, जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला द्रव्य ईंधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है। इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं। इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवीकृत गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईंधन क्रमश: ईंधन व ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईंधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट कर देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है।
क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टर्बाइनों और ईंधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है।
फिलहाल, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से ङोल सकने वाली मिश्रधातु विकसित कर ली है।
अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टर्बाइन और पंप को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है। ये ईंधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं।
द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपये की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन शुरू करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना, पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है।
जीएसएलवी यानी जियो सिंक्रोनस लॉन्च वीकल ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है, जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36,000 किलोमीटर की ऊंचाई पर भू स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है, जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं।
इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है। दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36,000 किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है।
जीएसएलवी एफ 05 प्रक्षेपण को लेकर इसरो के अध्यक्ष ए.एस. किरण कुमार का कहना है कि रॉकेट का प्रदर्शन आशा के अनुरूप रहा और यह पूरी टीम के जबर्दस्त प्रयासों का परिणाम है। इसरो प्रमुख के अनुसार भविष्य में हम जीएसएलवी के जरिये कई और संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण करेंगे। साथ ही इस रॉकेट का इस्तेमाल दूसरे चंद्रयान मिशन और जीआइसेट की लांचिंग में भी किया जाएगा। जीएसएलवी की यह सफलता इसरो के लिए बेहद खास है क्योंकि दूरसंचार उपग्रहों, मानव युक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं था। इस प्रक्षेपण की सफलता से इसरो के लिए संभावनाओं के नए दरवाजें खुलेंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

यू एन को चाहिए दबंग एवं निष्पक्ष महासचिव (शशि थरूर) विदेश मामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री

हम ऐसे चुनाव की दहलीज पर पहंुच चुके हैं, जो आने वाले वर्षों में भू-राजनीति की दिशा तय करेंगे। मैं अमेरिकी चुनाव की बात नहीं कर रहा हूं, जिसका बेशक उतना ही महत्व है। मैं संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अगले महासचिव के अधिक शालीन चुनाव की बात कर रहा हूं। संयुक्त राष्ट्र का यह चुनाव आमतौर पर लगभग गोपनीयता जैसी खामोशी से होता है।
महासचिव पद के भौगोलिक क्रम को लेकर एक अनौपचारिक-सी सहमति रही हैै। 1971 के बाद से एक लैटिन अमेरिकी, अफ्रीकी (जिसकी जगह फिर अफ्रीकी ने ही ली थी) और एक एशियाई ने संयुक्त राष्ट्र का शीर्ष पद ग्रहण किया है। अत: अब यूरोप का और यूरोप में भी पूर्वी यूरोप का नंबर है, क्योंकि पूर्वी यूरोप एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां से कभी कोई संयुक्त राष्ट्र का महासचिव नहीं बना। नि:संदेह जैसा हम सुरक्षा परिषद सदस्यों की राय जानने की अनौपचारिक प्रक्रिया 'स्ट्रॉ पोल' के नतीजों से जानते हैं कि तीन अग्रणी प्रत्याशियों में से दो पूर्वी यूरोप के हैं। पुर्तगाल के पूर्व प्रधानमंत्री एंटोनियो गुटेरेस को सबसे ज्यादा वोट मिले हैं, लेकिन दूसरे तीसरे क्रम पर पूर्वी यूरोप के प्रत्याशी हैं- स्लोवेनिया के पूर्व राष्ट्रपति और संयुक्त राष्ट्र में मेरे सहकर्मी रहे डेनिलो टुर्क और बल्गारिया की राजनयिक यूनेस्को की प्रमुख इरिना बोकोवा। सवाल है कि क्या आम लोगों को वह प्रक्रिया देखने को मिलेगी, जो अंतत: शीर्ष पद का फैसला करेगी। जिस तरह से स्ट्रॉ पोल हुए हैं, उसे देखकर तो लगता नहीं है कि ऐसा कुछ होगा।
प्रत्याशियों को सार्वजनिक जीवन का कितना अनुभव है, यह अप्रासंगिक है। क्योंकि पद आखिरकार तो विज़न के बारे में है और भाषा कौशल, प्रशासनिक योग्यता या व्यक्तिगत करिश्मे के बारे में। यह राजनीतिक पद है और इस पद के लिए व्यक्ति का चुनाव हमेशा राजनीतिक रहा है, जो सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों द्वारा किया जाता है। यह सही है कि ये पांच सदस्य ऐसे व्यक्ति को नहीं चुन सकते, जिसे परिषद के शेष सदस्यों के बहुमत का समर्थन हासिल हो। किंतु जब परिषद का कोई सदस्य चाहे जितने सदस्यों को वोट दे सकता हो, तो यह कल्पना करना कठिन होता है कि किसने पांच स्थायी सदस्यों का समर्थन हासिल किया है, लेकिन परिषद में बहुमत हासिल नहीं कर सका है।
यदि चुनाव के फॉर्मेट को देखें तो यह सही है कि इतने वर्षों में कई महासचिव ऐसे रहे हैं, जिन्हें चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों में 'न्यूनतम स्वीकार्यता' थी। अभी तो हमने परिषद सदस्यों के पास दो मतपत्र देखे हैं, जो 'एनकरेज,' 'डिस्करेज' और 'नो ओपिनियन' के विकल्पों पर डाले जाते हैं। अग्रणी प्रत्याशियों में हर प्रत्याशी को कुछ देशों ने 'डिस्करेज' किया है। जिस दिन सुरक्षा परिषद स्थायी सदस्यों को अलग-अलग रंगों के मतपत्र देगी-जो आमतौर पर तीसरे या चौथे दौर के स्ट्रॉ पोल में होता है- तब हमें पता चलेगा कि क्या कुछ 'डिस्करेज' वोट स्थायी सदस्यों ने भी दिए हैं। चूंकि स्थायी सदस्यों के पास वीटो का अधिकार है, इसलिए एक या अधिक स्थायी सदस्य की ओर से 'डिस्करेज' वोट का मतलब है चुनावी होड़ से बाहर होने का इशारा। सितंबर अंत या अक्टूबर के शुरू में नतीजा जाहिर होने की उम्मीद है, लेकिन नए महासचिव से हम क्या अपेक्षा रखें? हाल के वर्षों में ऐसी धारणा बनी है कि पांच प्रमुख सदस्य निष्क्रिय-सा प्रशासक चाहते हैं, जो अपने काम के निर्धारित दायरे से बाहर जाए। किंतु अपने दायरे के बाहर जाने की संभावनाओं को विस्तार देने वाले संयुक्त राष्ट्र महासचिव की मिसाल पाने के लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है।
शीत युद्ध के अंत के बाद कोफी अन्नान ऐसे महासचिव थे, जिन्होंने अपने पद का यथासंभव दबंगता के साथ उपयोग किया। उन्होंने सदस्य राष्ट्रों को चुनौती दी थी कि वे राष्ट्रों की संप्रभुता और अाम आदमी की रक्षा करने की उनकी जिम्मेदारी के बीच के तनाव को सुलझाएं। जब अमेरिका ने सद्‌दाम हुसैन के असहयोग का कारण देते हुए फरवरी 1998 में बम बरसाने की धमकी दी थी तो अन्नान ने अधिकतर स्थायी सदस्यों की इच्छा के विपरीत बगदाद जाकर संकट सुलझा दिया था। उनकी सफलता अस्थायी थी, लेकिन उन्होंने संयुक्त राष्ट्र हासचिव की भूमिका की संभावनाएं दर्शा दी थीं। ऐसे में कैसे पक्का करें कि अगला महासचिव आने वाले 70 वर्षों की चुनौतियों पर खरा उतरे? चूंकि भविष्य में झांकने का सर्वश्रेष्ठ तरीका अतीत का जायजा लेना है, इस प्रश्न का उत्तर भी अतीत में है। हम पाएंगे कि संयुक्त राष्ट्र कभी मुकम्मल संस्था नहीं रही और होगी भी नहीं। कई बार यह बुद्धिमत्ता से नहीं चली और कई बार कार्रवाई करने में नाकाम रही, लेकिन श्रेष्ठतम निकृष्टतम, दोनों रूपों में यह दुनिया का आईना है। यह संस्था हमारे मतभेद असहमतियां ही नहीं उम्मीद संकल्प भी जताती है। दूसरे महासचिव महान दाग हैमरशोल्ड ने बिल्कुल सही कहा था, 'संयुक्त राष्ट्र मानवता को स्वर्ग में ले जाने के लिए नहीं, नर्क से बचाने के लिए बनाया गया था।'
हालांकि, संयुक्त राष्ट्र ने लंबा रास्ता तय किया है। मैंने 1978 में संयुक्त राष्ट्र में कॅरिअर की शुरुआत की थी और तब यदि अपने वरिष्ठ से यह कहता कि एक दिन यूएन देशों में चुनावों का पर्यवेक्षण ही नहीं उनका संचालन करेगा, व्यापक विनाश के हथियारों की जांच करेगा, सदस्य राष्ट्र के आयात-निर्यात पर मुकम्मल पाबंदी लगाएगा, आतंकवाद संबंधी समिति बनाकर आतंकियों पर राष्ट्रों की कार्रवाई की निगरानी करेगा, अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण स्थापित करेगा और किसी देश को विदेश में मुकदमा चलाने के लिए आतंकी सौंपने को कहेगा तो उन्होंने मुझसे पूछा होता, 'युवक तुम नशा करके आए हो क्या?' फिर भी यह सब यूएन ने पिछले दो दशक में किया है। वह बदलते समय के अनुसार खुद को ढालने वाला सर्वोत्तम संस्थान रहा है। महासचिव भी ऐसा ही व्यक्ति होना चाहिए।
बेशक महासचिव के पास एजेंडा तय करने का असाधारण अधिकार है, लेकिन उसे अपने हर विचार को लागू करने का अधिकार नहीं है। वह एक विज़न सामने रखता है, जिसे सरकारों को अमल में लाना होता है। वह दुनिया चलाता तो है पर उसे दिशा नहीं दे सकता। हैमरशोल्ड ने शीत युद्ध के चरम पर कहा था, 'निष्पक्ष अधिकारी 'राजनीतिक कौमार्य' के बिना भी 'राजनीतिक ब्रह्मचारी' हो सकता है।' महासचिव को निष्पक्षता छोड़े बिना राजनीतिक भूमिका निभानी होगी, बशर्ते वह यूएन चार्टर अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रति वफादार रहे। (येलेखक के अपने विचार हैं)(DB)
संदर्भ... संयुक्तराष्ट्र में नए महासचिव के चुनाव की प्रक्रिया और नए पदाधिकारी से दुनिया की अपेक्षाएं
शशि थरूर
विदेशमामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री

