Monday 10 October 2016

हमारे सामने हाइब्रिड वॉर की चुनौती लेफ्टि. जन. (रिटायर्ड) सैयद अता हसनैन स्ट्रैटेजिक एक्सपर्ट, पूर्व कोर कमांडर


क्षिण कश्मीरमें आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के दो माह बाद सेना फिर वहां पूरी ताकत के साथ सड़कों पर जारी उपद्रव के केंद्र में लौट आई। उसे सामान्य हालात बहाल करने को कहा गया है। समझने की बात यह है कि सेना कानून-व्यवस्था बहाल नहीं कर रही है, बल्कि उसे एक तरह से पूरी सार्वजनिक व्यवस्था ही बहाल करनी है, जो पूरी तरह पंगु हो गई है और पुलिस बल इससे निपटने में नाकाम रहा है। सेना को आबादी के अदृश्य नेतृत्व वाले हठी तबके से निपटना है, जिसे नियंत्रण-रेखा के पार से वित्तीय, वैचारिक, मनोवैज्ञानिक योजना के स्तर पर समर्थन मिल रहा है।
पूंछ के बाद उड़ी में आतंकी हमले के साथ पाकिस्तान तनाव बढ़ाने पर तुल गया है ताकि उपद्रव का दायरा बढ़ाने के लिए अांदोलनकारियों का मनोबल बढ़ाया जा सके और भारतीय सेना को दक्षिण कश्मीर को काबू में लाने से रोका जा सके। उड़ी में 18 बेशकीमती जिंदगियां जाने से पाकिस्तान ने भारत की बर्दाश्त करने की हद को पार कर लिया है। यह ऐसा तथ्य है, जिस पर पाकिस्तान ने हमले की साजिश रचते समय गौर नहीं किया होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सारगर्भित बयान दिया है कि हमले के कसूरवारों को छोड़ा नहीं जाएगा, उससे संकेत स्पष्ट हैं कि इस घटना से भारत कितना विचलित है। दक्षिण कश्मीर में सेना को लाने की चर्चा करें तो उसे वहां लोगों से संपर्क का लंबा अनुभव है और 2008-10 में उसने सड़कों के उपद्रव में ग्रामीण आबादी को शामिल कराने के पाकिस्तानी फौज के प्रयासों को नाकाम कर दिया था। फर्क इस बार यही है कि इस बार जो भी परदे के पीछे से आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, उनकी रणनीति पहले से कहीं ज्यादा कारगर रही है। शायद पाकस्तानी फौज ने निष्कर्ष निकाला कि ग्रामीण आबादी के उदासीन रहने से 2008-10 में आंदोलन उतना कारगर नहीं रहा। शहरों में कर्फ्यू लागू करना आसान होता है, लेकिन दूर तक फैले कस्बों गांवों में ऐसा करना कठिन होता है।
सड़कों के अांदोलन में पुलिस की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए पाक षड्यंत्रकारियों ने उन पर हमले शुरू कर दिए ताकि जम्मू-कश्मीर के पुलिसकर्मियों में डर पैदा कर पुलिस को पंगु बना दिया जाए। उनकी इस रणनीति से हिंसक भीड़ का दुस्साहस बढ़ गया। सीआरपीएफ ने अपना काम किया, लेकिन जब साथ में ऐसी पुलिस हो जिसका मनोबल गिरा हुआ है तो फिर कोई भी बल उतना प्रभावशाली नहीं साबित होता। यह बल पुलवामा, शोपियां और गुलगाम जिलों के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर पुन: नियंत्रण स्थापित नहीं कर पाया। वानी के शहर ट्राल के बारे में जितना कम कहें उतना बेहतर। यही वक्त था, जब सेना को फिर उतरना पड़ा।
