Monday 10 October 2016

भारत-इजरायल की मैत्री (एयर मार्शल (रि.) आरसी बाजपेयी)


भारतीय सेना हमेशा से अपने रण कौशल, वीरता, निर्भीकता, अदम्य साहस, बलिदान और शासन के प्रति निष्ठा के लिए विश्व विख्यात रही हैं। पहले और दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश शासन की इम्पीरियल सेनाओं के साथ मिलकर तमाम सैन्य अभियानों में उसने अपनी वीरता का परिचय दिया है। स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान के 1947, 1965, 1971 और 1999 के हमलों का भारतीय सैन्य बलों ने मुंह तोड़ उत्तर दिया। इनमें पाकिस्तान को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इस क्रम में हम आप को प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार के फिलिस्तीन अभियान में भारतीय सेनाओं की वीरता का एक उदाहरण बताते हैं।
आटोमन साम्राय, जिसे तुर्किस्तान या तुर्की के नाम से भी जाना जाता है, एक बहुत शक्तिशाली, बहुरायीय तथा बहुभाषी साम्राय था, जिसने फिलिस्तीन (वर्तमान में इजराइल) के अतिरिक्त दक्षिण पूर्व यूरोप, पश्चिम एशिया, काऊकशस, उत्तरी अफ्रीका के मुहामे पर 400 वर्षो से भी अधिक समय तक राज किया था। 17वीं शताब्दी के शुरू में तुर्की साम्राय में 32 प्रदेश तथा बहुत से क्षेत्रीय राय (वसल स्टेट्स) थे। फिलिस्तीन भी तुर्की के आधीन था। वर्ष 1908 में इस साम्राय का विखराव शुरू हुआ। 1914 तक लगभग संपूर्ण यूरोप तथा दक्षिण अफ्रीका से उसका अस्तित्व समाप्त हो गया था। हायफा फिलिस्तीन का एक पोर्ट सिटी था। 1918 में ब्रिटिश साम्राय ने फिलिस्तीन को आटोमान साम्राय से मुक्त कराने का निर्णय लिया। भारत में इस अभियान के लिए उसने एक 15 इम्पीरियल ब्रिगेड का गठन किया जिसमें जोधपुर, मैसूर तथा हैदराबाद की कैवेलरी रेजिमेंट सम्मिलित थी। उसी समय तुर्की मध्य शक्तियों के साथ मिलकर प्रथम विश्व युद्ध में मध्य-पूर्वी क्षेत्र में भाग ले रहा था। एक ओर इम्पीरियल सेना थी जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस और रूस थे, वहीं दूसरी ओर केंद्रीय महाशक्तियां थी जिनमें जर्मनी, आस्टिया तथा आटोमन साम्राय शामिल थे। तुर्की ने हायफा की खाड़ी को समुद्री रास्ते से और जमीनी सुरंगे लगा कर सुरक्षित कर रखा था। इस कारण सभी आर्थिक और व्यापारिक गतिविधियां प्रतिबंधित हो गई थीं। दक्षिणी फिलिस्तीन में भुखमरी और गरीबी के हालात थे।
युद्ध का संचालन करने वाले जनरल ऐलेनबी ने निश्चय किया कि सेना को आवश्यक आपूर्ति के रेल हेड तथा हायफा पोर्ट पर कब्जा करना आवश्यक है। हायफा पोर्ट से जब लगभग 700 तुर्की सैनिक तिबेरियस की तरफ भाग रहे थे, तब 22 सितंबर, 1918 को उनकी मुठभेड़ 13वीं कवेलारी ब्रिगेड के 18 किंग जार्ज के लैंसर्स से हो गई। तुर्की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया, जिसमें उसके 30 सैनिक हताहत हो गए और उसके चार मशीन गानों के साथ 311 सैनिक बंदी बना लिए गए।
इम्पीरियल सेना ने जब शहर का हवाई निरीक्षण किया तो उसे लगा कि शहर लगभग पूरी तरह खाली हो गया है। इस कारण ब्रिगेडियर जनरल ए.डी.ए. किंग ने अपने लाइट आर्मर्ड ब्रिगेड की एक टुकड़ी को 22 सितंबर को नाजरथ रोड के किनारे किनारे हायफ़ा पर कब्जा करने के लिए रवाना कर दिया। पर हायफा तक पहुंचने के पहले ही उसे सड़क अवरोध का सामना करना पडा और साथ ही माउंट कारमेल से उसके ऊपर मशीन गन तथा बमों द्वारा हमला होने लगा। थोड़े नुकसान के साथ वह टुकड़ी वापस आ गई।