किराये की कोख : वरदान या अभिशाप! (सुभाषिनी अली)


केद्रीय मंत्रिमंडल ने 25 अगस्त को सरोगेसी (नियमन) विधेयक, 2016 को पारित कर दिया है। सरकार ने कहा है कि संसद में मतदान के लिए पेश किए जाने से पहले, इस विधेयक को निर्वचन समिति को भेजा जाएगा। यह कदम बहुत ही जरूरी है। समाज के सभी तबकों और संगठनों को निर्वाचन समिति में विचार के लिए अपने सुझाव, संशोधन तथा टिप्पणियों को पेश करना चाहिए, ताकि यह संसदीय समिति इस सब को ध्यान में रखते हुए, संसद के सामने अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश करे।सरोगेसी या किराए की कोख का उपयोग, एक चिकित्सकीय प्रक्रिया है, जिसका सहारा अब बढ़ती संख्या में नि:संतान दंपति तथा दूसरे लोग भी ले रहे हैं ताकि संतान का सुख हासिल कर सकें। इस चिकित्सकीय प्रक्रिया में किराए की कोख बनकर कोई महिला अपने गर्भ में किसी अन्य महिला के निषेचित अंड को पालती है तथा उससे बच्चे को जन्म देती है। दूसरी महिला की कोख का निषेचित अंड किराए की कोख की भूमिका अदा करने वाली महिला के गर्भाशय में रोप दिया जाता है। इस तरह, सरोगेसी से बेशक बहुत से लोगों की जिंदगियों में खुशियां आती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से नि:संतान लोगों की किसी तरह से संतान हासिल करने की तीव्र उत्कंठा का फायदा उठाकर, डॉक्टरी के पेशे से जुड़े बहुत से लोग अनाप-शनाप कमाई भी कर रहे हैं।ये लोग सिर्फ सरोगेसी की प्रक्रिया से जुड़ी चिकित्सकीय प्रक्रियाओं का दाम ही नहीं वसूलते हैं बल्कि सरोगेट माताओं को ‘‘जुटाने’ का भी इंतजाम करते हैं। वे इस भूमिका के लिए ज्यादातर गरीब, अशिक्षित या कम पढ़ी-लिखी, जरूरतमंद महिलाओं को ही पकड़ते हैं। बेशक किराए की कोख की भूमिका अदा करने के लिए इन महिलाओं को भी पैसा मिलता है, फिर भी सच्चाई यही है कि इस मामले में सब कुछ जुटाने वाले ही सबसे तगड़ी फीस बटोर रहे होते हैं। इस तरह, बहुत से नि:संतान लोगों की अपनी संतान देखने की ललक का मुनाफाखोरी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और एक मानवीय आवश्यकता की पूर्ति करने वाली इस चिकित्सकीय प्रक्रिया को एक तगड़ी कमाई के धंधे में तब्दील कर दिया गया है। इस क्रम में बहुत ही कमजोर स्थिति की महिलाओं का तरह-तरह से शोषण भी होता है।इसीलिए हमेशा से ही यह मांग उठती रही है कि सरोगेसी का नियमन होना चाहिए और इसे सिर्फ दो पक्षों के बीच के कारोबारी सौदे की तरह नहीं लिया जाना चाहिए। वास्तव में सरोगेसी की प्रक्रिया का जिस तरह अक्सर किराए पर कोख लेने के रूप में जिक्र किया जाता है, वह इसे नंगई से एक धंधे की तरह लिए जाने को ही दिखाता है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि आस्ट्रेलिया, चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, मैक्सिको, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, फिलीपींस, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, यूनाइटेड किंगडम, थाईलैंड तथा नेपाल आदि अनेक देशों में व्यापारिक सरोगेसी पर पाबंदी लगी हुई है। सरकार की ओर से पेश किए गए विधेयक की एक स्वागतयोग्य बात यह है कि इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सरोगेसी की प्रक्रिया में किसी तरह के व्यापारिक लेन-देन की इजाजत नहीं होगी। आवश्यक चिकित्सकीय सेवाओं के खर्चो को इस रोक से अलग रखा गया है। यह रोक हमारे समाज के सबसे गरीब तबके की महिलाओं को इस प्रक्रिया के जरिए हो सकने वाले शोषण से बचाने के लिए बहुत ही जरूरी है। ऐसी महिलाओं की गरीबी तथा कमजोर हैसियत का फायदा उठाकर ही कुछ लोग सरोगेसी के धंधे में भारी कमाई कर रहे हैं। हमारे देश में यह धंधा बढ़कर 2500 करोड़ रुपये का हो चुका बताया जाता है। हम उन लोगों से सहमत नहीं हैं, जो इस तरह की दलीलें पेश कर रहे हैं कि गरीब-लाचार महिलाओं को इस मामले में ‘‘स्वेच्छा से निर्णय’ करने की दिया जाना चाहिए और सरोगेसी को उनके लिए आजीविका के एक साधन की तरह देखा जाना चाहिए। यह किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है। ‘‘अंग व्यापार’ के गरीबों के स्वास्य, शरीर तथा जीवन पर, भयावह दुष्प्रभावों की जैसी जानकारियां सामने आ रही हैं, उनको देखते हुए इसमें ज्यादा बहस की गुंजाइश रह ही नहीं जाती है कि अंग बेचने या किराए की कोख बनने की ‘‘आजादी’ नहीं दी जा सकती है और नहीं दी जानी चाहिए।फिर भी इस विधेयक में कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं, जिनसे हम सहमत नहीं हो सकते हैं। मिसाल के तौर पर हम इससे सहमत नहीं हैं कि किसी अकेले पुरु ष या स्त्री को या समलैंगिक दंपति को, सरोगेसी के जरिए संतान प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा। याद रहे कि इन सभी श्रेणियों के लोगों के लिए बच्चे गोद लेने की इजाजत है। फिर उन्हें सरोगेसी के जरिए संतान हासिल करने के अधिकार से क्यों वंचित किया जा रहा है? इस तरह के प्रावधान दकियानूसी मानसिकता को ही दिखाते हैं। इस विधेयक का मसौदा तैयार करने वाले मंत्रियों के ग्रुप की सदस्य, सुषमा स्वराज का यह बयान कि इन प्रावधानों को शामिल करते हुए हमारे देश के सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखा गया है, इसी का सबूत है।इस विधेयक में ऐसे दंपतियों के भी सरोगेसी से दूसरी संतान हासिल करने पर रोक लगायी गई है, जिनके पास पहले ही स्वाभाविक या सरोगेसी के जरिए संतान कोई एक संतान मौजूद है। विधेयक में यह भी कहा गया है कि कोई भी दंपति शादी के पांच साल बाद ही सरोगेसी का सहारा ले सकता है। इसमें सरोगेट के माता-पिता के लिए न्यूनतम आयु संबंधी पाबंदियां भी लगाई गई हैं। ये बंदिशें काफी बेतुकी लगती हैं।
सरोगेसी को आजीविका के एक साधन की तरह देखा जाना चाहिए। ‘‘अंग व्यापार’ के गरीबों के स्वास्य, शरीर तथा जीवन पर, भयावह दुष्प्रभावों की जैसी जानकारियां सामने आ रही हैं, उनको देखते हुए इसमें ज्यादा बहस की गुंजाइश रह ही नहीं जाती है कि अंग बेचने या किराए की कोख बनने की ‘‘आजादी’ नहीं दी जा सकती है और नहीं दी जानी चाहिए(RS)

हमारे सामने हाइब्रिड वॉर की चुनौती लेफ्टि. जन. (रिटायर्ड) सैयद अता हसनैन स्ट्रैटेजिक एक्सपर्ट, पूर्व कोर कमांडर


