Monday 10 October 2016

नेपाल की नीति में सार्थक बदलाव (उमेश चतुर्वेदी)

प्रचंड के क्रांतिकारी नाम से दुनियाभर में विख्यात नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल की पद संभालने के बाद पहली भारत यात्रा मोदी सरकार की बड़ी कुटनीतिक जीत है। इस जीत को वे लोग और यादा गहराई से समझ सकते हैं, जिन्हें प्रचंड के दल यूनीफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल की विचारधारा की जानकारी है। चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग की वैचारिक धारा की अनुयायी पार्टी के नेता प्रचंड ने दूसरी बार नेपाल की सत्ता 4 अगस्त को तब संभाली, जब नेपाल की समाजवादी विचारधारा की राजनीति करने वाली नेपाली कांग्रेस के नेता केपी शर्मा ओली की अगुआई वाली सरकार को विश्वासमत में हार का सामना करना पड़ा। यह कम बड़ी उलटबांसी नहीं है कि जिस नेपाली कांग्रेस पार्टी को भारत की समाजवादी राजनीतिक विचारधारा का नजदीकी माना जाता रहा है, राजतंत्र विरोधी नेपाली कांग्रेस के आंदोलन में जिसने सहयोग दिया था, वह भारतीय समाजवादी राजनीतिक धारा ही थी। यही वजह है कि नेपाली कांग्रेस को भारतीय समाजवादी राजनीतिक पार्टियों का सहयोगी माना जाता रहा है। लेकिन उसके ही नेता की अगुआई में बनी सरकार ने उन मधेसी समुदाय के अपने ही नागरिकों के साथ संविधान में भेदभाव पूर्ण संशोधन मंजूर किया, जिसका रोटी और बेटी का रिश्ता सीमावर्ती भारतीय नागरिकों से है।
बहरहाल, मधेसी आंदोलन अब पुराना पड़ चुका है। उसी आंदोलन की आंच में झुलसकर केपी शर्मा ओली सत्ता गवां चुके हैं। इस पृष्ठभूमि में पुष्प कमल दहल को जब नेपाल की सत्ता की कमान मिली तो एक बार फिर भारत में आशंका के बादल ही छाने लगे। इसकी पहली वजह तो उनकी पार्टी की राजनीतिक विचारधारा तो है ही, उनका अतीत भी है। 2008 में जब वे नेपाल के पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अपना पहला दौरा चीन का ही किया था। तब उनकी सरकार चीन की तरफ ही झुकती नजर आई थी। लेकिन इस बार उनका रवैया बदला हुआ है।
नेपाली कांग्रेस के बड़े नेताओं मसलन पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला, उनकी बहन सुजाता कोइराला, भाई सुशील कोइराला के साथ ही मनमोहन भट्टराई, प्रदीप गिरि, चक्र वास्तोला आदि का भारतीय नेताओं और भारतीय सरजमीं से गहरा रिश्ता रहा है। खुद प्रचंड भी दिल्ली में अपने क्रांतिकारी भूमिगत जीवन का बड़ा हिस्सा गुजार चुके हैं। प्रचंड के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री रहे उनके ही पार्टी सहयोगी बाबूराम भट्टराई की पढ़ाई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई थी। इन वजहों से इन नेताओं की भारत को लेकर सहानुभूति रही। लेकिन यह सहानुभूति प्रचंड के पहले कार्यकाल में नजर नहीं आई थी। उनकी सरकार चीन से गलबहियां करती ज्यादा नजर आई। वैसे भी चीन भारत को घेरने की रणनीति के तहत जहां पाकिस्तान के बलूचिस्तान तक आर्थिक कॉरिडोर बना रहा है, वहीं उसने नेपाल सरकार से तिब्बत की राजधानी ल्हासा से काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने का करार किया है। भारत वैसे भी नेपाल के विकास कार्यो में भागीदार रहा है। उसके सहयोग से नेपाल में जहां सड़कें और अस्पताल बनाए जा रहे हैं, वहीं इन मोर्चो पर मदद के नाम पर चीन भी भारत का सहयोग कर रहा है। सदियों से सांस्कृतिक और राजनीतिक रिश्तों के बावजूद ओली के शासन काल के दौरान भारत को दरकिनार करने की कोशिशें तेज हुईं। इसी दौरान नेपाल सरकार ने पेट्रोलियम आयात करने के लिए चीन से करार किया। एक तरह से देखें तो ओली के शासनकाल में नेपाल में चीन की बढ़ती भूमिका एक तरह से प्रचंड के कार्यकाल के दौरान उपजे चीन प्रेम का विस्तार ही थी। जाहिर है कि इससे भारत को चिंतित होना ही था और हुआ भी।
