Monday 10 October 2016

यू एन को चाहिए दबंग एवं निष्पक्ष महासचिव (शशि थरूर) विदेश मामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री

हम ऐसे चुनाव की दहलीज पर पहंुच चुके हैं, जो आने वाले वर्षों में भू-राजनीति की दिशा तय करेंगे। मैं अमेरिकी चुनाव की बात नहीं कर रहा हूं, जिसका बेशक उतना ही महत्व है। मैं संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अगले महासचिव के अधिक शालीन चुनाव की बात कर रहा हूं। संयुक्त राष्ट्र का यह चुनाव आमतौर पर लगभग गोपनीयता जैसी खामोशी से होता है।
महासचिव पद के भौगोलिक क्रम को लेकर एक अनौपचारिक-सी सहमति रही हैै। 1971 के बाद से एक लैटिन अमेरिकी, अफ्रीकी (जिसकी जगह फिर अफ्रीकी ने ही ली थी) और एक एशियाई ने संयुक्त राष्ट्र का शीर्ष पद ग्रहण किया है। अत: अब यूरोप का और यूरोप में भी पूर्वी यूरोप का नंबर है, क्योंकि पूर्वी यूरोप एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां से कभी कोई संयुक्त राष्ट्र का महासचिव नहीं बना। नि:संदेह जैसा हम सुरक्षा परिषद सदस्यों की राय जानने की अनौपचारिक प्रक्रिया 'स्ट्रॉ पोल' के नतीजों से जानते हैं कि तीन अग्रणी प्रत्याशियों में से दो पूर्वी यूरोप के हैं। पुर्तगाल के पूर्व प्रधानमंत्री एंटोनियो गुटेरेस को सबसे ज्यादा वोट मिले हैं, लेकिन दूसरे तीसरे क्रम पर पूर्वी यूरोप के प्रत्याशी हैं- स्लोवेनिया के पूर्व राष्ट्रपति और संयुक्त राष्ट्र में मेरे सहकर्मी रहे डेनिलो टुर्क और बल्गारिया की राजनयिक यूनेस्को की प्रमुख इरिना बोकोवा। सवाल है कि क्या आम लोगों को वह प्रक्रिया देखने को मिलेगी, जो अंतत: शीर्ष पद का फैसला करेगी। जिस तरह से स्ट्रॉ पोल हुए हैं, उसे देखकर तो लगता नहीं है कि ऐसा कुछ होगा।
प्रत्याशियों को सार्वजनिक जीवन का कितना अनुभव है, यह अप्रासंगिक है। क्योंकि पद आखिरकार तो विज़न के बारे में है और भाषा कौशल, प्रशासनिक योग्यता या व्यक्तिगत करिश्मे के बारे में। यह राजनीतिक पद है और इस पद के लिए व्यक्ति का चुनाव हमेशा राजनीतिक रहा है, जो सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों द्वारा किया जाता है। यह सही है कि ये पांच सदस्य ऐसे व्यक्ति को नहीं चुन सकते, जिसे परिषद के शेष सदस्यों के बहुमत का समर्थन हासिल हो। किंतु जब परिषद का कोई सदस्य चाहे जितने सदस्यों को वोट दे सकता हो, तो यह कल्पना करना कठिन होता है कि किसने पांच स्थायी सदस्यों का समर्थन हासिल किया है, लेकिन परिषद में बहुमत हासिल नहीं कर सका है।
यदि चुनाव के फॉर्मेट को देखें तो यह सही है कि इतने वर्षों में कई महासचिव ऐसे रहे हैं, जिन्हें चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों में 'न्यूनतम स्वीकार्यता' थी। अभी तो हमने परिषद सदस्यों के पास दो मतपत्र देखे हैं, जो 'एनकरेज,' 'डिस्करेज' और 'नो ओपिनियन' के विकल्पों पर डाले जाते हैं। अग्रणी प्रत्याशियों में हर प्रत्याशी को कुछ देशों ने 'डिस्करेज' किया है। जिस दिन सुरक्षा परिषद स्थायी सदस्यों को अलग-अलग रंगों के मतपत्र देगी-जो आमतौर पर तीसरे या चौथे दौर के स्ट्रॉ पोल में होता है- तब हमें पता चलेगा कि क्या कुछ 'डिस्करेज' वोट स्थायी सदस्यों ने भी दिए हैं। चूंकि स्थायी सदस्यों के पास वीटो का अधिकार है, इसलिए एक या अधिक स्थायी सदस्य की ओर से 'डिस्करेज' वोट का मतलब है चुनावी होड़ से बाहर होने का इशारा। सितंबर अंत या अक्टूबर के शुरू में नतीजा जाहिर होने की उम्मीद है, लेकिन नए महासचिव से हम क्या अपेक्षा रखें? हाल के वर्षों में ऐसी धारणा बनी है कि पांच प्रमुख सदस्य निष्क्रिय-सा प्रशासक चाहते हैं, जो अपने काम के निर्धारित दायरे से बाहर जाए। किंतु अपने दायरे के बाहर जाने की संभावनाओं को विस्तार देने वाले संयुक्त राष्ट्र महासचिव की मिसाल पाने के लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है।
