Thursday 30 April 2015

किन्नरों को भी मिलें उनके अधिकार (गौरव कुमार)

राज्यसभा ने इतिहास रचते हुए शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण निजी विधेयक को सर्वसम्मति से पारित कर दिया। किन्नरों के अधिकार विधेयक 2014 के नाम से इस बिल के पारित होने के बाद जहां संसदीय इतिहास में 36 वर्षो का रिकॉर्ड टूटा वही अपने अधिकारों के लिए वर्षो से लड़ रहा किन्नर समुदाय बहुत खुश है। राज्यसभा में द्रमुक सांसद तिरु ची शिवा ने निजी विधेयक के रूप में इस बिल को पेश किया। किन्नरों को अधिकार प्रदान करने संबंधी इस बिल ने भारत को अग्रणी देशों की सूची में ला दिया है। अब तक अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इटली, सिंगापुर सहित करीब 29 देशों ने किन्नरों के अधिकारों से सम्बंधित कानून बनाए है। भारत में किन्नरों की अनुमानित संख्या 30 लाख के आसपास है और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते सरकार की जिम्मेदारी है कि उनके कल्याणार्थ उचित प्रावधान हों। विधेयक के प्रावधानों पर र्चचा के दौरान सांसद शिवा ने बिल वापस लेने से मना करते हुए इस पर वोटिंग की मांग की। संसदीय परंपरा में अक्सर प्राइवेट मेंबर बिल को सरकार वापस लेने का दवाब बनाती है और उचित कदम उठाने का आश्वासन देती है। इस बिल पर भी ऐसी कोशिश हुई किन्तु किन्नरों के प्रति संवेदना और आशा ने उन्हें तटस्थ रखा। बिल पर र्चचा के दौरान सदन की दर्शक दीर्घा बड़ी संख्या में किन्नरों की उपस्थिति ने भी बिल पारित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1979 के बाद यह पहला निजी विधेयक है जो किसी सदन से पारित हुआ है। इससे पहले 1979 में ‘‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिर्वसटिी एक्ट, 1977’ राज्यसभा से पारित हुआ था किन्तु लोकसभा से पारित नहीं हो सका। इस बार के विधेयक के प्रति आशा की जानी चाहिए कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक उपेक्षित समुदाय के कल्याण से सम्बंधित बिल कानूनी शक्ल ले। पारित बिल के दस अध्यायों में विभाजित 58 धाराएं किन्नरों के सामाजिक समावेशन, अधिकार और सुविधा, आर्थिक एवं कानूनी सहायता, शिक्षा, कौशल विकास तथा हिंसा व शोषण रोकने का प्रावधान करती हैं। बिल में उनके लैंगिक समानता के अधिकार के साथ शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था है। किन्नरों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की बात भी इसमें कही गई है। हालांकि तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल सरकारों द्वारा उनके कल्याणार्थ एक वेलफेयर बोर्ड गठित है किन्तु जब तक एक राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रयोजनार्थ आयोग नहीं बन जाता, तब तक ये प्रयास नाकाफी हैं। विधेयक एक व्यापक और प्रभावी राष्ट्रीय नीति का उपबंध करता है जो किन्नरों के समग्र विकास को पोषित करने वाला हो, उनके कल्याण के लिए हो। विधेयक का मकसद किन्नरों को भी समाज की मुख्यधारा से जोड़ना और अपनी रुचि के आधार पर काम का अधिकार देना है। यह भेदभाव रोकने और असमानता खत्म करने की वकालत करता है। बिल में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उनके मामलों के लिए अलग से अधिकार न्यायालय की स्थापना की जाय जिससे उनके मामलो का त्वरित निपटारा हो सके जो उनकी लैंगिग स्थिति के कारण बेहतर ढंग से नहीं हो पाती। बिल में इस समुदाय के बच्चों के लिए प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा में आरक्षण का प्रावधान भी है। सरकारी नौकरियों में दो प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान सहित किसी भी संस्थापना में उनके प्रति भेदभाव रोकने के लिए भी प्रावधान हैं साथ ही ऐसे लोगों को व्यावसायिक तथा स्वनियोजन के लिए प्रशिक्षण और कम दर पर ऋण की भी व्यवस्था का प्रावधान है। इस समुदाय की स्वास्य समस्या को भी खास तवज्जो दी गई है। उनके लिए अलग से एचआई वी निगरानी केंद्र की स्थापना और अन्य स्वास्य सुविधाओं के उपबंध हैं। विधेयक में कहा गया है कि किन्नरों के लिए ऐसे सामुदायिक केन्द्रों का विकास होना चाहिए जो पोषण, स्वच्छता और स्वास्य मानकों पर खरे हों। इसके अलावा उपेक्षित और वंचित किन्नरों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बेरोजगारी भत्ते के साथ साथ पेंशन की भी व्यवस्था की बात कही गई है। लोगों में उनके प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से भी सरकार और समुदाय द्वारा जागरूकता पर जोर दिया गया है।