लेकिन अब लगता है कि प्रचंड ना सिर्फ राजनीति समझ गए हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के महत्व और उसमें नेपाली हित को लेकर भारत की भूमिका को भी समझ रहे हैं। कहा जा सकता है कि 2008 में प्रचंड जहां क्रांतिकारी थे, वहीं अब वे समझदार राजनेता नजर आ रहे हैं। उन्हें अब शायद यह समझ आ गया है कि चीन के साथ सहयोग बढ़ाने से नेपाल में भले ही आर्थिक तेजी आ जाए, लेकिन चीन अपनी विस्तारवादी नीति से नेपाल को बख्श देगा, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। चीन आर्थिक के साथ ही राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश करेगा, जबकि भारत की नीति किसी दूसरे देश के अंदरूनी राजनीतिक और आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप करने की नहीं रही है। शायद यही वजह है कि दूसरी बार सत्ता संभालने के फौरन बाद प्रचंड को उसी दिल्ली की याद आई है, जिसके हृदय स्थल मंडी हाउस के चौराहे और चाय की दुकानों पर अपने दिल्ली वाले दोस्तों के साथ चाय की हजारों चुस्कियां लेते हुए नेपाल में क्रांति को सफल करने का सपना देखा था। उन्होंने अगर भारत के साथ रिश्ते सुधारने को महत्व को समझा नहीं होता तो भारतीय अखबारों को यात्र से पहले साक्षात्कार क्यों देते कि वे दिल्ली आकर ना सिर्फ नेपाल, बल्कि खुद को लेकर बनी धारणा को भी बदल देंगे।
पूरी दुनिया जानती है कि प्रचंड लाल सलाम वाले व्यक्ति हैं और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसके ठीक विपरीत ध्रुव पर खड़ी राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रतिबद्ध स्वयंसेवक हैं। ऐसे माहौल में अगर भारत यात्रा से पहले प्रचंड कहते हैं कि उनकी और मोदी की केमिस्ट्री मिलती है तो मानना पड़ेगा कि उनके विचारों में काफी बदलाव आया है।
इन दिनों नेपाल की सबसे बड़ी चुनौती पिछले साल आए भूकंप से तबाही से पार पाना और लोगों की जिंदगी को पटरी पर लाना है। अनुमान के मुताबिक भूकंप के दौरान नौ हजार लोगों की मौत हुई थी, जबकि आठ लाख घर तबाह हुए थे। प्रचंड ने सत्ता संभालते ही बर्बाद हुए घरों के लिए पचास-पचास हजार रुपये की तत्कालिक सहायता का ऐलान किया है, लेकिन यह मदद ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। इस मोर्चे पर भारत का सहयोग नेपाल को मिल रहा है। हालांकि मधेस आंदोलन और उस पर ओली सरकार के रवैये के चलते भारत का रुख थोड़ा ठंडा रहा है। लेकिन प्रचंड इस यात्रा के दौरान भूकंप से उजड़े नेपाल के लिए भारत से और अधिक मदद की उम्मीद लगा रखे हैं। जिस तरह उनका भारत में स्वागत हो रहा है, उससे तय है कि भारत सरकार भी उन्हें शायद ही निराश करे। वैसे भारत अब भी नेपाल का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है।
जिनेवा संधि के मुताबिक भारत का कोलकाता बंदरगाह नेपाल के लिए आवंटित है। साथ ही भारत नेपाल का सबसे बड़ा दानदाता, आपूर्तिकर्ता और ईंधन का एकमात्र स्नोत है। वैसे भारत 56 सौ मेगावाट की पंचेश्वर परियोजना नेपाल में लगाने का समझौता कर चुका है। इसके साथ हुलाकी राजमार्ग की 600 किलोमीटर लंबी सड़क परियोजना में भी भारत की दिलचस्पी है। भारत के खासकर बिहार में बाढ़ की बड़ी वजह नेपाल से आने वाली नदियां कोशी और गंडक हैं। नेपाल से अक्सर उन पर बांध बनाने की मांग की जाती रही है। इस लिहाज से इन परियोजनाओं का अपना खासा महत्व है। उम्मीद की जा रही है कि प्रचंड की इस यात्रा के दौरान इन परियोजनाओं पर भी काम आगे बढ़ाने पर सहमति होगी।
प्रचंड की यात्रा के दौरान अगर मधेसी समुदाय की समस्या को सुलझाने की दिशा में बात आगे नहीं बढ़ी तो बाकी समझौतों का कोई मोल नहीं रहेगा। नेपाल की जनसंख्या में मधेसी समुदाय की हिस्सेदारी 52 फीसदी है। लेकिन इनका वहां की नौकरशाही में उचित हिस्सेदारी नहीं है। मधेसी समुदाय नए संविधान के तहत देश को सात प्रांतों में बांटे जाने का विरोध कर रहा है। इस समुदाय की तीन प्रमुख मांग यह हैं कि सीमा का पुनर्निधारण किया जाए, आनुपातिक प्रतिनिधित्व शामिल किया जाए और आबादी के आधार पर संसदीय सीटों का आवंटन किया जाए। मधेसियों की चिंता है कि भारत से जाने वाली बहुओं को 15 साल बाद वहां की नागरिकता मिलेगी और उनके बाल-बच्चों को किसी उच्च पद पर नहीं जाने दिया जाएगा। इसके चलते मधेसी समुदाय ने फेडरल मोर्चा बनाकर आंदोलन कर दिया था। (DJ)

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