क्षिण कश्मीरमें आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के दो माह बाद सेना फिर वहां पूरी ताकत के साथ सड़कों पर जारी उपद्रव के केंद्र में लौट आई। उसे सामान्य हालात बहाल करने को कहा गया है। समझने की बात यह है कि सेना कानून-व्यवस्था बहाल नहीं कर रही है, बल्कि उसे एक तरह से पूरी सार्वजनिक व्यवस्था ही बहाल करनी है, जो पूरी तरह पंगु हो गई है और पुलिस बल इससे निपटने में नाकाम रहा है। सेना को आबादी के अदृश्य नेतृत्व वाले हठी तबके से निपटना है, जिसे नियंत्रण-रेखा के पार से वित्तीय, वैचारिक, मनोवैज्ञानिक योजना के स्तर पर समर्थन मिल रहा है।
पूंछ के बाद उड़ी में आतंकी हमले के साथ पाकिस्तान तनाव बढ़ाने पर तुल गया है ताकि उपद्रव का दायरा बढ़ाने के लिए अांदोलनकारियों का मनोबल बढ़ाया जा सके और भारतीय सेना को दक्षिण कश्मीर को काबू में लाने से रोका जा सके। उड़ी में 18 बेशकीमती जिंदगियां जाने से पाकिस्तान ने भारत की बर्दाश्त करने की हद को पार कर लिया है। यह ऐसा तथ्य है, जिस पर पाकिस्तान ने हमले की साजिश रचते समय गौर नहीं किया होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सारगर्भित बयान दिया है कि हमले के कसूरवारों को छोड़ा नहीं जाएगा, उससे संकेत स्पष्ट हैं कि इस घटना से भारत कितना विचलित है। दक्षिण कश्मीर में सेना को लाने की चर्चा करें तो उसे वहां लोगों से संपर्क का लंबा अनुभव है और 2008-10 में उसने सड़कों के उपद्रव में ग्रामीण आबादी को शामिल कराने के पाकिस्तानी फौज के प्रयासों को नाकाम कर दिया था। फर्क इस बार यही है कि इस बार जो भी परदे के पीछे से आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, उनकी रणनीति पहले से कहीं ज्यादा कारगर रही है। शायद पाकस्तानी फौज ने निष्कर्ष निकाला कि ग्रामीण आबादी के उदासीन रहने से 2008-10 में आंदोलन उतना कारगर नहीं रहा। शहरों में कर्फ्यू लागू करना आसान होता है, लेकिन दूर तक फैले कस्बों गांवों में ऐसा करना कठिन होता है।
सड़कों के अांदोलन में पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए पाक षड्यंत्रकारियों ने उन पर हमले शुरू कर दिए ताकि जम्मू-कश्मीर के पुलिसकर्मियों में डर पैदा कर पुलिस को पंगु बना दिया जाए। उनकी इस रणनीति से हिंसक भीड़ का दुस्साहस बढ़ गया। सीआरपीएफ ने अपना काम किया, लेकिन जब साथ में ऐसी पुलिस हो जिसका मनोबल गिरा हुआ है तो फिर कोई भी बल उतना प्रभावशाली नहीं साबित होता। यह बल पुलवामा, शोपियां और गुलगाम जिलों के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर पुन: नियंत्रण स्थापित नहीं कर पाया। वानी के शहर ट्राल के बारे में जितना कम कहें उतना बेहतर। यही वक्त था, जब सेना को फिर उतरना पड़ा।
इस बार आतंकी कहीं ज्यादा सक्रियता दिखा रहे हैं और सेना के रात्रिकालीन काफिलों को भी निशाना बनाया जा रहा है, जिसके बारे में 2008-10 में सुना नहीं गया था। अपना महत्व बढ़ाने के लिए दिन के रुटीन काफिलों पर भी हमले हुए हैं। इसके साथ नियंत्रण-रेखा पर घुसपैठ के सतत प्रयास से माहौल गरमाने का साफ प्रयास दिखता है। अब जब सेना को दक्षिण के पुलवामा-शोपियां बेल्ट में भारी तादाद में तैनात किया गया है, जहां से पिछले कुछ वर्षों में वह उत्तरोत्तर पीछे हटती गई है, तो इस बात की पूरी आशंका है कि उसे कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। जो स्थिति सामने है, उसमें सबसे पहले तो पुलिस स्थानों पर नियंत्रण स्थापित कर जहां भी उन्हें खतरा लगता है, वहां सेना के पूर्ण समर्थन के साथ स्थानीय पुलिस को ड्यूटी पर लाना होगा। वजह यह है कि सेना द्वारा आत्मविश्वास की बहाली एक बात है और उसी स्थानीय क्षेत्र का होने के कारण पुलिसकर्मी को वहां काम करना कठिन होता है।
आमतौर पर सेना की ताकत फ्लैग मार्च से दिखाई जाती है, लेकिन यहां खतरा बड़ा है और बड़े गश्ती दल (पैदल वाहन दोनों) की छोटे कस्बों में सक्रियता की जरूरत है। यह अच्छी बात है कि सेना ने अब तक मूलभूत कवायदों को भुलाया नहीं है। यहां तक कि जब शोपियां जल रहा था, तो राष्ट्रीय राइफल्स के मुख्यालय बालापुर के पास मेडिकल वेट कैंप चल रहे थे। मुख्यमंत्री ने जिस विशाल मौन बहुसंख्यक आबादी की बात की है अौर मैं भी उससे वाकिफ हूं, जो कट्‌टरपंथी युवाओं से डरी हुई है। स्थिति सुधारने के लिए इन युवाओं को सुनियोिजत रूप से घाटी के बाहर ले जाकर उन्हें इसप्रवृत्ति से बाहर लाना होगा। यहीं पर कड़ाई बरतने की जरूरत है। सेना को सतत अपने नेतृत्व टुकड़ियों को प्रशिक्षण देते रहना होगा, क्योंकि वे सारे बहुत संवेदनशील जिम्मेदािरयों में शामिल हैं। इनमें से कई टुकड़ियां घाटी के बाहर से आई हैं। राष्ट्रीय राइफल्स की यूनिट्स में कई अनुभवहीन जवान हैं, जिन्हें वहां की दुविधाजनक स्थिति में काम करने का दबाव महसूस हो सकता है।
कश्मीर में हिरासत में रखने की सुविधाएं कम हैं। एेसे में श्रीनगर सेंट्रल जेल में कट्‌टर आतंकियों उपद्रवियों को एकसाथ रखना बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। जेल की बार-बार अच्छी तरह समीक्षा होनी चाहिए। हिरासत में रखे लोगों के संबंधियों द्वारा घर का बना खाना लेकर वहां आने से सिम कार्ड मोबाइल पहुंचना आम है। बंदियों को हिरासत का दबाव महसूस होना चाहए। एेसे में उन्हें जम्मू और उसके परे के डिटेंशन सेंटरों पर भेजा जाना चाहिए।
सेना के सामने पाक द्वारा हाइब्रिड वॉर की रणनीति को व्यापक दायरे में लागू करने की चुनौती है। इसका जवाब हर समस्या का समाधान खुद ही निकालना नहीं है। सारी एजेंसियों के साथ पूरी सरकार की ओर से प्रयास जरूरी है। जहां जरूरी है, वहां एजेंसियों को प्रोत्साहित कर, सहायता देकर या सप्रयास आगे बढ़ाकर उनका सहयोग लेना होगा। राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान को अत्यधिक दबाव में लाना होगा ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका पर्दाफाश किया जा सके। सेना, सरकार, राजनयिकों के एकजुट प्रयास से ही कामयाबी मिलेगी। अाखिरी बात, उड़ी हमला और आगे होने वाले अन्य हमले सेना के दायरे मेें ही रखने होंगे। कठोर विकल्प तो बहुत सारे हैं, लेकिन हम जिनका भी चुनाव करें, उनका रणनीतिक प्रभाव और स्पष्ट दिखाई देने वाला परिणाम होना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(DB)
संदर्भ... पाकको सबक सिखाने के विकल्प और दक्षिण कश्मीर में स्थिति को काबू में लाने की जरूरत

भारत-नेपाल : ’प्रचंड‘‘ रिश्ते की उम्मीद (अवधेश कुमार)


नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड की यात्रा के दौरान हुए तीन समझौते उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जितने कि अटृट लगाव, सद्भाव व सदियों पुराने अनोखे संबंधों को हर हाल में बनाए रखने का संकल्प। प्रचंड के दिल में यदि भारत के साथ अनोखे संबंधों को बनाए रखने और चीन सहित किसी देश को भारत की जगह नहीं देने की उनकी प्रदर्शित सोच में ईमानदारी है तो ऐसे तीस समझौते कभी भी हो सकते हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद परंपरा का पालन करते हुए पहले दौरे पर भारत आने का तत्काल हम यह अर्थ निकाल सकते हैं कि वे भारत के संबंधों को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने चीन और भारत के बीच संतुलन बनाने के नाम पर चीन के पक्ष में झुकाव दिखाया था। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के शासनकाल में जब मधेसियों ने संविधान में अपना हक न दिए जाने के विरु द्ध नाकेबंदी की तो अन्य नेताओं की तरह प्रचंड ने भी भारत के खिलाफ आग उगला था। प्रचंड के तेवर से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि नेपाल के कई नेताओं के साथ उनको भी यह असहास हुआ कि उस दौरान गलती भारत की नहीं थी। ओली ने ही चीन का भय दिखाकर भारत को दबाव में लाने की गलत रणनीति अपनाई थी। हालांकि एकाएक कुछ निष्कर्ष निकाल लेना जल्दबाजी होगी। लेकिन तत्काल यह कहा जा सकता है कि देर आयद दुरुस्त आयद! भारत तो हमेशा नेपाल को एक पड़ोसी से ज्यादा सहोदर भाई की तरह देखता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कूटनीति का एक पहलू पूरी दुनिया के सामने उजागर हुआ है, वह है किसी भी मुद्दे पर खुलकर बात करना। हैदराबाद हाउस में जब प्रचंड से उनकी मुलाकात हुई तो दोनों के बीच खुलकर बात हुई। भारत को तो नेपाल की ज्यादातर मांगों से तब तक कोई समस्या नहीं हो सकती, जब तक उसमें हमारा विरोध शामिल नहीं हो। नेपाल की रक्षा व सुरक्षा की जो भी चिंताएं थीं, भारत उन्हें दूर करने को तैयार है। नेपाल की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में हरसंभव मदद करने का वचन दिया गया है। मोदी और प्रचंड के सामने जिन तीन समझौते पर हस्ताक्षर हुए, उनमें एक नेपाल में ‘‘तराई परियोजना’ के तहत सड़क मार्ग बनाने और अन्य दो नेपाल को एक अरब डॉलर की आर्थिक मदद देने से जुड़ी हुई है। मोदी और प्रचंड की बैठक में यह भी सहमति बनी कि भारत नेपाल के भूकंप पीड़ित इलाकों में तीन लाख घर बनाएगा। ध्यान रखिए, पहले भारत ने दो लाख घर बनाने की बात कही थी। ओली की भारत विरोधी नीतियों के कारण यह काम गति नहीं पकड़ रहा था। मोदी ने कहा कि नेपाल में भारत की मदद से जो भी परियोजनाएं लगाई जाएंगी, उन्हें भारत अब एक निर्धारित समयसीमा में पूरा करेगा। भारत तराई क्षेत्र में सड़क बनाने के साथ ही वहां पावर ट्रांसमिशन की दो लाइन बनाने और पॉलीटेक्निक संस्थान बनाने को भी तैयार हुआ है। प्रचंड जब आठ वर्ष पहले पहली बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे तभी उनकी ओर से 1950 की ‘‘नेपाल-भारत शांति’ एवं ‘‘मैत्री संधि’ सहित नेपाल एवं भारत के बीच हुई विभिन्न संधियों एवं समझौतों की समीक्षा की मांग की गई थी। उस समय इसे लेकर खूब बहस हुई। लेकिन बात आगे बढ़ी नहीं। जैसा विदेश सचिव जयशंकर ने बातया प्रचंड ने पुन: यह बात दुहराई। हालांकि 1950 का समझौता भारत की आजादी के 3 वर्ष के अंदर हुआ था और उस समय दोनों देशों के नेताओं के संबंध एकदम गहरे थे। तो वह एक विास और अपनापन था और उस समय स्वयं भारत की यह हैसियत नहीं थी, जो आज है। मगर कोई भी संधि दोनों पक्षों की सहमति से ही कायम रह सकती है। यदि नेपाल इसमें बदलाव चाहता है, जैसा प्रचंड ने कहा तो उसे या तो उन बिंदुओं को रेखांकित करना चाहिए या फिर नए संधि का प्रारूप बनाकर सामने लाना चाहिए। मोदी ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान यही तो कहा था कि वे इस समझौते में किस तरह का बदलाव करना चाहते हैं, उसका प्रस्ताव भारत को भेजें। देखते हैं, नेपाल की ओर से किस तरह का प्रस्ताव आता है। प्रचंड के भारत दौरे पर नेपाल के मधेसियों और तराई में बसे जनजातियों की भी नजर थी। उनकी भारत से अपेक्षाएं हैं और हम उन्हें निराश नहीं कर सकते। भारत के लिए मधेस में बसे नेपाल की आबादी के करीब 51 प्रतिशत मधेसियों और आदिवासियों की समस्याओं और उनकी भावनाओं का महत्त्व है। उनके साथ जब भी संकट होता है वह समाधान के लिए स्वाभाविक ही भारत की ओर देखते हैं। अगर उनको लगता है कि नेपाल में पिछले वर्ष स्वीकृत संविधान में उनके साथ अन्याय हुआ है, इससे उनकी पहचान और राजनीतिक वजूद दोनों को खतरा है तो इसे नेपाल नेतृत्व को समझना होगा। यह ओली की विफलता थी कि मुद्दे को सुलझाने की जगह उन्होंने अड़ियल रुख अपनाया। यह किसी देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप का मामला नहीं है। भारत ने यह बात रखते समय साफ किया कि हर तरह का फैसला नेपाल की जनता एवं वहां की निर्वाचित सरकार को ही करना है। परंतु इसमें देरी न हो अन्यथा समस्या और संकट फिर पैदा हो जाएगा। इससे नेपाल में फिर राजनीतिक अस्थिरता कायम हो सकती है। प्रचंड ने शीघ्र ही मधेसियों और जनजातियों के प्रतिनिधियों के साथ बैठकर इसे सुलझाने का वायदा किया है और हमें उस वायदे पर विास करना चाहिए। आवश्यकतानुसार उसमें सहयोग भी करना होगा। मूल बात संबंधों में विास और अपनत्व के भाव का है। प्रचंड ने अभी तक तो ऐसा प्रदर्शित किया है। भारत ने इसे ध्यान में रखते हुए यह फैसला किया है कि दोनों देशों के बीच लगातार उच्चस्तरीय बातचीत होती रहनी चाहिए। इस योजना के तहत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अगले महीने काठमांडू जाएंगे जबकि नेपाल की राष्ट्रपति विद्या भंडारी भी भारत आएंगी। इसके अलावा, प्रधानमंत्री ने भी नेपाल के प्रधानमंत्री का आमंतण्र स्वीकार किया है। इससे विास और सहकार को सुदृढ़ करने में मदद मिलेगी। (RS)