इस बार आतंकी कहीं ज्यादा सक्रियता दिखा रहे हैं और सेना के रात्रिकालीन काफिलों को भी निशाना बनाया जा रहा है, जिसके बारे में 2008-10 में सुना नहीं गया था। अपना महत्व बढ़ाने के लिए दिन के रुटीन काफिलों पर भी हमले हुए हैं। इसके साथ नियंत्रण-रेखा पर घुसपैठ के सतत प्रयास से माहौल गरमाने का साफ प्रयास दिखता है। अब जब सेना को दक्षिण के पुलवामा-शोपियां बेल्ट में भारी तादाद में तैनात किया गया है, जहां से पिछले कुछ वर्षों में वह उत्तरोत्तर पीछे हटती गई है, तो इस बात की पूरी आशंका है कि उसे कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। जो स्थिति सामने है, उसमें सबसे पहले तो पुलिस स्थानों पर नियंत्रण स्थापित कर जहां भी उन्हें खतरा लगता है, वहां सेना के पूर्ण समर्थन के साथ स्थानीय पुलिस को ड्यूटी पर लाना होगा। वजह यह है कि सेना द्वारा आत्मविश्वास की बहाली एक बात है और उसी स्थानीय क्षेत्र का होने के कारण पुलिसकर्मी को वहां काम करना कठिन होता है।
आमतौर पर सेना की ताकत फ्लैग मार्च से दिखाई जाती है, लेकिन यहां खतरा बड़ा है और बड़े गश्ती दल (पैदल वाहन दोनों) की छोटे कस्बों में सक्रियता की जरूरत है। यह अच्छी बात है कि सेना ने अब तक मूलभूत कवायदों को भुलाया नहीं है। यहां तक कि जब शोपियां जल रहा था, तो राष्ट्रीय राइफल्स के मुख्यालय बालापुर के पास मेडिकल वेट कैंप चल रहे थे। मुख्यमंत्री ने जिस विशाल मौन बहुसंख्यक आबादी की बात की है अौर मैं भी उससे वाकिफ हूं, जो कट्‌टरपंथी युवाओं से डरी हुई है। स्थिति सुधारने के लिए इन युवाओं को सुनियोिजत रूप से घाटी के बाहर ले जाकर उन्हें इसप्रवृत्ति से बाहर लाना होगा। यहीं पर कड़ाई बरतने की जरूरत है। सेना को सतत अपने नेतृत्व टुकड़ियों को प्रशिक्षण देते रहना होगा, क्योंकि वे सारे बहुत संवेदनशील जिम्मेदािरयों में शामिल हैं। इनमें से कई टुकड़ियां घाटी के बाहर से आई हैं। राष्ट्रीय राइफल्स की यूनिट्स में कई अनुभवहीन जवान हैं, जिन्हें वहां की दुविधाजनक स्थिति में काम करने का दबाव महसूस हो सकता है।
कश्मीर में हिरासत में रखने की सुविधाएं कम हैं। एेसे में श्रीनगर सेंट्रल जेल में कट्‌टर आतंकियों उपद्रवियों को एकसाथ रखना बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। जेल की बार-बार अच्छी तरह समीक्षा होनी चाहिए। हिरासत में रखे लोगों के संबंधियों द्वारा घर का बना खाना लेकर वहां आने से सिम कार्ड मोबाइल पहुंचना आम है। बंदियों को हिरासत का दबाव महसूस होना चाहए। एेसे में उन्हें जम्मू और उसके परे के डिटेंशन सेंटरों पर भेजा जाना चाहिए।
सेना के सामने पाक द्वारा हाइब्रिड वॉर की रणनीति को व्यापक दायरे में लागू करने की चुनौती है। इसका जवाब हर समस्या का समाधान खुद ही निकालना नहीं है। सारी एजेंसियों के साथ पूरी सरकार की ओर से प्रयास जरूरी है। जहां जरूरी है, वहां एजेंसियों को प्रोत्साहित कर, सहायता देकर या सप्रयास आगे बढ़ाकर उनका सहयोग लेना होगा। राजनयिक स्तर पर पाकिस्तान को अत्यधिक दबाव में लाना होगा ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका पर्दाफाश किया जा सके। सेना, सरकार, राजनयिकों के एकजुट प्रयास से ही कामयाबी मिलेगी। अाखिरी बात, उड़ी हमला और आगे होने वाले अन्य हमले सेना के दायरे मेें ही रखने होंगे। कठोर विकल्प तो बहुत सारे हैं, लेकिन हम जिनका भी चुनाव करें, उनका रणनीतिक प्रभाव और स्पष्ट दिखाई देने वाला परिणाम होना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(DB)
संदर्भ... पाकको सबक सिखाने के विकल्प और दक्षिण कश्मीर में स्थिति को काबू में लाने की जरूरत

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