शीत युद्ध के अंत के बाद कोफी अन्नान ऐसे महासचिव थे, जिन्होंने अपने पद का यथासंभव दबंगता के साथ उपयोग किया। उन्होंने सदस्य राष्ट्रों को चुनौती दी थी कि वे राष्ट्रों की संप्रभुता और अाम आदमी की रक्षा करने की उनकी जिम्मेदारी के बीच के तनाव को सुलझाएं। जब अमेरिका ने सद्‌दाम हुसैन के असहयोग का कारण देते हुए फरवरी 1998 में बम बरसाने की धमकी दी थी तो अन्नान ने अधिकतर स्थायी सदस्यों की इच्छा के विपरीत बगदाद जाकर संकट सुलझा दिया था। उनकी सफलता अस्थायी थी, लेकिन उन्होंने संयुक्त राष्ट्र हासचिव की भूमिका की संभावनाएं दर्शा दी थीं। ऐसे में कैसे पक्का करें कि अगला महासचिव आने वाले 70 वर्षों की चुनौतियों पर खरा उतरे? चूंकि भविष्य में झांकने का सर्वश्रेष्ठ तरीका अतीत का जायजा लेना है, इस प्रश्न का उत्तर भी अतीत में है। हम पाएंगे कि संयुक्त राष्ट्र कभी मुकम्मल संस्था नहीं रही और होगी भी नहीं। कई बार यह बुद्धिमत्ता से नहीं चली और कई बार कार्रवाई करने में नाकाम रही, लेकिन श्रेष्ठतम निकृष्टतम, दोनों रूपों में यह दुनिया का आईना है। यह संस्था हमारे मतभेद असहमतियां ही नहीं उम्मीद संकल्प भी जताती है। दूसरे महासचिव महान दाग हैमरशोल्ड ने बिल्कुल सही कहा था, 'संयुक्त राष्ट्र मानवता को स्वर्ग में ले जाने के लिए नहीं, नर्क से बचाने के लिए बनाया गया था।'
हालांकि, संयुक्त राष्ट्र ने लंबा रास्ता तय किया है। मैंने 1978 में संयुक्त राष्ट्र में कॅरिअर की शुरुआत की थी और तब यदि अपने वरिष्ठ से यह कहता कि एक दिन यूएन देशों में चुनावों का पर्यवेक्षण ही नहीं उनका संचालन करेगा, व्यापक विनाश के हथियारों की जांच करेगा, सदस्य राष्ट्र के आयात-निर्यात पर मुकम्मल पाबंदी लगाएगा, आतंकवाद संबंधी समिति बनाकर आतंकियों पर राष्ट्रों की कार्रवाई की निगरानी करेगा, अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण स्थापित करेगा और किसी देश को विदेश में मुकदमा चलाने के लिए आतंकी सौंपने को कहेगा तो उन्होंने मुझसे पूछा होता, 'युवक तुम नशा करके आए हो क्या?' फिर भी यह सब यूएन ने पिछले दो दशक में किया है। वह बदलते समय के अनुसार खुद को ढालने वाला सर्वोत्तम संस्थान रहा है। महासचिव भी ऐसा ही व्यक्ति होना चाहिए।
बेशक महासचिव के पास एजेंडा तय करने का असाधारण अधिकार है, लेकिन उसे अपने हर विचार को लागू करने का अधिकार नहीं है। वह एक विज़न सामने रखता है, जिसे सरकारों को अमल में लाना होता है। वह दुनिया चलाता तो है पर उसे दिशा नहीं दे सकता। हैमरशोल्ड ने शीत युद्ध के चरम पर कहा था, 'निष्पक्ष अधिकारी 'राजनीतिक कौमार्य' के बिना भी 'राजनीतिक ब्रह्मचारी' हो सकता है।' महासचिव को निष्पक्षता छोड़े बिना राजनीतिक भूमिका निभानी होगी, बशर्ते वह यूएन चार्टर अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रति वफादार रहे। (येलेखक के अपने विचार हैं)(DB)
संदर्भ... संयुक्तराष्ट्र में नए महासचिव के चुनाव की प्रक्रिया और नए पदाधिकारी से दुनिया की अपेक्षाएं
शशि थरूर
विदेशमामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री

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