Monday 10 October 2016

विलय के बाद रेलवे का इम्तिहान (अरविंद कुमार सिंह)


रेल मंत्री सुरेश प्रभु की कोशिशें कामयाब रहीं। रेल बजट अब इतिहास का हिस्सा बनने जा रहा है। 2017 से केवल आम बजट ही पेश होगा जिसमें रेलवे का बजट भी समाहित होगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अलग रेल बजट की व्यवस्था समाप्त कर उसे आम बजट में मिलाने का प्रस्ताव मंजूर कर लिया है। संसद के बजट सत्र में अब तक पहले रेल बजट और चंद रोज बाद आम बजट पेश करने की परिपाटी रही है। अंग्रेजी राज में1924 से ही रेल बजट पेश होता आ रहा था। हालांकि केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि नई व्यवस्था के बाद भी रेलवे की अलग पहचान बरकरार रहेगी और उसे मिलने वाली सहायता में किसी तरह की कोई कमी नहीं आएगी। केंद्र सरकार ने देबराय समिति की सिफारिशों के तहत ऐसा करने का फैसला किया। रेल बजट को आम बजट में समाहित करने और बजट पेश करने की तिथि पहले करने से अलग से विनियोग विधेयक और लेखानुदान पेश करने की आवश्यकता नहीं होगी। अभी अप्रैल से जून माह के व्यय के लिए पहले लेखानुदान पारित होता है।
रेल बजट को समाप्त करने संबंधी विचार को अमलीजामा पहनाने के लिए रेल मंत्री के विशेष आग्रह पर सेवानिवृत्त हो रहे रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष एके मित्तल का कार्यकाल दो साल बढ़ाया गया। बेशक सरकारी दावा सही है कि नई व्यवस्था से रेलवे की नीतियों और योजनाओं पर मंत्रलय का पहले जैसा नियंत्रण बना रहेगा। नए कदम से रेलवे को नकदी की तंगी नहीं होगी। लेकिन ये दावे हैं, जमीन पर कितना खरे उतरते हैं इसे अभी देखना शेष है।
रेल बजट के समापन की पहल रेल मंत्री ने वित्त मंत्री को पत्र लिख कर की। उनका दावा था कि यह रेल और देश दोनों के हित में है। चूंकि रेलवे पर सातवें वेतन आयोग का 40 हजार करोड़ रुपये का बोझ है और तमाम सेवाओं पर उसे 32 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देनी होती है। इस नाते रेल बजट को अलग करने का फैसला रेलवे के हित में है। आम बजट का हिस्सा होने से रेलवे को सरकार को लाभांश देने से मुक्ति मिलेगी और किराया भाड़ा बढ़ाने में संसद की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। रेल मंत्रलय ने सुरेश प्रभु के प्रस्ताव को अमलीजामा पहनाने के लिए पांच सदस्यीय समिति बनाई थी। उसने भी रेल बजट को आम बजट में समाहित करने की राय दी। नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय समिति ने भी यही सिफारिश प्रधानमंत्री से की थी और आयोग के दूसरे सदस्य किशोर देसाई भी ऐसी ही राय के बताए जाते हैं।
विलय के बाद रेलवे का ढांचा भी दूसरे सरकारी विभागों जैसा होगा और कामकाज का तौर तरीका भारतीय डाक जैसा होगा जाएगा। यह अलग बात है कि अपनी सकल यातायात आय 1.8 लाख करोड़ रुपये से अधिक होने के कारण यह दूसरे मंत्रलयों से हैसियत में अलग होगा। लेकिन अगर यह कदम इस नाते उठाया जा रहा है कि किराया तय करने या नई रेलगाड़ियों के लिए संसद पर निर्भर रहने जैसी बाध्यता इससे समाप्त हो जाएगी तो यह सोच उचित नहीं है। संसद सवरेच है। उसका नियंत्रण रेल बजट के आम बजट में समाहित हो जाने के बाद भी कायम रहेगा।
ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय रेल की शुरुआत निजी कंपनियां ने किया, जिनके मुख्यालय लंदन में थे और उनके एजेंट भारत में काम करते थे। ये कंपनियां ही रेल का निर्माण और संचालन करती थीं। लेकिन स्थिति संतोषजनक नहीं थी इस नाते आम बजट से अलग रेल बजट की मांग 1884 से उठनी शुरू हुई। सरकार ने 1899 और 1901 में इस पर विचार मंथन किया, लेकिन कोई सहमति नहीं बनी।