एक-दूसरे के दुश्मन बनते राज्य (विवेक शुक्ला)


क्यों अपने देश के बहुत से राज्य एक-दूसरे से लड़ रहे हैं? क्यों नदी के जल के बंटवारे से लेकर एयरपोर्ट के नाम पर कलह हो रही है? क्या अपने देश के सूबे एक दूसरे से विकास के मामले में आगे बढ़ने के बजाय संकुचित मसलों पर लड़ते रहेंगे? अफसोस, लगता तो यही है। अभी कुछ दिन पहले ही तो देश की आइटी राजधानी बेंगलुरु झुलस रही थी। तमिल मूल के नागरिकों के साथ मारपीट हुई। उनकी दुकानों वगैरह को आग के हवाले कर दिया गया। वजह कावेरी जल विवाद है। सुप्रीम कोर्ट के कावेरी के जल के बंटवारे को लेकर दिए गए फैसले के बाद कर्नाटक में आगजनी हुई।
इधर वह मामला कुछ शांत हुआ तो अब कभी एक रहे पंजाब और हरियाणा आमने-सामने हैं। इनमें सतलुज-यमुना लिंक नहर के जल के बंटवारे पर लंबे समय से चल रही रस्साकशी के बाद अब एक नया क्लेश शुरू हो गया है। किच-किच की वजह मोहाली में निर्मित हवाई अड्डे के नाम को लेकर है। दरअसल चंडीगढ़ एयरपोर्ट मामले में हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को पत्र लिखकर नाराजगी जताई है। बीते दिनों इस एयरपोर्ट से इंटरनेशनल फ्लाइट्स का श्रीगणोश शुरू हुआ। उस दिन पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल एक सरकारी प्रतिनिधिमंडल के साथ इस पहली फ्लाइट से गए। उस दौरान एयरपोर्ट के आसपास पंजाब सरकार के विज्ञापनों में चंडीगढ़ के बजाय मोहाली एयरपोर्ट लिखने पर मनोहर लाल खट्टर लाल-पीले हो गए। खट्टर कह रहे हैं, अभी तक एयरपोर्ट का नाम केंद्र सरकार ने नहीं रखा है और पंजाब का इस पर अपना हक जताना सही नहीं है। पंजाब सरकार ने मोहाली एयरपोर्ट से इंटरनेशनल फ्लाइट शुरू होने पर एयरपोर्ट पर प्रेस कॉन्फ्रेंस की और अखबारों में विज्ञापन दिए। पंजाब सरकार ने इसे अपनी उपल}िध बताया है और एयरपोर्ट को चंडीगढ़ नहीं, बल्कि मोहाली इंटरनेशनल एयरपोर्ट बताने की कोशिश की है, जबकि हरियाणा ने भी इस एयरपोर्ट के निर्माण के दौरान बराबर का पैसा खर्च किया है।
हालांकि कुल मिलाकर लगता है कि आजकल मौसम नदी के जल के बंटवारे के बिंदु पर लड़ने का है। छत्तीसगढ़ और ओडिशा की जीवनदायनी महानदी के जल के बंटवारे के मसले पर दोनों राज्यों के बीच भी तलवारें खींच गई हैं। हालात बिगड़ रहे हैं। ओडिशा में स्थानीय राजनीतिक दल लगातार बंद का आह्वान कर रहे हैं तो छत्तीसगढ़ में भी लोग ओडिशा के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में अरपा, भैंसाझार बांध परियोजना के निर्माण से ओडिशा सरकार नाराज है। उसका मानना है कि इस बांध के निर्माण से राज्य के कई इलाकों में सूखे के हालात बनेंगे, जबकि छत्तीसगढ़ सरकार की दलील है कि वो सिर्फ महानदी का बैक वॉटर रोक रहा है। यह पानी आगे जाकर ओडिशा में समुद्र में मिल जाता है। महानदी छत्तीसगढ़ के अंतिम छोर से निकलकर ओडिशा की ओर बहती है। फिर यह भुवनेश्वर और पूरी के करीब समुद्र में मिल जाती है। बस गनीमत इतनी है कि अभी तक महानदी के पानी के बंटवारे पर ओडिशा या छत्तीसगढ़ का कोई शहर नहीं जला। जैसे बेंगलुरु जला था। दोनों राज्यों के नागरिकों ने एक-दूसरे के अपने यहां रहने वाले नागरिकों के साथ मारपीट या बदसलूकी नहीं की। यानी कावेरी से लेकर महानदी तक विवाद गहराते जा रहे हैं। इनका कोई स्थायी समाधान सामने आ नहीं रहा है। कावेरी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कर्नाटक में हिंसा हुई। विभिन्न राज्य आपस में बिना सोचे-समङो लड़ रहे हैं। ये सिलसिला थमना चाहिए। नहीं तो हालात बेकाबू हो जाएंगे। फिलहाल राय केंद्र या कोर्ट की मध्यस्थता को भी नहीं मान रहे। हालात घोर अराजकता की तरफ बढ़ रहे हैं।
राज्यों के बीच विवादों की फेहरिस्त सच में लंबी है। बेलगाम को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच 1956 से ही सीमा विवाद चल रहा है। बेलगाम मराठी बहुल इलाका है जो कर्नाटक राज्य में आता है। महाराष्ट्र लंबे समय से बेलगाम के अपने में विलय की मांग करता रहा है। कुछ समय पहले इस मुद्दे पर आंदोलन करने वाले मराठी भाषियों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया था। लाठी चार्ज का महाराष्ट्र के सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया था। महाराष्ट्र के सभी दल बेलगाम और आसपास के इलाकों को महाराष्ट्र में मिलाने या केंद्रशासित घोषित करने की मांग करते रहे हैं। दरअसल बेलगाम में बड़ी संख्या में मराठीभाषी लोग रहते हैं। फिलहाल ये इलाका कर्नाटक में है। महाराष्ट्र और कर्नाटक में लंबे समय तक केंद्र के साथ कांग्रेस की सरकारें रहीं। फिर भी बेलगाम या सतलज-यमुना लिंक नहर जैसे मसले सुलझ नहीं पाए। समझ नहीं आता कि राज्यों के आपसी विवादों के हल क्यों निकल रहे? रंजिशें स्थायी हो गई हैं। इनको हल करने को लेकर लगता है कि कोई गंभीरता से प्रयास भी नहीं कर रहा। सब मामले को ठंडे बस्ते में डाल कर रखना चाहते हैं। सबको भय रहता है कि अगर विवाद को हल करने के क्रम में उन्हें नुकसान हुआ तो उनके राय की जनता उन्हें माफ नहीं करेगी।
और देश के नक्शे में आते ही तेलंगाना ने आंध्र प्रदेश से पंगा लेना शुरू कर दिया था। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री कभी-कभी लगता है कि सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए हैं। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और तेलांगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव आपस में जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं, जाहिर तौर पर उसकी उनसे कतई अपेक्षा नहीं की जा सकती। दोनों का एक-दूसरे को लेकर रुख शर्मनाक है। आंध्र प्रदेश की सियासत को जानने-समझने वालों को पता है कि एक दौर में दोनों साथ थे, पर बाद में उन्होंने तेलंगाना राज्य की राजनीति करनी चालू कर दी। इसके चलते दोनों में दूरियां बढ़ीं। राजनीति में नेताओं और दलों में वाद-विवाद होते हैं। ये सामान्य बात है, पर विवाद किसी भी हालत में वैमनस्य में नहीं बदलने चाहिए। नायडू और राव जिस तरह से एक-दूसरे को लेकर आचरण करते हैं और आरोप लगाते हैं, उससे कोई भी निराश होगा। बेहतर होता कि आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद दोनों राज्य आगे बढ़ते। दोनों में विकास होता। इससे देश को ही लाभ होता, पर यहां तो हद हो रही है। ये तो एक-दूसरे के जानी दुश्मन बनकर सामने आ रहे हैं। दोनों एक-दूसरे का चेहरा भी देखने से बचते हैं। नायडू और राव एक-दूसरे से बात भी कम ही करते हैं। दिल्ली के आंध्र भवन में जब नायडू-राव होते हैं तो वे एक-दूसरे से शिष्टाचारवश भी मुलाकात नहीं करते। पृथक तेलंगाना को लेकर चलने वाले आंदोलन के समय से ही आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के नेताओं और जनता में दूरियां बढ़ने लगी थीं। एक-दूसरे से शिकायतों के दौर शुरू हो गए थे। कुछ इस तरह के हालात बन गए थे कि मानो दो शत्रु राष्ट्र हों। तब ही लग रहा था कि ये राय आपस में मिल-जुलकर शायद न रह पाएं। वह सब अब सामने आ रहा है।
और सिर्फ राज्य ही एक-दूसरे के खिलाफ जंग नहीं कर रहे। अब एक राज्य के नागरिकों के लिए दूसरे राज्य में रहना चुनौती हो रहा है। पूर्वोत्तर र राज्योंमें हिंदी भाषी गोली के निशाने पर हैं, तो उत्तर भारत में नार्थ-ईस्ट के नागरिकों को तमाम तरह के अपमान ङोलने पड़ते हैं। महाराष्ट्र में बिहारी पिट रहे हैं। बेहतर ये होता कि पड़ोसी राज्य एक-दूसरे के खिलाफ कटुता रखने या फैलाने के बजाय अपने प्रदेशों के चौतरफा विकास पर फोकस करते। अपने यहां पर विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए एक-दूसरे से आगे बढ़ने की हरचंद कोशिश करते, पर मौजूदा सूरतेहाल पर नजर डालने पर लगता है कि अभी सूबों के बीच विवादों के स्थायी हल निकलना दूर की संभावना है। चीनी कहावत है कि पड़ोसी कभी प्रेम और मैत्री के वातावरण में नहीं रह सकते। यानी पड़ोसी तो लड़ेंगे ही। इनमें छत्तीस का आंकड़ा रहेगा ही। इनमें आपसी तकरार और टकराहट खत्म होने का नाम नहीं लेती। तो राज्यों की आपसी किच-किच जारी रहने वाली है।(DJ)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

