Monday 10 October 2016

गुटनिरपेक्ष : प्राथमिकता से बाहर (पुष्पेश पंत)


हाल ही में वेनेजुएला में संपन्न गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन ने एक बार फिर हमें इस आंदोलन की प्रासंगिकता और सार्थकता के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है। गुट निरपेक्षता की अवधारणा शीत युद्ध के उस दौर में प्रकट हुई थी, जब दुनिया दो परस्पर विरोधी वैचारिक ध्रुवों में विभाजित थी। दो प्रतिद्वंद्वी महाशक्तियां अमेरिका और सोवियत संघ न केवल एक-दूसरे का विरोध सैद्धांतिक रूप से कर रहे थे वरन सैनिक संधियों के माध्यम से एक-दूसरे की घेराबंदी का प्रयास कर रहे थे। एटमी हथियारों के प्रयोग के बाद यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि इनका प्रयोग आत्मघातक पागलपन ही होगा। अत: सीधे मुठभेड़ की बनस्बित परोक्ष-दूसरों के माध्यम से-युद्ध लड़े जाने की शुरुआत हुई। जब तत्कालीन बर्तानवी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने दुनिया के एक हिस्से पर लौह आवरण द्वारा पटाक्षेप की बात की। तभी से अब तक किसी भी खेमे में शामिल नहीं हुए नवोदित राज्यों के दिल और दिमाग जीतने वाले सामरिक अभियान का सूत्रपात हुआ। प्रकारांतर से धमकियां भी दी गई-अमेरिकी विदेश मंत्री डलेस ने चेतावनी दी-‘‘जो हमारे साथ नहीं, उसे हम अपना शत्रु समझते हैं।’ इस समय यूरोप की पारंपरिक बड़ी ताकतें खस्ताहाल थीं, यूरोप का विभाजन हो चुका था और रूसी लाल सेना का कब्जा बड़े भूभाग पर था। दक्षिण-पूर्व एशिया में हिंद चीन में उपनिवेशवाद विरोधी सशस्त्र मुक्ति संग्राम चल रहा था और मध्य-पूर्व में इस्रइल की स्थापना ने लाखों फिलिस्तीनियों को शरणार्थी बना दिया था और एक ऐसे संघर्ष को जन्म दिया जो आज तक जारी है। संक्षेप में कोरिया से ले कर क्यूबा तक कुछ ही वर्षो में पूरा विश्व शीतयुद्ध की चपेट में था। इस पृष्ठभूमि में भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने जब शक्ति संघर्ष से बाहर रह अपने विकास को प्राथमिकता देते गुटनिरपेक्षता की नीति का प्रतिपादन किया तो इंडोनेशिया, मिस, कंबोडिया और म्यांमार आदि देशों ने उनका बड़े उत्साह से समर्थन किया। युगोस्लाविया के टीटो ने भी संस्थापकों की इस टोली में जुड़ना सहर्ष स्वीकार किया। यहां इस बात का विस्तार से बखान करना जरूरी नहीं कि तीन दशकों तक अफ्रीकी एशियाई देशों के इस जमावड़े ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर कितनी सार्थक भूमिका निबाही। जिस बात पर इस घड़ी केंद्रित है; वह फर्क है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद क्या गुटिनरपेक्ष आंदोलन की कोई उपयोगिता बची रही है? जब चीन इसके हाशिए पर खड़ा पर्यवेक्षक है और पाकिस्तान इसका मानद सदस्य, तब क्या इसकी सदस्यता का कोई अर्थ बचा है? युगोस्लाविया का विखंडन बरसों पहले हो चुका है और मिस खस्ताहाल है। इंडोनेशिया 1960 के दशक के मध्य से ही अमरीकी सलाहवाली आर्थिक नीतियों का अनुसरण करता रहा है। यह सारी बातें आज इसलिए अनायास याद आ रही हैं कि इस बार प्रधानमंत्री ने इस शिखर सम्मेलन में भाग लेने की जरूरत नहीं समझी और न ही भारत की विदेश मंत्री ने। उपराष्ट्रपति को इस काम का जिम्मा सौंपा गया। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि नेहरू की इस मृतप्राय विरासत को ढोते रहने के लिए यह सरकार तैयार नहीं पर यह आक्षेप एनडीए या मोदी पर लगाना जायज नहीं। स्वयं कांग्रेस के जयराम सरीखे नेता दो टूक कह चुके हैं कि आज के विश्व में गुटनिरपेक्षता की बात बेमानी हो गया है। एक और बात को रेखांकित करने की जरूरत है। वेनेजुएला इस समय अमेरिका द्वारा लगाए आर्थिक प्रतिबंधों से आहत है। इसी कारण इस सम्मेलन को कामयाब बनाने लायक संसाधन जुटाना उसके लिए परेशानी पैदा करता रहा है। जिन राष्ट्राध्यक्षों ने इस शिखर सम्मेलन में भाग लिया, वह सभी छोटे-छोटे राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। कोई प्रभावशाली क्षेत्रीय नेता तक यहां मौजूद नहीं था। सम्मेलन में जो भाषण दिए गए, उनमें भी नया या विचारोत्तेजक कुछ नहीं था। हमारे उपराष्ट्रपति ने जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा जोर दिया वह आतंकवाद वाला था। इसके अलावा, बातचीत में पर्यावरण के संकट के प्रति भी साझेदारी के समाधान पर विचार-विमर्श हुआ। असलियत यह है कि आज गुटिनरपेक्ष देशों की बिरादरी में भयंकर फूट पड़ी है। अनेक सदस्यों के बीच ऐसे विस्फोटक उभयपक्षीय विवाद हैं, जिनका निबटारा आसान नहीं। इसके अलावा, 21 वीं सदी के दूसरे दशक में अनेक ऐसे वैकल्पिक क्षेत्रीय/ अंतरराष्ट्रीय राजनयिक मंच सुलभ हैं, जिनकी कल्पना 1950 वाले दशक में नहीं की जा सकती थी। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के बाद एवं भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के गतिशील होने के बाद यह जमीन खाली नहीं रही। अपने आरंभिक दौर में भारत जैसे गुटनिरपेक्ष देश अंतरराष्ट्रीय विवादों में तटस्थ मध्यस्थता के लिए आमंत्रित किए जाते थे। कोरिया युद्ध हो या हिंद चीन में संघर्ष, कांगो में शांति की पुनस्र्थापना के लिए हस्तक्षेप हो या सुएज जैसे संकट के निवारण में रचनात्मक भूमिका; इसी जरूरत का प्रमाण हैं। आज इस तरह की भूमिका संभव नहीं। यह पूछना नाजायज नहीं कि फिर तब क्यों हम इस अनुष्ठान में भाग लेते हैं? इसका उत्तर तलाशने के लिए बहुत मशक्कत की दरकार नहीं। राजनय में हर मंच की अपनी उपयोगिता होती है। भारत एक शिखर सम्मेलन में अपने राष्ट्रहितों को परिभाषित कर दूसरे मंच पर उनकी व्याख्या कर उनके लिए समर्थन जुटाने की जमीन तैयार कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की दावेदारी करने वाला ‘‘उदीयमान’ भारत किसी भी ऐसे मंच पर अनुपस्थित नहीं रह सकता जहां सौ से अधिक देश मौजूद हों। अंत में यह न भूलें कि भारत इस आंदोलन के संस्थापकों में एक है। यदि इस अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करना है या इसे बदले वक्त की जरूरत के साथ बदलना है तो हम अपनी जिम्मेदारी से कतरा नहीं सकते। हां; इस मामले में सतर्क रहने की जरूरत है कि हम इस काम को फिलहाल सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं दे सकते।(RS)

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