अंग्रेजी राज में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के भारतीय सदस्यों की मांग थी कि रेलवे के व्यय और नीतिगत मुद्दों पर विधान मंडल का नियंत्रण हो। इसी दबाव में 1920 में सरकार ने एकवर्थ समिति गठित की जिसने पड़ताल के बाद माना कि सरकार रेलों के विकास के लिए पर्याप्त पूंजी राजस्व देने में विफल रही है। समिति का मत था कि अगर रेलवे का बजट सामान्य बजट से अलग रहा होता तो भारतीय रेल तेज गति से विकास कर देश की जीवनरेखा बन सकती थी। एकवर्थ समिति के विचार से 1922 में सर मेलकान की अध्यक्षता वाली रेलवे वित्त समिति और इंचकैप समिति ने भी सहमति जताई तो सरकार को रेल बजट अलग करने का फैसला करना पड़ा। बाद में दिल्ली में तत्कालीन सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली ने 20 सितंबर 1924 को इसकी मंजूरी दे दी। रेलवे का समाहित आखिरी आम बजट 1923-24 का था। यह 262 करोड़ रुपये का बजट था। इसमें 82 करोड़ रुपये का बजट रेल विभाग का था, जो कुल बजट का 31 फीसदी था।
इतिहास बताता है कि 1924 में रेल बजट अलग होने से अधिक स्वायत्ता के माहौल में रेल के विकास की गति तेज हुई। 1924 में ही रेलवे बोर्ड का पुनर्गठन हुआ। विधायिका में शुरू से ही रेल सेवाओं में सुधार को लेकर सरकार को लगातार सवालों से जूझना पड़ता है। इस नाते बहुत से सुधारात्मक कदम भी उठे। केंद्रीय विधायिका में 1924-25 में उठे कुल सवालों में 29 फीसदी रेलों से संबंधित थे जो 1927-28 तक ये बढ़ कर तीस फीसदी हो गए। यह रेलवे की उपयोगिता और महत्व को दर्शाता है।
रेल बजट अलग होने के दौरान भारतीय रेल के पास 38,579 मील की रेल पटरियां थीं और उसकी आय 3,875 लाख रुपये थी। सबसे अधिक 3,412 लाख रुपये की आय तीसरे दर्जे के मुसाफिरों से होती थी। तीसरा दर्जा बेहद पीड़ादायक था और महात्मा गांधी ने इसे लेकर काफी कुछ लिखा। आजादी के बाद लाल बहादुर शास्त्री के रेल मंत्री काल में 1952 में तीसरा दर्जा समाप्त हुआ। बाद में कई और कदम उठे। तमाम रेल मंत्रियों ने नए प्रयोग किए लेकिन किसी ने रेल बजट को समाप्त करने का इरादा नहीं जताया।
विलय के बाद भारतीय रेल निजीकरण की ओर तेज गति से बढ़ेगी। डॉ. बिबेक देबरॉय समिति की राय पर ही रेल मंत्री चल रहे हैं, जिसका मानना था कि यात्री और माल गाड़ी चलाने समेत तमाम काम निजी कंपनियों को सौंप देना चाहिए। निजी क्षेत्र को माल डिब्बे, सवारी डिब्बे और इंजनों के निर्माण जैसी गतिविधियां सौंपने पर काम आगे चल रहा है।
भारतीय रेल की 27.19 फीसदी आमदनी यात्री यातायात से होती है। यात्री सेवाओं में भी 76 फीसदी आय लंबी दूरी की एक्सप्रेस ट्रेनों से होती है। माल ढुलाई में भी करीब 88 फीसदी आय चुनिंदा क्षेत्रों से होती है। दूसरे सामान्य माल से आय 10 फीसदी से भी कम है। रेलवे की तमाम सेवाएं घाटे में जा रही हैं और संचालन व्यय बढ़ता जा रहा है। भारतीय रेल अपने आठ हजार से अधिक स्टेशनों से यह रोज दो करोड़ तीस लाख से अधिक मुसाफिरों को गंतव्य तक पहुंचाती है। इसकी 19 हजार से अधिक रेलगाड़ियों में मालगाड़ियां केवल 7,421 हैं।
रेलवे को उम्मीद है कि 2016-17 के दौरान वह 1.84 लाख करोड़ रुपये का राजस्व जुटा सकेगी। बेशक आज रेल परिसंपत्तियों पर भारी दबाव है। लंबित परियोजनाओं की सूची लंबी चौड़ी होती जा रही है और उसके लिए आज करीब पांच लाख करोड़ रुपये से अधिक की जरूरत है। सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है और साफ-सफाई, समय पालन, संरक्षा, टर्मिनलों की गुणवत्ता, गाड़ियों की क्षमता, यात्रियों की सुरक्षा गंभीर मसले हैं। इसी नाते राष्ट्रीय माल और यात्री यातायात में रेलवे की हिस्सेदारी में कमी आती जा रही है। आज भी रेलवे का सबसे भरोसेमंद संसाधन बजटरी सहायता है जिसे केंद्र सरकार मुहैया कराती है। राष्ट्रीय परियोजनाओं के लिए भी धन केंद्र सरकार दे ही रही है। तमाम दावों के बाद भी आतंरिक संसाधनों से रेलवे का सृजन सीमित है इसी नाते रेलवे के आधारभूत ढांचे की रफ्तार को गति नहीं मिल पा रही है। फिर भी अगले पांच वर्षो में रेलवे ने तमाम मदों में आठ लाख छप्पन हजार करोड़ रुपये से अधिक निवेश का ताना बाना बुना है। देखना यह है कि अलग रेल बजट से भारतीय रेल का कौन सा कायाकल्प होता है।
(लेख्खक वरिष्ठ पत्रकार हैं)(DJ)

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