यदि यह बिल कानूनी शक्ल अख्तियार कर लेता है तो वास्तव में मानवीय संवेदना और बहुविविध समाज में समानता के अधिकारों को पुष्ट करने की दिशा में एक आदर्श कानून होगा। हालांकि इस समुदाय के विकास और सामाजिक समावेशन की दिशा में पहले से सरकार सहित कई कल्याणकारी संस्थाएं कार्य करती रही हैं। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने भी इनके शोषण और विकास की दिशा में अहम फैसला दिया था जिसने इस समुदाय के लोगों के लिए वास्तविक खुशी का कारण बना था। इसी वर्ष 15 अप्रैल को न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और ए के सीकरी की पीठ ने किन्नरों की पहचान के साथ कानूनी दर्जा की मांग करने वाली संस्थाओं की याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र व राज्य सरकारों को नौ दिशा निर्देश जारी किया था। इसमे कहा गया था कि किन्नरों को तीसरे लिंग के तौर पर शामिल करते हुए संविधान में मिले सभी अधिकार और संरक्षण उन्हें दिए जाएं। किन्नरों को उनके लिंग की पहचान तय करने का कानूनी हक मिले। उन्हें भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और नौकरियों में आरक्षण मिले। उनके स्वास्य के लिए अलग से बेहतर व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। खास कर एचआईवी मामलों में अलग से निगरानी केंद्र बनाया जाए। किन्नरों की सामाजिक समस्याओं का निवारण किया हो। उनके विकास व सामाजिक समावेशन के लिए गंभीर प्रयास हों। किन्नरों को उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाने के लिए कदम उठाये जाएं। सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से किन्नरों के कल्याण के कई रास्ते खुले और अब इस बिल के माध्यम से भी खुलने की उम्मीद बंधी है। किन्नर स्वयं को न केवल समाज बल्कि परिवार के स्तर पर भी उपेक्षित महसूस करते हैं। ऐसे में योग्यता के बावजूद वह आत्मविश्वापूर्वक उसका उपयोग नहीं कर पाते हैं। समाज में उनके प्रति एक शर्मनाक सोच विकसित कर दी गई है जो उन्हें शर्म, भय और शोषण का औजार बना देते हैं जबकि जैविक रूप से अलग तरह की शारीरिक संरचना पाने वाले इन लोगों का प्रकृति पर कोई जोर नहीं। हालांकि भारतीय समाज ऐसे लोगों के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण भी रखता है। मांगलिक कायरे में इनकी उपस्थिति शुभ मानी जाती है। इन्हें हिन्दू धर्म-दर्शन में भगवान शिव के रूप में देखा गया है। इसके बावजूद ये समाज में उपेक्षित और शोषित हैं। लेकिन सरकार द्वारा उनके हित में बेहतर कदम न उठाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। बहरहाल, मानवाधिकारों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील आज के युग में किन्नरों के प्रति सोच बदलना समय पर बहुत बड़ी जरूरत है। एक मानव के रूप में उनको भी वे सारे मूल अधिकार मिलने जरूरी हैं जो मानव होने के नाते प्रकृति के साथ साथ नियंतण्र रूप से अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार के रूप में उन्हें मिले हुए हैं।यदि किन्नरों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने और समग्र विकास को सुनिश्चित करने का प्रयास हो तो यह मानवीय, संवैधानिक और आर्थिक सभी तरह से लाभदायक होगा। यदि सरकार किन्नरों के सामाजिक समावेशन के जरूरी प्रयास करे और उन्हें सामाजिक स्वीकृति मिल जाए तो एक वंचित, उपेक्षित, शोषित समुदाय का कल्याण व विकास सुनिश्चित किया जा सकता है।(RS)

दोनों हाथों से लपकने होंगे आर्थिक मौके (जयंतीलाल भंडारी)