परिवहन की मुख्यधारा बनेगा नदियों का प्रवाह (जयंती लाल भंडारी, अर्थशास्त्री)


सड़कों को तरक्की का मानक बनाने का एक नतीजा यह हुआ कि अपने जलमार्गों को हम भूल गए, जबकि इन्हें प्राकृतिक पथ कहा जाता है। सड़कें हम बनाते हैं, इन्हें तो कुदरत ने बनाया है। यही प्राकृतिक पथ कभी भारतीय परिवहन की जीवन-रेखा हुआ करते थे। लेकिन समय के साथ आए बदलावों व परिवहन के आधुनिक साधनों के चलते बीती एक सदी में भारत में जल परिवहन क्षेत्र बेहद उपेक्षित होता चला गया। हालांकि हमारे पास 14,500 किलोमीटर जलमार्ग है, और इस विशाल जलमार्ग पर हमेशा बहती रहने वाली नदियों, झीलों और बैकवाटर्स का उपहार भी मिला हुआ है। लेकिन हम इसका उपयोग नहीं कर सके और समय के साथ इनकी क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई, जबकि जल परिवहन दुनिया भर में माल ढुलाई का पसंदीदा जरिया बना हुआ है।
पर्यावरण मित्र और किफायती होने के बाद भी भारत इस परिवहन का कोई लाभ नहीं उठा पाया है। लागत के हिसाब से देखें, तो एक हॉर्स पावर शक्ति की ऊर्जा से पानी में चार टन माल ढोया जा सकता है, जबकि इससे सड़क पर 150 किलो और रेल से 500 किलो माल ही ढोया जा सकता है। यही कारण है कि यूरोप, अमेरिका, चीन व बांग्लादेश में काफी मात्रा में माल की ढुलाई अंतर्देशीय जल परिवहन तंत्र से हो रही है। कई यूरोपीय देश अपने कुल माल और यात्री परिवहन का 40 प्रतिशत पानी के जरिये ढोते हैं।
यूरोप के कई देश आपस में इसी साधन से बहुत मजबूती से जुड़े हैं। लेकिन हमने इसे नजरंदाज कर दिया। वह भी तब, जब अपनी समस्याओं को देखते हुए हमें इसे प्राथमिकता देनी चाहिए थी। देश के अधिकांश बिजलीघर कोयले की कमी से परेशान रहते हैं। सड़क और रेल परिवहन से समय पर कोयला नहीं पहुंच पाता। ऐसे में, अंतर्देशीय जलमार्गों द्वारा कोयला ढुलाई की नियमित और किफायती संभावनाएं हैं।
हमारी कई बड़ी विकास परियोजनाएं राष्ट्रीय जलमार्गों के नजदीक साकार होने जा रही हैं। बहुत सी पनबिजली इकाइयां और नए कारखाने इन इलाकों में खुल चुके हैं। इनके निर्माण में भारी भरकम मशीनरी की सड़क से ढुलाई आसान काम नहीं है। इसमें जल परिवहन की अहम भूमिका हो सकती है। अनाज और उर्वरकों की बड़ी मात्रा में ढुलाई जल परिवहन से संभव है। जैसे, पंजाब और हरियाणा से खाद्यान्न कम कीमत पर सफलतापूर्वक जल परिवहन से पश्चिम बंगाल भेजा जा सकता है।
हमारी ज्यादातर बड़ी नदियों और उनकी सहायक नदियों के किनारे बहुत से मेले और पर्व होते हैं। इन जलमार्गों से पर्यटन के रास्ते भी खोले जा सकते हैं। अच्छी बात यह है कि अब सरकार इस पर ध्यान दे रही है। अभी तक देश में जल परिवहन साढ़े तीन फीसदी ही होता है, इसे दो साल में सात फीसदी तक ले जाने का लक्ष्य है। 111 नए नदी-मार्ग बनाए जाएंगे। नदियों को परिवहन की मुख्यधारा बनाने से उनके बहुत से सवाल चर्चा में रहेंगे। (हिंदुस्तान )

नेपाल की नीति में सार्थक बदलाव (उमेश चतुर्वेदी)

