Monday 10 October 2016

आत्मनिर्भरता की छलांग (शशांक द्विवेदी)


लगभग 20 साल की कड़ी मेहनत और कई असफल अभियानों के बाद अब कहा जा सकता है कि भारत क्रायोजेनिक तकनीक में आत्मनिर्भर हो गया है। इसरो ने देश में निर्मित क्रायोजेनिक इंजन के जरिये मौसम उपग्रह इनसैट-3 डीआर को जीएसएलवी-एफ 05 के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर दिया है। यह मिशन जीएसएलवी की 10वीं उड़ान थी। इसका भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के लिए खासा महत्व है क्योंकि यह स्वदेशी ‘क्रायोजेनिक अपर स्टेज’ वाले रॉकेट की पहली परिचालन उड़ान है। पहले, क्रायोजेनिक स्टेज वाले जीएसलवी के प्रक्षेपण ‘विकासात्मक’ चरण के तहत होते थे। आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित 49.1 मीटर लंबा यह रॉकेट 2,211 किलोग्राम वजनी अत्याधुनिक और सबसे बड़े मौसम उपग्रह इनसैट-3डीआर को उसकी वांछित कक्षा में स्थापित करने में कामयाब रहा।
जीएसएलवी एफ-05 के इस सफल प्रक्षेपण के साथ ही भारत विश्व का ऐसा छठा देश बन गया, जिसके पास अपना देसी क्रायोजेनिक इंजन है। अमेरिका, रूस, जापान, चीन और फ्रांस के पास पहले से ही यह तकनीक है। क्रायोजेनिक इंजन तकनीक से लैस चुनिंदा राष्ट्रों के क्लब में शामिल होने के बाद भारत को अपने भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। इसरो अब दूसरे देशों के भारी उपग्रहों का प्रक्षेपण कर और विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकेगा। इनसैट-3डीआर को इस तरह से तैयार किया गया है कि इसका जीवन 10 साल का होगा। यह पहले मौसम संबंधी मिशन को निरंतरता प्रदान करेगा तथा भविष्य में कई मौसम, खोज और बचाव सेवाओं में क्षमता का इजाफा करेगा।
इससे पहले, स्वदेशी तकनीक से विकसित क्रायोजेनिक इंजन युक्त जीएसएलवी के मात्र दो प्रक्षेपण सफल रहे थे। जनवरी 2014 में जीएसएलवी डी-5 ने संचार उपग्रह जीसैट-14 को और अगस्त 2015 में जीएसएलवी डी-6 ने अत्याधुनिक संचार उपग्रह जीसैट-6 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया था।
क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने में भारतीय वैज्ञानिकों की लगभग बीस वर्षो की मेहनत रंग लाई है। 2001 से ही देसी क्रायोजेनिक इंजन के माध्यम से जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए एक गंभीर चुनौती बना हुआ था। जीएसएलवी के कई परीक्षणों में हमें असफलता मिल चुकी है, इसलिए ये कामयाबी खास है।
असल में, जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला द्रव्य ईंधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है। इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं। इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवीकृत गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईंधन क्रमश: ईंधन व ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईंधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट कर देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है।
क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टर्बाइनों और ईंधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है।
फिलहाल, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से ङोल सकने वाली मिश्रधातु विकसित कर ली है।
अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टर्बाइन और पंप को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है। ये ईंधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं।
द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपये की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन शुरू करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना, पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है।
जीएसएलवी यानी जियो सिंक्रोनस लॉन्च वीकल ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है, जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36,000 किलोमीटर की ऊंचाई पर भू स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है, जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं।
इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है। दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36,000 किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है।
जीएसएलवी एफ 05 प्रक्षेपण को लेकर इसरो के अध्यक्ष ए.एस. किरण कुमार का कहना है कि रॉकेट का प्रदर्शन आशा के अनुरूप रहा और यह पूरी टीम के जबर्दस्त प्रयासों का परिणाम है। इसरो प्रमुख के अनुसार भविष्य में हम जीएसएलवी के जरिये कई और संचार उपग्रहों का प्रक्षेपण करेंगे। साथ ही इस रॉकेट का इस्तेमाल दूसरे चंद्रयान मिशन और जीआइसेट की लांचिंग में भी किया जाएगा। जीएसएलवी की यह सफलता इसरो के लिए बेहद खास है क्योंकि दूरसंचार उपग्रहों, मानव युक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं था। इस प्रक्षेपण की सफलता से इसरो के लिए संभावनाओं के नए दरवाजें खुलेंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

No comments:

Post a Comment