हाल में जर्मनी स्थित नियंत्रण सलाहकार व शोध कंपनी डेल्फी ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को आकर्षित करने और निर्यात के मौकों को मुट्ठी में करने की दृष्टि से भारत बेहद अनुकूल स्थिति में है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में तेजी और चीन की अर्थव्यवस्था में मंदी की हालत में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए विकास की नई प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। इसी तरह आईएमएफ की प्रमुख क्रिस्टीना लेगार्ड का कहना है कि विश्व अर्थव्यवस्था में इस समय फैली नरमी की धुंध के बीच भारत रोशनी की किरण है। कई देश जहां निम्न विकास दर से जूझ रहे हैं, वहीं भारत की विकास दर चालू वित्त वर्ष में 7.5 फीसद के स्तर को छू सकती है। यह भी कहा गया है कि इस साल भारत की वृद्धि दर चीन से आगे निकल सकती है और 2019 तक भारतीय अर्थव्यवस्था 2009 की तुलना में दोगुनी हो सकती है। एक बात जो इस दौर में भारत को आकर्षक बनाए हुए है वह है उभरते बाजारों में बड़े निवेश योग्य विकल्पों की कमी के बीच भारत की अधिक आर्थिक अनुकूलता। आईएमएफ और विश्व बैंक की वाशिंगटन में इसी माह आयोजित मीटिंग में शिरकत करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने नई सरकार की नीतियों के कारोबारियों के अनुकूल होने की बात मजबूती से कही। उससे विदेशी निवेशकों में भारत के प्रति विास बढ़ने की संभावना बढ़ी है। नए आंकड़े बता रहे हैं कि देश में एफडीआई का प्रवाह जनवरी 2015 में जनवरी 2014 की तुलना में दोगुना होकर 4.48 अरब डॉलर रहा। यह पिछले 29 माह का सबसे अधिक आंकड़ा है। अब निर्यात के मौकों का लाभ उठाने की डगर पर तेजी से आगे बढ़ना होगा। पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2015-20 के लिए बहुप्रतीक्षित विदेश व्यापार नीति (एफटीपी) की घोषणा की गई है। इस नीति के तहत 2020 तक नियंतण्र निर्यात में भारत का हिस्सा दो फीसद से बढ़ाकर 3.5 फीसद पर पहुंचाने तथा वर्ष 2019-20 में देश का निर्यात करीब 900 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। निर्यात में हर साल 14 फीसद बढ़त हासिल करने की कोशिश की जाएगी। यद्यपि नई विदेश व्यापार नीति के तहत भारत से वस्तु और सेवा निर्यात बढ़ाने की योजनाओं के साथ-साथ निर्यात वृद्धि के लिए कई सौगातें दी गई हैं, लेकिन निर्यात के ऊंचे लक्ष्यों को पाने के लिए उन चुनौतियों का जोरदार सामना करना होगा जो इस समय निर्यात परिदृश्य पर खड़ी हुई हैं। वाणिज्य मंत्रालय के नए आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014-15 में निर्यात करीब 310 अरब डॉलर रहा है, जबकि निर्यात का लक्ष्य 340 अरब डॉलर निर्धारित किया गया था। यह निर्यात वित्तीय वर्ष 2013-14 में किए गए 312 अरब डॉलर के निर्यात मूल्य से भी कम है। नई विदेश व्यापार नीति के समक्ष विश्व बाजार में जिंसों के घटे हुए भावों की बड़ी चुनौती है। पेट्रोलियम उत्पाद और कृषि जिंसों के निर्यात में भारी गिरावट आई है। देश के लिए निर्यात के मोर्चे पर एक बड़ी चुनौती यह है कि मौजूदा डब्ल्यूटीओ नियमों के तहत निर्यात सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना है। निर्यात प्रोत्साहन मानदंडों को सब्सिडी पर निर्भरता कम कर ज्यादा व्यवस्थित बनाने की प्रतिबद्धता सरकार के सामने है। निसंदेह निर्यात के मोर्चे पर चीन की चुनौती सामने खड़ी है। यद्यपि कुछ विदेश व्यापार विशेषज्ञ यह मान रहे थे कि विकास दर घटने, मंदी और बढ़ी हुई श्रम लागत के कारण वर्ष 2014-15 में चीन के निर्यात मूल्य में कमी आएगी और उसका लाभ भारत को निर्यात बढ़ाने में मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चीन का निर्यात वर्ष 2013-14 में 2340 अरब डॉलर था। यह अनुमानित है कि 2014-15 में चीन का निर्यात तेजी से नहीं बढ़ा, लेकिन पिछले वर्ष की तुलना में कुछ अधिक ही हुआ है। यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि न तो ‘‘मेक इन इंडिया’ का नारा सुनकर दुनियाभर की कंपनियां विनिर्माण के गढ़ के तौर पर चीन के बजाय भारत को प्राथमिकता देने जा रही हैं और न ही नई विदेश व्यापार नीति के कारगर क्रियान्वयन के बिना भारतीय निर्यात तेजी से बढ़ने जा रहा है। निश्चित रूप से नई विदेश व्यापार नीति के तहत देश से निर्यात बढ़ाने और ‘‘मेक इन इंडिया’ के नारे को साकार करने के लिए अब नए सार्थक प्रयास जरूरी हैं। खासकर यूरोपीय देशों में धीमी पड़ती आर्थिक गतिविधियों के बीच भी भारत के लिए निर्यात के अवसर बनाने होंगे। नई विदेश व्यापार