प्रचंड के क्रांतिकारी नाम से दुनियाभर में विख्यात नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल की पद संभालने के बाद पहली भारत यात्रा मोदी सरकार की बड़ी कुटनीतिक जीत है। इस जीत को वे लोग और यादा गहराई से समझ सकते हैं, जिन्हें प्रचंड के दल यूनीफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल की विचारधारा की जानकारी है। चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग की वैचारिक धारा की अनुयायी पार्टी के नेता प्रचंड ने दूसरी बार नेपाल की सत्ता 4 अगस्त को तब संभाली, जब नेपाल की समाजवादी विचारधारा की राजनीति करने वाली नेपाली कांग्रेस के नेता केपी शर्मा ओली की अगुआई वाली सरकार को विश्वासमत में हार का सामना करना पड़ा। यह कम बड़ी उलटबांसी नहीं है कि जिस नेपाली कांग्रेस पार्टी को भारत की समाजवादी राजनीतिक विचारधारा का नजदीकी माना जाता रहा है, राजतंत्र विरोधी नेपाली कांग्रेस के आंदोलन में जिसने सहयोग दिया था, वह भारतीय समाजवादी राजनीतिक धारा ही थी। यही वजह है कि नेपाली कांग्रेस को भारतीय समाजवादी राजनीतिक पार्टियों का सहयोगी माना जाता रहा है। लेकिन उसके ही नेता की अगुआई में बनी सरकार ने उन मधेसी समुदाय के अपने ही नागरिकों के साथ संविधान में भेदभाव पूर्ण संशोधन मंजूर किया, जिसका रोटी और बेटी का रिश्ता सीमावर्ती भारतीय नागरिकों से है।
बहरहाल, मधेसी आंदोलन अब पुराना पड़ चुका है। उसी आंदोलन की आंच में झुलसकर केपी शर्मा ओली सत्ता गवां चुके हैं। इस पृष्ठभूमि में पुष्प कमल दहल को जब नेपाल की सत्ता की कमान मिली तो एक बार फिर भारत में आशंका के बादल ही छाने लगे। इसकी पहली वजह तो उनकी पार्टी की राजनीतिक विचारधारा तो है ही, उनका अतीत भी है। 2008 में जब वे नेपाल के पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अपना पहला दौरा चीन का ही किया था। तब उनकी सरकार चीन की तरफ ही झुकती नजर आई थी। लेकिन इस बार उनका रवैया बदला हुआ है।
नेपाली कांग्रेस के बड़े नेताओं मसलन पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला, उनकी बहन सुजाता कोइराला, भाई सुशील कोइराला के साथ ही मनमोहन भट्टराई, प्रदीप गिरि, चक्र वास्तोला आदि का भारतीय नेताओं और भारतीय सरजमीं से गहरा रिश्ता रहा है। खुद प्रचंड भी दिल्ली में अपने क्रांतिकारी भूमिगत जीवन का बड़ा हिस्सा गुजार चुके हैं। प्रचंड के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री रहे उनके ही पार्टी सहयोगी बाबूराम भट्टराई की पढ़ाई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई थी। इन वजहों से इन नेताओं की भारत को लेकर सहानुभूति रही। लेकिन यह सहानुभूति प्रचंड के पहले कार्यकाल में नजर नहीं आई थी। उनकी सरकार चीन से गलबहियां करती ज्यादा नजर आई। वैसे भी चीन भारत को घेरने की रणनीति के तहत जहां पाकिस्तान के बलूचिस्तान तक आर्थिक कॉरिडोर बना रहा है, वहीं उसने नेपाल सरकार से तिब्बत की राजधानी ल्हासा से काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने का करार किया है। भारत वैसे भी नेपाल के विकास कार्यो में भागीदार रहा है। उसके सहयोग से नेपाल में जहां सड़कें और अस्पताल बनाए जा रहे हैं, वहीं इन मोर्चो पर मदद के नाम पर चीन भी भारत का सहयोग कर रहा है। सदियों से सांस्कृतिक और राजनीतिक रिश्तों के बावजूद ओली के शासन काल के दौरान भारत को दरकिनार करने की कोशिशें तेज हुईं। इसी दौरान नेपाल सरकार ने पेट्रोलियम आयात करने के लिए चीन से करार किया। एक तरह से देखें तो ओली के शासनकाल में नेपाल में चीन की बढ़ती भूमिका एक तरह से प्रचंड के कार्यकाल के दौरान उपजे चीन प्रेम का विस्तार ही थी। जाहिर है कि इससे भारत को चिंतित होना ही था और हुआ भी।
लेकिन अब लगता है कि प्रचंड ना सिर्फ राजनीति समझ गए हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के महत्व और उसमें नेपाली हित को लेकर भारत की भूमिका को भी समझ रहे हैं। कहा जा सकता है कि 2008 में प्रचंड जहां क्रांतिकारी थे, वहीं अब वे समझदार राजनेता नजर आ रहे हैं। उन्हें अब शायद यह समझ आ गया है कि चीन के साथ सहयोग बढ़ाने से नेपाल में भले ही आर्थिक तेजी आ जाए, लेकिन चीन अपनी विस्तारवादी नीति से नेपाल को बख्श देगा, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। चीन आर्थिक के साथ ही राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश करेगा, जबकि भारत की नीति किसी दूसरे देश के अंदरूनी राजनीतिक और आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप करने की नहीं रही है। शायद यही वजह है कि दूसरी बार सत्ता संभालने के फौरन बाद प्रचंड को उसी दिल्ली की याद आई है, जिसके हृदय स्थल मंडी हाउस के चौराहे और चाय की दुकानों पर अपने दिल्ली वाले दोस्तों के साथ चाय की हजारों चुस्कियां लेते हुए नेपाल में क्रांति को सफल करने का सपना देखा था। उन्होंने अगर भारत के साथ रिश्ते सुधारने को महत्व को समझा नहीं होता तो भारतीय अखबारों को यात्र से पहले साक्षात्कार क्यों देते कि वे दिल्ली आकर ना सिर्फ नेपाल, बल्कि खुद को लेकर बनी धारणा को भी बदल देंगे।
पूरी दुनिया जानती है कि प्रचंड लाल सलाम वाले व्यक्ति हैं और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसके ठीक विपरीत ध्रुव पर खड़ी राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रतिबद्ध स्वयंसेवक हैं। ऐसे माहौल में अगर भारत यात्रा से पहले प्रचंड कहते हैं कि उनकी और मोदी की केमिस्ट्री मिलती है तो मानना पड़ेगा कि उनके विचारों में काफी बदलाव आया है।
इन दिनों नेपाल की सबसे बड़ी चुनौती पिछले साल आए भूकंप से तबाही से पार पाना और लोगों की जिंदगी को पटरी पर लाना है। अनुमान के मुताबिक भूकंप के दौरान नौ हजार लोगों की मौत हुई थी, जबकि आठ लाख घर तबाह हुए थे। प्रचंड ने सत्ता संभालते ही बर्बाद हुए घरों के लिए पचास-पचास हजार रुपये की तत्कालिक सहायता का ऐलान किया है, लेकिन यह मदद ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। इस मोर्चे पर भारत का सहयोग नेपाल को मिल रहा है। हालांकि मधेस आंदोलन और उस पर ओली सरकार के रवैये के चलते भारत का रुख थोड़ा ठंडा रहा है। लेकिन प्रचंड इस यात्रा के दौरान भूकंप से उजड़े नेपाल के लिए भारत से और अधिक मदद की उम्मीद लगा रखे हैं। जिस तरह उनका भारत में स्वागत हो रहा है, उससे तय है कि भारत सरकार भी उन्हें शायद ही निराश करे। वैसे भारत अब भी नेपाल का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है।
जिनेवा संधि के मुताबिक भारत का कोलकाता बंदरगाह नेपाल के लिए आवंटित है। साथ ही भारत नेपाल का सबसे बड़ा दानदाता, आपूर्तिकर्ता और ईंधन का एकमात्र स्नोत है। वैसे भारत 56 सौ मेगावाट की पंचेश्वर परियोजना नेपाल में लगाने का समझौता कर चुका है। इसके साथ हुलाकी राजमार्ग की 600 किलोमीटर लंबी सड़क परियोजना में भी भारत की दिलचस्पी है। भारत के खासकर बिहार में बाढ़ की बड़ी वजह नेपाल से आने वाली नदियां कोशी और गंडक हैं। नेपाल से अक्सर उन पर बांध बनाने की मांग की जाती रही है। इस लिहाज से इन परियोजनाओं का अपना खासा महत्व है। उम्मीद की जा रही है कि प्रचंड की इस यात्रा के दौरान इन परियोजनाओं पर भी काम आगे बढ़ाने पर सहमति होगी।
प्रचंड की यात्रा के दौरान अगर मधेसी समुदाय की समस्या को सुलझाने की दिशा में बात आगे नहीं बढ़ी तो बाकी समझौतों का कोई मोल नहीं रहेगा। नेपाल की जनसंख्या में मधेसी समुदाय की हिस्सेदारी 52 फीसदी है। लेकिन इनका वहां की नौकरशाही में उचित हिस्सेदारी नहीं है। मधेसी समुदाय नए संविधान के तहत देश को सात प्रांतों में बांटे जाने का विरोध कर रहा है। इस समुदाय की तीन प्रमुख मांग यह हैं कि सीमा का पुनर्निधारण किया जाए, आनुपातिक प्रतिनिधित्व शामिल किया जाए और आबादी के आधार पर संसदीय सीटों का आवंटन किया जाए। मधेसियों की चिंता है कि भारत से जाने वाली बहुओं को 15 साल बाद वहां की नागरिकता मिलेगी और उनके बाल-बच्चों को किसी उच्च पद पर नहीं जाने दिया जाएगा। इसके चलते मधेसी समुदाय ने फेडरल मोर्चा बनाकर आंदोलन कर दिया था। (DJ)

वियतनाम के लिए प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान भारत और वियतनाम के बीच संयुक्त वक्तव्य (भारतीय विदेश मंत्रालय की साईट से आभार सहित )