अगले दिन 23 सितंबर को सुबह पांच बजे 14वीं और 15वीं कैवेलरी ब्रिगेड ने हायफा की तरफ फिर कूच किया। उन्हें एक पतली गली से गुजरना था, जो बहुत सकरी थी, जिसके एक ओर किशोन तथा उसकी सहायक नदियां और दूसरी ओर माउंट कार्मल था। जैसे ही सुबह लगभग 10.15 बजे 15वीं कैवेलरी ब्रिगेड आगे बढ़ी उसके ऊपर गोलाबारी होने लगी और उसे पीछे हटना पड़ा। इधर 14वी कैवेलरी ने रेलवे पुल पर कब्जा कर लिया था। 23 सितंबर को ही जोधपुर लैंसर्स ने यह जानते हुए कि शत्रु के पास उससे बढ़िया और आधुनिकतम हथियार हैं, हायफा पर आक्रमण कर दिया। यहां उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। अपने प्राणों की परवाह न करते हुए और अदम्य साहस के साथ मेजर दलपत सिंह के नेतृत्व में जोधपुर कैवेलरी भयंकर गोलाबारी के बीच आगे बढ़ती रही।
आटोमन की सेना, जो माउंट कारमेल की ऊंचाई पर थी, जोधपुर लैसर्स पर गोले बरसा रही थी, लेकिन मेजर दलपत सिंह अपने घुड़सवारों के साथ आगे बढ़ते रहे तथा तलवार और बरछी भाले से तुर्की सेना को हताहत कर के हायफा पर कब्जा कर लिया और उसे 402 वर्षो के तुर्की शासन से स्वतंत्र कराया। उसी समय मैसूर लैसर्स ने माउंट कारमेल पर दक्षिण से हमला कर दुश्मनों की मशीन गानों की परवाह न करते हुए उनका सफाया कर दिया। इस युद्ध में मात्र डेढ़ घंटे के अंदर लैसर्स ने 1,500 शत्रुओं को युद्धबंदी बनाया। तीन बजे युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी गई। इस अभियान में मेजर दलपत सिंह सहित 900 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। मेजर दलपत सिंह को उनके अदम्य साहस, कर्तव्यनिष्ठा के लिए मरणोंपरांत मिलिटरी क्रॉस से सम्मानित किया गया। कैप्टन अनूप सिंह तथा लेफ्टीनेंट सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रॉस तथा जमादार जोधसिंह को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया। ब्रिटिश सरकार ने इस मुक्त किए गए भूभाग को यहूदियों को सौप दिया जो आज इजराइल के नाम से जाना जाता है।
भारतीय सेनाओं के शौर्य, वीरता और बलिदान का सम्मान करते हुए इजरायल ने भिन्न भिन्न स्थानों पर उनकी स्मृति में मेमोरियल बनाए हैं। इजरायल के पाठ्यक्रम में भी भारतीय सेनाओं की वीरता और योगदान का उल्लेख है। 19 सितंबर, 2011 को इजराइल ने भारतीय सेना के योगदान और बलिदान की यादगार में उनकी समाधि स्थल पर एक बहुत बड़े समारोह का आयोजन किया था। इधर भारत में हायफ़ा अभियान में शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में भारतीय थल सेना ने दो रेजिमेंट मैसूर तथा जोधपुर को मिलाकर 61वीं कैवेलरी की स्थापना की है। सेना प्रति वर्ष 23 सितंबर को हायफा दिवस के रूप में मनाती है।
फोरम फार अवेयरनेस ऑफ नेशनल सिक्योरिटी (फैन्स) दिल्ली नामक संस्था के तत्वाधान में 23 सितंबर, 2013 से प्रति वर्ष वीर सैनिकों के सम्मान में तीन मूर्ति चौक पर उनकी श्रद्धांजलि का कार्यक्रम होता है। तीन मूर्ति जो साऊथ ब्लॉक के समीप स्थित है, उन तीन कैवेलरी रेजीमेंट्स जोधपुर, मैसूर तथा हैदराबाद के प्रतीक है। वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों के नाम इन स्तंभों पर अंकित हैं। फैन्स ने तीन मूर्ति चौक का नाम ‘तीन मूर्ति हायफज्ञ मुक्ति चौक’ रखने का प्रस्ताव रखा है, जो सरकार के विचाराधीन है। भारतीय सेना आज भी अपनी वीरता, अदम्य साहस, रणकौशल तथा राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा के लिए विश्व विख्यात है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि केंद्र सरकार सैन्य जवानों के सम्मान की रक्षा करेगी और उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदैव संवेदनशील, सजग और संलग्न रहेगी।(DJ)

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