नीति के तहत प्रस्तुत एमईआईएस तथा एसईआईएस के चमकीले बिंदुओं के तहत कारगर प्रयास करने होंगे। व्यापारिक रूप से संगठित क्षेत्रों के विभिन्न समूहों के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) और उनसे संबंधित नई रणनीति बनाकर निर्यात में वृद्धि करनी होगी। चीन सहित प्रतिस्पर्धी देशों से निर्यात मुकाबले के लिए बनाई गई रणनीति को कारगर बनाने के लिए, खासकर नई नीति के तहत ट्रांजेक्शन लागत को कम करने के लिए निर्धारित किए गए 21 विभागों में ऐसा उपयुक्त समन्वय जरूरी होगा जिससे निर्यात संबंधी प्रक्रिया सरल बन जाए। यह भी जरूरी होगा कि देश के निर्यातकों को चीन की तरह आधारढांचा संबंधी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। निर्यात लक्ष्य पाने के लिए आंतरिक मोर्चे पर भी कई तरह के काम करने होंगे। देश में कारोबार के अनुकूल माहौल बनाना होगा। नौकरशाही के कामकाज की संस्कृति में बदलाव करना होगा। सरकार के द्वारा सेज का सही ढांचा विकसित करना होगा। विदेश व्यापार बढ़ाने के लिए बेहतर प्रॉडक्ट क्वालिटी पर फोकस करना होगा ताकि हमारे उत्पाद नियंतण्र मापदंडों पर खरे उतर पाएं। देश में विनिर्माण बहुत पिछड़ा हुआ है। भारत की जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब 15 फीसद है, जबकि चीन में यह 30 फीसद है। देश में विनिर्माण क्षेत्र की सालाना वृद्धि दर जो वर्ष 2000 से 2010 के बीच करीब 10 फीसद थी, अब नकारात्मक हो गई है। हमें देश के आर्थिक मौके बढ़ाने वाले कई महत्वपूर्ण आधारों का पूरा लाभ उठाना होगा। अमेरिका में आई तेजी का लाभ उठाकर भारत वहां अपना निर्यात बढ़ा सकता है। अप्रत्यक्ष करों से संबंधित जीएसटी एक अप्रैल 2016 से लागू किया जाना पूर्णतया संभावित है। इससे भारतीय निर्यातकों को लाभ होगा। जिस तरह अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बहुत घट गए हैं, उसका लाभ निर्यात बढ़ाने में लिया जाना चाहिए। आर्थिक एवं श्रम सुधारों की डगर पर आगे बढ़ने का लाभ भी लिया जाना चाहिए। भारत ने हाल में बीमा क्षेत्र में 49 फीसद एफडीआई को मंजूरी दी है। साथ ही सरकार ने नए बजट 2015-16 के तहत कारपोरेट कर को चीन की तरह कम कर 30 से 25 फीसद पर लाए जाने हेतु कदम उठाए हैं। इससे भारतीय निर्यातकों को लाभ होगा। नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे भारत के लिए विदेशी निवेश व निर्यात बढ़ाने के वर्तमान सकारात्मक अवसर को हाथ से न जाने दें। जरूरी है कि देश में जो आर्थिक उत्साह पैदा हुआ है उसके आधार पर सरकारी नीतियों में ढांचागत परिवर्तन की दिशा में तेजी से कदम उठाए जाएं। भारत को जबरदस्त प्रतिस्पर्धी देश बनाया जाना और श्रम व मौद्रिक नीति में सुधार के साथ-साथ नौकरशाही और राजकोषीय अनुशासन में सुधार पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।(RS)

गरीबी बढ़ाने का बैंक (डॉ. भरत झुनझुनवाला)

विश्व बैंक के गवर्नर बोर्ड को संबोधित करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि भारत जैसे विकासशील देशों को विश्व बैंक द्वारा अधिक मात्र में ऋण उपलब्ध कराया जाना चाहिए। बैंक से ऋण लेकर हम हाईवे इत्यादि बनाएंगे जिससे आर्थिक विकास को गति मिलेगी और गरीबी दूर होगी, लेकिन सत्यता इससे परे है। वास्तव में विश्व बैंक के कार्यकलापों से गरीबी बढ़ती है और आम आदमी त्रस्त होता है। ट्रुथ आउट वेबसाइट पर बताया गया है कि विश्व बैंक ने ग्वाटेमाला में चिक्साय जलविद्युत परियोजना के लिए भारी मात्र में ऋण दिए। वेबसाइट के अनुसार उस समय ग्वाटेमाला पर ‘क्रूर सैन्य शासन’ काबिज था। परियोजना को लागू करने में 440 आदिवासी माया लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। इसी प्रकार विश्व बैंक की सहयोगी संस्था इंटरनेशनल फाइनेंस कारपोरेशन ने होंडुरास में पॉम आयल का उत्पादन करने वाली कंपनी डिनांट को लोन दिया। लोन देने के पहले होंडुरास में लोकतांत्रिक सरकार थी। इस सरकार का तख्ता पलट करके सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली। तख्ता पलट के मात्र पांच माह बाद विश्व बैंक ने यह लोन दिया। सैन्य सरकार को सजा देने के स्थान पर विश्व बैंक ने उन्हें पुरस्कार दिया। मानवाधिकार के क्षेत्र में कार्यरत संगठनों के अनुसार जिस क्षेत्र में कंपनी कार्यरत थी वहां किसानों के आंदोलनों से जुड़े 102 लोगों की हत्या कर दी गई। इनमें से कई हत्याओं को कंपनी के सिक्योरिटी स्टॉफ द्वारा अंजाम दिया गया बताया जाता है।