वियतनाम समाजवादी गणराज्य के प्रधान मंत्री महामहिम श्री गुयेन शुआन फुक के निमंत्रण पर, भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री महामहिम श्री नरेंद्र मोदी ने 02- 03 सितंबर 2016 तक वियतनाम समाजवादी गणराज्य की सरकारी यात्रा की ।
3 सितंबर 2016 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक औपचारिक स्वागत किया गया। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रधानमंत्री गुयेन शुआन फुक के बीच द्विपक्षीय वार्ता के बाद किया गया। इसके बाद, दोनों प्रधानमंत्रियों ने द्विपक्षीय दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव, महामहिम श्री गुयेन फू त्रांग, वियतनाम के राष्ट्रपति महामहिम श्री ट्रॅन दाई क्वांग, और वियतनाम की नेशनल असेंबली की अध्यक्ष महामहिम श्रीमती गुयेन थी किम नगन से मुलाकात की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय नायकों और शहीदों के स्मारक और हो ची मिन्ह समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित की, उन्होंने हो ची मिन्ह आवासीय परिसर और हनोई में क्वान सु शिवालय का दौरा किया।
वियतनाम और भारत के नेताओं ने दोनों देशों के बीच अब तक लंबे समय से चली आ रही पारंपरिक दोस्ती और सामरिक साझेदारी के संबंधों के मजबूत और व्यापक विकास की समीक्षा की और पारंपरिक दोस्ती और उस पर संतोष व्यक्त किया। दोनों पक्षों ने तथ्य का स्वागत किया कि दोनों देशों 2017 में राजनयिक संबंधों की स्थापना की 45 वीं वर्षगांठ (07/1/1972 - 07/1/2017) और सामरिक भागीदारी की स्थापना की 10 वीं वर्षगांठ (06/7/2007 - 06/7/2017) मना रहे होंगे, और जोर देकर कहा कि यह एक मील का पत्थर है और द्विपक्षीय संबंधों के लिए एक नया चरण खोलता है।
उन्होंने यह विचार सांझा किया कि भारत और वियतनाम के संबंध संस्कृति, इतिहास और सभ्यता, आपसी विश्वास और समझ में घनिष्ठ संबंध के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय मंचों पर मजबूत आपसी सहयोग के साथ एक सुदृढ़ नींव पर निर्मित हैं। वियतनामी पक्ष ने भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी के लिए वियतनाम के समर्थन की पुष्टि की और क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भारत के लिए एक बड़ी भूमिका का स्वागत किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुष्टि की है कि वियतनाम भारत की एक्ट ईस्ट नीति का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है।
वर्तमान उत्कृष्ट संबंधों पर आधारित, नेताओं और दोनों देशों की जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए, और क्षेत्रीय शांति, स्थिरता, सहयोग और समृद्धि में योगदान देने की इच्छा के साथ, वियतनाम और भारत मौजूदा सामरिक साझेदारी को व्यापक सामरिक भागीदारी में उन्नत करने के लिए सहमत हुए। दोनों प्रधानमंत्री केंद्र बिंदु होने के लिए दोनों पक्षों के अन्य मंत्रालयों और एजेंसियों के साथ सहयोग में सभी क्षेत्रों में वास्तविकता के लिए व्यापक सामरिक भागीदारी लाने के लिए कार्य योजना का निर्माण करने के लिए विदेश मामलों के दो मंत्रालयों को आवंटित करने के लिए सहमत हुए।
1. राजनीतिक संबंध, रक्षा और सुरक्षा:
दोनों पक्षों ने एशिया में क्षेत्रीय सुरक्षा स्थिति सहित विभिन्न द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर विचारों की समानता को सांझा किया. उन्होंने 2014 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की हाल ही में, भारत की ओर से 2015 में लोकसभा के अध्यक्ष और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, और नवंबर 2013 में वियतनाम गुयेन फू त्रांग की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव का दौरा, अक्टूबर 2014 में प्रधानमंत्री गुयेन तान दुंग और वियतनामी ओर से 2015 में वियतनाम जन्मभूमि मोर्चा के राष्ट्रपति की उच्च स्तरीय यात्राओं पर प्रसन्नता व्यक्त की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 वें राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के सफल परिणामों पर और 14 वें नेशनल असेंबली और पीपुल्स परिषदों कार्यकाल 2016-2021 के लिए चुनावों पर वियतनामी नेताओं और लोगों को बधाई दी। एक बार फिर, उन्होंने वियतनाम के नव-निर्वाचित नेताओं को ईमानदारी से बधाई दी ।
वापस रेंगने पक्षों उच्च स्तर और अन्य यात्राओं का आदान-प्रदान बढ़ाने पर सहमत, राजनीतिक दलों और दोनों पक्षों की विधायी संस्थाओं के बीच संबंधों को चलाने के लिए, दोनों पक्षों पर प्रांतीय / राज्य सरकारों के बीच संबंध स्थापित करने, द्विपक्षीय सहयोग तंत्र की स्थापना को बनाए रखने, और दोनों देशों के बीच प्रभावी ढंग से हस्ताक्षरित समझौतों को लागू करने के लिए सहमत हुए।
दोनों प्रधानमंत्रियों ने, रक्षा सहयोग में महत्वपूर्ण प्रगति पर संतोष व्यक्त किया जिसमे उच्च स्तरीय यात्राओं के आदान-प्रदान, वार्षिक उच्च स्तरीय वार्ता, सेवा सहयोग, नौसैनिक जहाज का दौरा, व्यापक प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण, रक्षा उपकरणों की खरीद और प्रौद्योगिकी से संबंधित हस्तांतरण क्षेत्रीय मंचों पर सहयोग जैसे कि ए डी एम एम प्लस भी शामिल हैं ।
वापस पक्ष मई 2015 के भारत-वियतनाम के रक्षा संबंधों पर संयुक्त विजन स्टेटमेंट को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सहमत हुए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों पक्षों के बीच रक्षा उद्योग सहयोग को बढ़ावा देने में भारत के महत्वपूर्ण हित की पुष्टि की और इस क्षेत्र में वियतनाम के लिए ऋण व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध हुए। दोनों पक्षों ने वियतनाम के लिए भारत द्वारा रक्षा खरीद के लिए ऋण रेखा की अमरीकी $ 100 मिलियन लाइन का उपयोग करते हुए एम / एस लार्सन ऐंड टुब्रो और वियतनाम सीमा रक्षकों के बीच अपतटीय उच्च गति गश्ती नौकाओं के अनुबंध पर हस्ताक्षर का स्वागत किया। प्रधानमंत्री मोदी ने न्हा ट्रांग में दूरसंचार विश्वविद्यालय में सेना के एक सॉफ्टवेयर पार्क के निर्माण के लिए अमरीकी $ 5 लाख के अनुदान की घोषणा की।
प्रधानमंत्रियों ने वियतनाम के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय और भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के बीच साइबर सुरक्षा पर समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जाने का और भारतीय वित्त पोषित इंदिरा गांधी उच्च तकनीक अपराध प्रयोगशाला के लिए उपकरणों के हस्तांतरण का स्वागत किया। वे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय और वियतनाम के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय के बीच सहयोग के लिए समझौता ज्ञापन के एक प्रारंभिक निष्कर्ष पर सहमत हुए, उन्होंने उप मंत्री स्तरीय संवाद स्थापित करने और पारंपरिक और गैर पारंपरिक सुरक्षा मामलों, साइबर सुरक्षा, आतंकवाद का मुकाबला, अंतरराष्ट्रीय अपराधों, आपदा प्रबंधन और प्रतिक्रिया और उपक्रम प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों पर सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया ।
2. आर्थिक संबंध, व्यापार और निवेश:
दोनों नेताओं ने जोर देकर कहा कि द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों को बढ़ाना एक सामरिक उद्देश्य है. इस संबंध में, उन्होंने 2020 तक amriki $ 15 अरब के व्यापार लक्ष्य को हासिल करने के लिए ठोस और व्यावहारिक उपायों का पता लगाने के लिए संबंधित मंत्रालयों और एजेंसियों से अनुरोध किया : स्थापित तंत्र का उपयोग करना जैसे की व्यापार पर संयुक्त उप आयोग, भारत के राज्यों और वियतनाम के प्रांतों के बीच आदान-प्रदान को तेज करना, प्रतिनिधिमंडल और व्यापारों के बीच संपर्कों के आदान-प्रदान को मजबूत बनाना, व्यापारिक मेलों और घटनाओं के लिए नियमित रूप से संगठन जैसे भारत-सीएलएमवी व्यापार सम्मेलन और वियतनाम - भारत बिजनेस फोरम शामिल हैं ।
वे माल समझौते में भारत-आसियान व्यापार के प्रभावी क्रियान्वयन और सेवाओं एवं निवेश समझौते में भारत-आसियान व्यापार के समापन का स्वागत किया (एआई टी जीए)। उन्होंने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते (आरसीईपी) की प्राप्ति की दिशा में घनिष्ठ सहयोग का भी आह्वान किया।
प्रधानमंत्रियों ने व्यापार और उद्योग के नेताओं से सहयोग के लिए निर्धारित प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में नए व्यापार के अवसरों का पता लगाने के लिए आग्रह किया: हाइड्रोकार्बन, विद्युत उत्पादन, अक्षय ऊर्जा, बुनियादी ढांचा, पर्यटन, कपड़ा, जूते, चिकित्सा और फार्मास्यूटिकल्स, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक्स, कृषि, कृषि उत्पाद, रसायन, मशीन उपकरण और अन्य उद्योगों का समर्थन।
दोनों पक्षों ने वियतनाम और भारत के बीच अधिक से अधिक दो तरफ़ा निवेश के लिए प्रोत्साहित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मेक इन इंडिया' कार्यक्रम के तहत की पेशकश की जाने वाली विभिन्न योजनाओं और सुविधाओं का लाभ लेने के लिए वियतनामी कंपनियों का स्वागत किया। प्रधानमंत्री गुयेन शुआन फुक ने वियतनाम में निवेश करने के लिए भारतीय कंपनियों का स्वागत किया और वियतनामी कानूनों के अनुसार भारतीय निवेश के लिए अनुकूल परिस्थितियों और सरलीकरण के लिए वियतनाम की प्रतिबद्धता की पुष्टि की। प्रधानमंत्री मोदी संविदात्मक निष्कर्ष को प्राप्त करने के लिए टाटा पावर की लंबी फु-द्वितीय 1320 मेगावाट ताप विद्युत परियोजना जैसे प्रमुख भारतीय निवेश के लिए वियतनाम की सरकार के सरलीकरण की मांग की।
3. ऊर्जा:
वियतनामी पक्ष ने लंबे समय से चले आ रही निवेश और ओएनजीसी विदेश लिमिटेड (ओवीएल) की उपस्थिति और वियतनाम में तेल और गैस के अन्वेषण के लिए पेट्रो वियतनाम (पी वी एन) के साथ अपनी भागीदारी का स्वागत किया। प्रधानमंत्री तेल और गैस के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमत हुए और वियतनाम में नए ब्लॉकों में सहयोग पर पी वी एन और ओवीएल के बीच 2014 में हस्ताक्षरित समझौतों को सक्रिय रूप से लागू करने के लिए दोनों पक्षों से आग्रह किया । वियतनामी पक्ष ने वियतनाम में मध्य स्ट्रीम और डाउन स्ट्रीम क्षेत्रों में एकत्र अवसरों का लाभ उठाने के लिए भारतीय तेल और गैस कंपनियों का स्वागत किया।
दोनों प्रधानमंत्रियों ने अक्षय ऊर्जा के अत्यधिक महत्व को मूल्य दिया और विश्वास व्यक्त किया कि भारत और वियतनाम दोनों को कुल बिजली उत्पादन में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने से लाभ होगा. वियतनामी पक्ष भारत में 100 गीगावॉट सौर ऊर्जा और 60 गीगावॉटपवन ऊर्जा सहित 2022 तक अक्षय ऊर्जा क्षमता के 175 गीगावॉट की तैनाती के लिए प्रधानमंत्री मोदी के महत्वाकांक्षी योजना का स्वागत करता है, इस संबंध में, दोनों नेताओं ने इस क्षेत्र में अपने सहयोग को बढ़ाने के लिए दोनों पक्षों से आग्रह किया।
4. संयोजकता:
दोनों पक्षों ने वियतनाम और भारत के बीच कनेक्टिविटी के महत्व को दोहराया। उन्होंने वियतनाम और भारत के प्रमुख शहरों के बीच सीधी उड़ानों को जल्द ही खोलने के लिए की एयरलाइंस से आग्रह किया। उन्होंने वियतनाम और भारत की समुद्री बंदरगाहों के बीच प्रत्यक्ष शिपिंग मार्गों की स्थापना में तेजी की मांग की। दोनों पक्ष भारत और आसियान के बीच शारीरिक कनेक्टिविटी मजबूत करने की आवश्यकता पर सहमत हुए। भारतीय पक्ष सीएलएमवी देशों के लिए भारत के विभिन्न पहलों और भौतिक और डिजिटल कनेक्टिविटी के लिए भारत -आसियान की ऋण रेखा का उपयोग करने के लिए वियतनाम से आग्रह किया।
दोनों पक्ष दोनों देशों के बीच आर्थिक भागीदारी को सुविधाजनक बनाने के लिए बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र संबंधों को बढ़ाने पर सहमत हुए। वियतनामी पक्ष जुलाई 2016 में हो ची मिन्ह सिटी में बैंक ऑफ इंडिया की एक शाखा के उद्घाटन के अवसर का स्वागत किया और वियतनाम में भारतीय व्यापार और उद्योग की सहायता के लिए बैंक ऑफ इंडिया की अंतरराष्ट्रीय विदेशी मुद्रा लेनदेन लाइसेंस के भारतीय पक्ष के अनुरोध का जायजा लिया।
5. विज्ञान और प्रौद्योगिकी:
प्रधानमंत्रियों ने समझौते, जिस पर 1986 में दोनों देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे के अनुरूप शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के उपयोग में द्विपक्षीय सहयोग के तीन दशकों पर संतोष व्यक्त किया। उन्होंने परमाणु ऊर्जा भागीदारी और वियतनाम परमाणु संस्थान के लिए भारतीय वैश्विक केंद्र के बीच सहयोग पर समझौते को संपन्न करने के उद्देश्य से विचार-विमर्श का स्वागत किया. और परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग में सहयोग पर नई अंतर सरकारी समझौते की रूपरेखा की सोदेबाजी और समापन में तेजी लाने पर सहमत हुए, जो असैन्य परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आगे सहयोग के लिए एक मजबूत नींव की स्थापना करेगी ।
प्रधानमंत्रियों के शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए बाह्य अंतरिक्ष के अन्वेषण के लिए दोनों देशों के बीच अंतर सरकारी समझौते की रूपरेखा पर हस्ताक्षर करने पर संतोष व्यक्त किया और दोनों पक्षों से वियतनाम में भारत-आसियान अंतरिक्ष सहयोग के तहत भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन और प्राकृतिक संसाधनों के वियतनाम मंत्रालय और डाटा रिसेप्शन स्टेशन और डाटा प्रोसेसिंग सुविधा के बीच लागू व्यवस्था का निष्कर्ष निकालने के लिए आग्रह किया। वियतनामी पक्ष ने सुविधा की स्थापना का स्वागत किया जिससे कई व्यावसायिक और वैज्ञानिक अनुप्रयोगों के साथ रिमोट सेंसिंग में वियतनाम और आसियान देशों की क्षमताओं में वृद्धि होगी।
6. प्रशिक्षण:
दोनों प्रधानमंत्रियों के आईटी ,अंग्रेजी भाषा प्रशिक्षण, उद्यमिता विकास, उच्च प्रदर्शन कंप्यूटिंग और अन्य क्षेत्रों में वियतनाम में क्षमता निर्माण संस्थानों की स्थापना में जारी सहयोग का स्वागत किया, और न्हा ट्रांग में दूरसंचार विश्वविद्यालय में वियतनाम-भारत में अंग्रेजी और आईटी प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना, हो ची मिन्ह सिटी में सॉफ्टवेयर विकास और प्रशिक्षण में उत्कृष्टता के लिए केंद्र सहित विकास भागीदारी परियोजनाओं को अंतिम रूप देने पर संतोष व्यक्त किया ।
वियतनाम ने नई दिल्ली, विदेश व्यापार के भारतीय संस्थान में 15 वियतनामी राजनयिकों और बंगलौर, मैनेजमेंट के भारतीय संस्थान में ओरिएंटल स्टडीज वियतनाम राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के संकाय के 25 वियतनामी छात्रों को प्रशिक्षित करने के प्रस्ताव का स्वागत किया ।
भारतीय पक्ष ने पुष्टि की है यह भारतीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग(आईटीईसी) के माध्यम से प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए जारी रहेगा और वियतनामी छात्रों और सरकारी अधिकारियों के लिए छात्रवृत्ति प्रदान करता है। वियतनाम ने मेकांग के ढांचे- गंगा सहयोग, विशेष रूप से त्वरित प्रभाव परियोजनाओं निधि (QIPF) - के तहत भारत की सहायता का स्वागत किया।
7. स्वास्थ्य, संस्कृति, पर्यटन और लोगों के बीच संसर्ग:
दोनों पक्षों ने स्वास्थ्य सहयोग पर समझौता ज्ञापन के निष्कर्ष और हस्ताक्षर का स्वागत किया. उन्होंने पारंपरिक चिकित्सा को प्रोत्साहित करने वाले महत्व पर भी बल दिया।
दोनों पक्ष संस्कृति, पर्यटन, लोगों के बीच संसर्ग में आदान-प्रदान और सहयोग को मजबूत करने के लिए, विशेष रूप से वियतनाम और भारत के युवाओं के बीच आदान-प्रदान पर सहमत हुए. प्रधानमंत्री मोदी ने हनोई में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना को सुविधाजनक बनाने के लिए वियतनाम को धन्यवाद दिया जो शीघ्र ही खुल जाएगा। प्रधानमंत्रियों ने अधिकारियों को चाम स्मारकों के संरक्षण और बहाली पर समझौता ज्ञापन के कार्यान्वयन का जल्दी से पालन करने के लिए अधिकारियों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा पर माई सन, क्वांग नम प्रांत, में निर्देश दिए।
वियतनाम ने राष्ट्रपति हो ची मिन्ह की भूमिका और योगदान पर प्रकाश डालने वाली गतिविधियों के आयोजन में भारत के समर्थन और सहायता की सराहना की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक यूनेस्को विश्व विरासत स्थल के रूप में नालंदा महाविहार के पुरातात्विक स्थल के शिलालेख को सुविधाजनक बनाने में इसके नेतृत्व के लिए वियतनाम को धन्यवाद दिया। भारत मास्टर्स / डॉक्टरेट स्तर के पाठ्यक्रमों में उन्नत बौद्ध अध्ययन के लिए वियतनामी छात्रों के लिए विशेष वार्षिक छात्रवृत्ति की पेशकश और वियतनाम में बौद्ध संघ के सदस्यों के लिए भारतीय संस्थानों में संस्कृत के अध्ययन के लिए एक वर्ष की अवधि की वार्षिक छात्रवृत्ति की घोषणा की ।
8. क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहयोग:
प्रधानमंत्रियों ने क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दोनों पक्षों के बीच सहयोग तथा समन्वय को महत्व दिया। और विशेष रूप से प्रवासी संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन, आसियान क्षेत्र और एआरएफ, ए डी एम एम प्लस, ईएएस, एएसईएम सहित संबंधित मंचों और साथ ही अन्य उप-क्षेत्रीय सहयोग तंत्रों में सहयोग मजबूत करने पर सहमत हुए. भारत ने आसियान समुदाय की प्राप्ति का स्वागत किया और उभरते क्षेत्रीय संरचना में आसियान के केंद्रीयकरण के लिए पूर्ण समर्थन व्यक्त किया। भारत ने 2015-2018 की अवधि के लिए भारत के लिए आसियान के समन्वयक के रूप में अपनी क्षमता में भारत आसियान सामरिक साझेदारी से वियतनाम के महत्वपूर्ण योगदान पर प्रकाश डाला और स्वागत किया ।
वियतनाम और भारत दोनों ने सदस्यता की स्थायी और अस्थाई श्रेणियों में, विकासशील देशों से बढे हुए प्रतिनिधित्व के साथ संयुक्त राष्ट्र में सुधार और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार की आवश्यकता पर बल दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सुधार और विस्तारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत की उम्मीदवारी के लिए वियतनाम के निरंतर समर्थन के लिए आभार व्यक्त किया। प्रधानमंत्रियों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता के लिए एक दूसरे की उम्मीदवारी के लिए समर्थन की पुष्टि की, वियतनाम की 2020-21 अवधि के लिए और भारत की 2021-22 अवधि के लिए। दोनों पक्षों ने संयुक्त राष्ट्र शांति मामलों में सहयोग के कार्यक्रम के समापन पर संतोष व्यक्त किया। भारतीय पक्ष ने संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में वियतनाम की भागीदारी को सक्षम करने के लिए क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की।
दोनों पक्षों ने एशिया और उससे परे शांति, स्थिरता, विकास और समृद्धि बनाए रखने के लिए अपनी-अपनी इच्छा और एक साथ काम करने के दृढ़ संकल्प को दोहराया। सागर के कानून पर 1982 में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के लिए अनुबंध VII के अधीन गठित मध्यस्थ न्यायाधिकरण के 12 जुलाई 2016 को जारी पुरस्कार पर ध्यान देते हुए (यूएनसीएलओएस), दोनों पक्षों ने अंतरराष्ट्रीय कानून के सिद्धांतों पर आधारित जैसे कि यूएनसीएलओएस में विशेष रूप से परिलक्षित होता है, शांति, स्थिरता, सुरक्षा, सुरक्षा और नौवहन और उड़ान भर में स्वतंत्रता, और बेरोक वाणिज्य के लिए अपने समर्थन को दोहराया. दोनों पक्षों ने सभी राज्यों को धमकी या बल के उपयोग के बिना शांतिपूर्ण साधनों के माध्यम से विवादों को हल करने के लिए और गतिविधियों के संचालन में आत्म-संयम बरतने के लिए बुलाया, जो शांति और स्थिरता को प्रभावित करते हुए,, राजनयिक और कानूनी प्रक्रियाओं का सम्मान करते हुए,पूरी तरह से दक्षिण चीन सागर में पार्टियों के आचरण पर घोषणा का निरीक्षण करते हुए (डी ओ सी) और जल्द ही आचार संहिता को अंतिम रूप देते हुए (सी ओ सी) जटिल हो सकते हैं या विवाद बढ़ा सकते हैं। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि दक्षिण चीन सागर के माध्यम से संचार की समुद्री लाइनें शांति, स्थिरता, समृद्धि और विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं। वियतनाम और भारत ने, यूएनसीएलओएस के राज्य दलों के रूप में, यूएनसीएलओएस के लिए अत्यंत सम्मान दिखाने के लिए सभी दलों से आग्रह किया।
निम्नलिखित समझौते दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मौजूदगी में हस्ताक्षर किए गए थे:
(i) शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए बाह्य अंतरिक्ष के अन्वेषण और उपयोग में सहयोग पर समझौते की रूपरेखा;
(ii) दोहरे कराधान से बचने संबंधी समझौते में संशोधन के लिए प्रोटोकॉल;
(iii) संयुक्त राष्ट्र शांति मामलों में सहयोग का कार्यक्रम;
(iv) "मैत्री वर्ष "के रूप में 2017 उत्सव पर वियतनाम के विदेश मंत्री और भारत के विदेश मंत्रालय के बीच प्रोटोकॉल”;
(v) स्वास्थ्य सहयोग पर समझौता ज्ञापन;
(vi) सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग पर समझौता ज्ञापन;
(vii) सामाजिक विज्ञान की वियतनाम अकादमी और विश्व मामलों के भारतीय परिषद के बीच सहयोग पर समझौता ज्ञापन;
(viii) साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग पर समझौता ज्ञापन;
(ix) मानकीकरण और अनुरूपता आकलन के क्षेत्र में भारतीय मानक ब्यूरो और मानकों, मैट्रोलोजी और गुणवत्ता सहयोग निदेशालय के बीच समझौता ज्ञापन
(x) सॉफ्टवेयर विकास और प्रशिक्षण में उत्कृष्टता के केंद्र की स्थापना पर समझौता ज्ञापन;
(xi) व्हाइट शिपिंग जानकारी के बंटवारे पर तकनीकी समझौता
(xii) अपतटीय उच्च गति गश्ती नौकाओं के लिए अनुबंध।
वियतनाम के पूरे नेतृत्व के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातचीत उत्साह, दोस्ती और आपसी सम्मान द्वारा चिह्नित की गई। नरेंद्र मोदी ने उन्हें और उनके प्रतिनिधिमंडल के प्रति किये गए गर्मजोशी से स्वागत और आतिथ्य के लिए आभार व्यक्त किया। उन्होंने प्रधानमंत्री गुयेन शुआन फुक को पारस्परिक रूप से सुविधाजनक तारीख पर भारत आने के लिए निमंत्रण दिया। प्रधानमंत्री गुयेन शुआन फुक ने खुशी के साथ निमंत्रण स्वीकार किया। तारीखों को राजनयिक चैनलों के माध्यम से अंतिम रूप दिया जाएगा।