अपने देश में परिस्थिति भिन्न नहीं है। विश्व बैंक ने उत्तराखंड में विष्णुगाड-पीपलकोटी जलविद्युत परियोजना को लोन दिया है। अन्य स्थानीय लोगों के साथ मैंने बैंक के सामने शिकायत दर्ज की कि इस परियोजना के कारण गरीबी बढ़ेगी। परियोजना द्वारा टनल बनाने के लिए विस्फोटकों का भारी मात्र में उपयोग करने से गरीब लोगों के मकानों में दरारें पड़ गई हैं। भूस्खलन हो रहे हैं जिससे जान-माल की हानि हो रही है। डैम के बनने से मछलियां अपने प्रजनन क्षेत्र तक नहीं पहुंच पाएंगी और गरीब लोग मछली से होने वाली आय से वंचित हो जाएंगे। डैम बनने से बालू डैम के पीछे जमा हो जाएगी और स्थानीय लोगों को मकान बनाने के लिए मैदानी क्षेत्रों से महंगी बालू लानी होगी। बद्रीनाथ जाने वाले तीर्थ यात्री नदी के मुक्त बहाव से मिलने वाले सुख से वंचित हो जाएंगे। ये सभी दुष्प्रभाव गरीबों पर पड़ेंगे। लेकिन परियोजना द्वारा उत्पादित बिजली देहरादून तथा दिल्ली के अमीरों के विकास के लिए सप्लाई की जाएगी। हमने कहा कि परियोजना के प्रभाव का गरीब तथा अमीर पर पड़ने वाले प्रभाव का अलग-अलग आकलन कराया जाए जिससे साफ हो जाए कि परियोजना किसके हित में है और किसके अहित में। निराशाजनक है कि विश्व बैंक ने ऐसा अध्ययन करने से इन्कार कर दिया।
पीपलकोटी परियोजना में लोगों के मानवाधिकारों का भी खुलकर हनन हो रहा है। हाट गांव के कुछ बाशिंदों ने परियोजना को अपनी जमीन देने से इन्कार कर दिया। इन्होंने आपत्ति उठाई कि परियोजना द्वारा पास की अधिग्रहीत जमीन पर विस्फोट तथा खनन करने से पशु परेशान हैं, धूल से खेती खराब हो रही है तथा जल स्नोत सूख रहे हैं। लोगों ने परियोजना के कार्य को रोकना चाहा। विश्व बैंक ने कंपनी को कह रखा था कि हाट गांव के बाशिंदों से वार्ता करके मसले को सुलझा लें, परंतु कंपनी ने कचहरी तथा पुलिस का सहारा लेकर स्थानीय लोगों की आवाज को दबा दिया। लोगों ने बैंक को पुन: शिकायत की, परंतु बैंक ने लोगों की अनदेखी कर दी जिससे साबित होता है कि स्थानीय लोगों के दमन को बैंक की सहमति थी।
विश्व बैंक की मूल विचारधारा अमीरियत को बढ़ाने की है। बैंक का मानना है कि अमीर बढ़ेंगे तो गरीबों को मिलने वाला रिसाव भी बढ़ेगा जैसे अमीर के घर मक्खन ज्यादा निकाला जाए तो गरीब को कुछ छाछ मिल ही जाती है। बैंक का मानना है कि पीपलकोटी जैसी परियोजनाओं से जितनी गरीबी बढ़ेगी उससे ज्यादा लाभ अमीरों द्वारा बांटी गई छाछ से होगा। जैसे किसान के घर, मछली, गायें, जंगल और बालू नष्ट हो जाएं, परंतु उसे मनेरगा से 100 दिन का रोजगार मिल जाए तो बैंक अति प्रसन्न होगा, क्योंकि मनेरगा से ‘अति गरीबी’ नियंत्रण में आएगी। बैंक को इस बात से कुछ लेना-देना नहीं है कि समृद्ध किसान गरीब हो जाएंगे। ध्यान दें कि बैंक के अध्यक्ष जिम यांग किम ने 2030 तक विश्व में ‘अति गरीबी’ के उन्मूलन का लक्ष्य रखा है। उन्होंने गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य नहीं रखा है, क्योंकि वह जानते हैं कि बैंक के कार्यकलापों से गरीबी तो बढ़ेगी ही। बैंक के लिए अपेक्षाकृत समृद्ध लोगों को गरीब बनाना एक सार्थक प्रक्रिया है, क्योंकि उनके गरीब बनने से बड़ी कंपनियों को भारी लाभ होता है और इनसे टैक्स वसूल करके अति गरीबी को दूर किया जा सकता है। बैंक की नीति है कि कक्षा दो में पढ़ने वाले बच्चे को भी कक्षा एक में भर्ती करा दो जिससे गांव के सभी बच्चों को कक्षा एक में भर्ती किया जा सके।
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपने संबोधन में यह भी कहा कि विश्व बैंक को ‘ईमानदार ब्रोकर, संयोजक तथा सलाहकार’ की भूमिका निर्वाह करनी चाहिए। ऐसा करना बहुत ही घातक होगा। बैंक के हाथ में कमान देने का अर्थ होगा कि किसान मरेगा और मनरेगा बढ़ेगा। व्यक्ति को डॉक्टर परख कर चयनित करना चाहिए। जिस डॉक्टर के नुस्खे के नाम पर गरीबी बढ़ाने तथा मानवाधिकारों के हनन का वैश्विक रिकार्ड हो ऐसे डॉक्टर की क्या सार्थकता है?
ब्लूमबर्ग की रपट के अनुसार वर्तमान में प्रति वर्ष 100 हजार करोड़ रुपये का औद्योगिक देशों से विकासशील देशों की ओर बहाव हो रहा है। इसमें पूंजी निवेश तथा दान में दी गई रकम शामिल है। इसकी तुलना में विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2013 में दिए गए नए लोन मात्र 35 करोड़ रुपये थे जो कि निजी पूंजी के बहाव के सामने ऊंट के मुंह में जीरा के समान थे। वित्तमंत्री ने अपने संबोधन में भी स्वीकार किया कि निजी पूंजी निवेश तथा प्रवासियों द्वारा भेजे गए रेमिटेंस के सामने विश्व बैंक जैसी संस्थाओं द्वारा दिया गया ऋण बहुत कम है। हम इस छोटी रकम को हासिल करने के प्रयास में अपनी आर्थिक नीतियों को अनायास ही गरीब विरोधी बना रहे है। इंदिरा गांधी ने फोर्ड फाउंडेशन को देश से बाहर कर दिया था। समय आ गया है कि विश्व बैंक को देश से बाहर कर दिया जाए जिससे देश की जनता को कुछ सुकून मिले।(DJ)
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

खतरनाक स्तर पर मोबाइल रेडिएशन (शशांक द्विवेदी)

मोबाइल के इस्तेमाल से स्वास्य पर बुरे प्रभाव पड़ने को लेकर देश-दुनिया में जारी बहस के बीच केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय 16 वैज्ञानिक संस्थानों से मोबाइल फोन तरंगों के स्वास्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर स्टडी कराने जा रहा है। सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) के अनुसार 2011 में आए अंतरमंत्रालय समिति के एक निर्देश के बाद पहली बार केंद्र सरकार व्यापक स्तर पर यह स्टडी कराने जा रही है । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग से सहयोग देने के लिए संस्थानों से मिले परियोजना प्रस्तावों का चुनाव कर लिया गया है। सीओएआई ने बताया कि अध्ययन में प्रमुखत: विद्युत चुंबकीय क्षेत्र का प्रभाव, मस्तिष्क पर उसका प्रभाव, जैव रसायनिक अध्ययन, प्रजनन पैटर्न, पशु और मानव मॉडल की तुलना और उपचारात्मक कदम जैसे विषयों पर अध्ययन किया जाएगा। इसी विषय पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) दिल्ली में 4,500 लोगों के लक्षित समूह के साथ अध्ययन कर रहा है और मुंबई में टाटा मेमोरियल सेंटर अध्ययन कर रहा है।वैज्ञानिक शोधपत्रिका ‘‘एंटीऑक्सिडेंट्स एंड रिडॉक्स सिग्निलंग’ में प्रकाशित ताजा अध्ययन से पता चला है कि मोबाइल फोन के अत्यधिक इस्तेमाल से कोशिकाओं में तनाव पैदा होता है, जो कोशिकीय एवं अनुवांशिक उत्परिवर्तन से संबद्ध है। इसके कारण कैंसर का खतरा होता है। मोबाइल फोन के अधिक इस्तेमाल से कोशिकाओं में उत्पन्न होने वाला विशेष तनाव (ऑक्सिडेटिव स्ट्रेस) डीएनए सहित मानव कोशिका के सभी अवयव नष्ट कर देता है। ऐसा विषाक्त पराक्साइड व स्वतंत्र कण विकसित होने के कारण होता है। तुलनात्मक अध्ययन में पाया गया कि मोबाइल फोन का अत्यधिक इस्तेमाल करने वालों के लार में ऑक्सिडेटिव स्ट्रेस की उपस्थिति के संकेत कहीं अधिक हैं।शोध के अनुसार मोबाइल रेडिएशन से लंबे समय के बाद प्रजनन क्षमता में कमी, कैंसर, ब्रेन ट्यूमर और मिस-कैरेज की आशंका भी हो सकती है। हमारे शरीर और दिमाग में मौजूद पानी धीरे-धीरे बॉडी रेडिएशन को अब्जॉर्ब करता है और सेहत के लिए नुकसानदेह होता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल से कैंसर हो सकता है। हर दिन आधे घंटे या उससे ज्यादा मोबाइल के इस्तेमाल पर 8-10 साल में ब्रेन ट्यूमर की आशंका 200-400 फीसद तक बढ़ जाती है। मोबाइल रेडिएशन मोबाइल टावर और मोबाइल फोन दोनों वजह से होता है। टावर से सिग्नल, सिग्नल से फोन और फोन से आवाज आने तक की पूरी प्रक्रिया रेडियेशन पर आधारित है। मोबाइल से नुकसानदेह रेडियेशन की तरंगें तेजी से निकलती हैं। डिपार्टमेंट ऑफ टेली कम्युनिकेशन ने टावर लगाने के कुछ पैमाने बनाए हैं, जिन्हें अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है। नगरों महानगरों में एक ही छत पर दस तक टॉवर मिल जाएंगे। कई ऊंची मीनारों के बीच में घिरे हैं जबकि ये इलाके की सबसे ऊंची मीनार पर या आबादी से बाहर लगे होने चाहिए। अरसे से मोबाइल फोन रेडियेशन व टावर्स पर रिसर्च कर रही साइंटिस्ट डेवरा ली डेविस के अनुसार भारत में मोबाइल टावर्स व रेडियेशंस की स्थिति भयावह है। यहां कंपनियां स्कूल भवान व गांवों में रिहायशी इलाकों में भी टावर लगा रहीं हैं। मोबाइल टावर के 300 मीटर एरिया में सबसे ज्यादा रेडिएशन होता है। ऐंटेना के सामनेवाले हिस्से में सबसे ज्यादा तरंगें निकलती हैं। जाहिर है, पीछे और नीचे के मुकाबले सामने की ओर नुकसान ज्यादा होता है। मोबाइल टावर से होनेवाले नुकसान में यह बात भी अहमियत रखती है कि घर टावर पर लगे ऐंटेना के सामने है या पीछे। इसी तरह दूरी भी बहुत अहम है। टावर के एक मीटर के एरिया में 100 गुना ज्यादा रेडिएशन होता है। टावर पर जितने ज्यादा ऐंटेना लगे होंगे, रेडिएशन भी उतना ज्यादा होगा।मोबाइल पर इंटरनेट सर्फिंग के दौरान रेडिएशन होता है इसलिए इससे बचना चाहिए। मोबाइल रेडियेशन से कुछ हद तक बचाव के लिए कम एसएआर संख्या वाला मोबाइल खरीदें, क्योंकि इसमें रेडिएशन का खतरा कम होता है। यह संख्या मोबाइल फोन कंपनी की वेबसाइट या फोन के यूजर मैनुअल में छपी होती है। कुछ कंपनियां एसएआर संख्या का खुलासा नहीं करतीं जो गलत है इसलिए मोबाइल खरीदते समय एसएआर संख्या पर जरूर ध्यान दें। एसएआर संख्या का संबंध उस ऊर्जा से है, जो मोबाइल के इस्तेमाल के वक्त इंसान का शरीर सोखता है। मतलब जिस मोबाइल की एसएआर संख्या जितनी ज्यादा होगी, वह शरीर के लिए उतना ही ज्यादा नुकसानदेह होगा। अभी तक हैंडसेट्स में रेडिएशन के यूरोपीय मानकों का पालन होता है। इनके मुताबिक हैंडसेट का एसएआर लेवल 2 वॉट प्रति किलो से ज्यादा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। लेकिन एक्सपर्ट इस मानक को सही नहीं मानते हैं। इसके पीछे दलील है कि ये मानक भारत जैसे गर्म मुल्क के लिए मुफीद नहीं हो सकते। इसके अलावा, भारतीयों में यूरोपीय लोगों के मुकाबले कम बॉडी फैट होता है। इस वजह से हम पर रेडियो फ्रीक्वेंसी का ज्यादा घातक असर पड़ता है। हालांकि, केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित गाइडलाइंस में यह सीमा 1.6 वॉट प्रति किग्राकर दी गई है, जोकि अमेरिकी स्टैंर्डड है।रेडियेशन स्टैंर्डड की बात करें तो रूस, इटली, पोलैंड जैसे देशों ने आज भी इन्हें भारत से कम रखा है। भारत में तंबाकू, असुरक्षित यौन सबंध, एक्सरे व प्लास्टिक के खिलौनों से होने वाली हेल्थ प्रॉब्लम से लिए तो कैंपेन है पर मोबाइल यूजर्स के लिए कोई सर्तकता अभियान नहीं है जबकि पिछले कुछ सालों में मोबाइल फोन ने हर घर में जगह बना ली है। मोबाइल तरंगों पर हुए कुछ शोधों के अनुसार सुबह-सुबह चहचहाने वाली चिड़िया गोरैया शहरों से धीरे-धीरे इन्हीं रेडियेशन के कारण खत्म हो रही हैं। कुछ शोध यह भी साबित करते है कि मोबाइल रेडियेशन युवाओं में नपुंसकता, ब्रेस्ट कैंसर और दिमाग में कम होते ब्रेन सेल्स का कारण है। यह रेडियेशन पांच साल तक के बच्चों लिए बेहद घातक होता है। मोबाइल से निकलने वाले रेडियेशन से कई अनचाही और अनजानी बीमारियां पनप सकती है। यह जान लें कि फोन एक खिलौना नहीं बल्कि यंत्र है, जिसे बच्चों से जितना दूर रखेंगे उनके लिए उतना ही अच्छा है।बहरहाल, मोबाइल फोन और गांव शहर में लगे टावर के रेडियेशन को लेकर सरकार को अब संजीदगी दिखानी पड़ेगी। क्योंकि यह बड़े पैमाने पर मानव स्वास्य से जुड़ा मामला है जो धीमे जहर की तरह धीरे धीरे लोगों को बीमार कर रहा है । देश भर में आबादी के बीच लगे मोबाइल टावरों को तत्काल हटाने का काम भी होना चाहिए और इस दिशा में लोगों के बीच जन जागरूकता अभियान चलाने की बड़ी जरूरत है ।(RS)

आपदा का मुकाबला (प्रो. संतोष कुमार )

लगभग आधे भारत के साथ-साथ हिमालयी राष्ट्र नेपाल और उसके आसपास के देशों में आए भूकंप ने पूरे क्षेत्र को हिला कर रख दिया है। इस क्षेत्र में भूकंप की घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं, लेकिन इस बार भूकंप रिक्टर स्केल पर 7.9 प्रतिशत की तीव्रता लेकर आएगा, इसकी किसी ने शायद ही कल्पना की हो। यह एक बड़े खतरे का संकेत भी है। नेपाल में भूकंप ने बड़ी तबाही के निशान छोड़े हैं। भारत ने जिस तत्परता से नेपाल के लिए मदद का हाथ आगे बढ़ाया और आनन-फानन राहत एवं बचाव कार्यो की शुरुआत कर दी वह उल्लेखनीय भी है और आपदाओं से निपटने में भारत की बेहतर होती तैयारी का एक और प्रमाण भी। पूरे हिमालयी क्षेत्र में भूकंपों का यदि इतिहास देखें तो छोटी तीव्रता के 200-250 और सात अथवा उससे अधिक तीव्रता के पांच-छह बड़े भूकंप आ चुके हैं। इस तरह से आने वाले भूकंपों का चक्र बताता है कि पचास, सौ और डेढ़ सौ वर्ष के अंतराल में बड़े भूकंपों का दोहराव होता रहता है। इस आधार पर देखा जाए तो हिमालयी क्षेत्र में और अधिक बड़े भूकंप के आने की आशंका अभी भी बनी हुई है, लेकिन यह कब आएगा, कोई नहीं जानता और न ही हमारे पास अभी तक कोई ऐसी तकनीक विकसित हो सकी है जिससे भूकंपों का पूर्व आकलन किया जा सके अथवा उसकी भविष्यवाणी की जा सके। इसके लिए अभी भी हम जानवरों की हरकत, सांपों की गतिविधि, चिड़ियों के व्यवहार, मौसम में बदलाव और अनुमानों पर निर्भर हैं।
इस संदर्भ में एक अच्छी बात यह हुई है कि पूरे विश्व के कुल 184 देशों ने मार्च के महीने में जापान में एक बैठक की और भूकंप समेत आने वाली किसी भी आपदा के लिए मिलजुलकर काम करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई। इस बैठक में यह बात उभरकर सामने आई कि दक्षिण एशिया क्षेत्र में कभी भी कोई बड़ी आपदा आ सकती है। ऐसी किसी स्थिति में जान-माल की संभावना कम से कम हो और स्थितियों से प्रभावी रूप से निपटा जा सके, इसके लिए सभी देशों ने मिलजुलकर काम करने और सहयोग करने की बात कही है। यह अच्छा संकेत है, क्योंकि अभी तक वैश्विक स्तर पर आपदाओं को लेकर अभी तक ऐसे किसी सहयोग और संगठन का अभाव था। इस अभाव को दूर करने की जरूरत एक लंबे अर्से से महसूस की जा रही थी।
यदि हम नेपाल के भूकंप के संदर्भ में विचार करें तो वहां पहले आए भूकंप का केंद्र जहां राजधानी काठमांडू की उत्तर-पश्चिम दिशा में लामजुंग में रहा वहीं इसके अगले दिन आए भूकंप का केंद्र काठमांडू से 80 किमी पूर्व कोदारी में रहा। बाद में आने वाले भूकंप की तीव्रता प्राय: कम होती है, जिसे आफ्टर शॉक कहा जाता है, लेकिन कोदारी में आए भूकंप की तीव्रता 6.9 आंकी गई, जो अप्रत्याशित ही कही जाएगी। हालिया भूकंप से भले ही बड़ी तबाही नेपाल में हुई, लेकिन इसके झटके भारत, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, चीन आदि अन्य दक्षिण एशियाई देशों में भी महसूस किए गए। भारत में बिहार और उत्तर प्रदेश अधिक प्रभावित हुए और कई लोगों के मरने की खबरें हैं। इस त्रसदी से हुए नुकसान का सही-सही आकलन अभी तक नहीं हो सका है।
भारत ने जिस तत्परता से नेपाल के लिए मदद का हाथ आगे बढ़ाया और आनन-फानन राहत एवं बचाव कार्यो की शुरुआत कर दी वह उल्लेखनीय भी है और आपदाओं से निपटने में भारत की बेहतर होती तैयारी का एक और प्रमाण भी। आपदा की स्थितियों से निपटने में भारत दिन-प्रतिदिन बेहतर हो रहा है। इसे हम हुदहुद, केदारनाथ, कश्मीर की बाढ़ जैसी आपदाओं के समय देख भी चुके हैं। आपदा से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एनडीआरएफ (राष्ट्रीय आपदा कार्रवाई बल) और राज्य के स्तर पर एसडीआरएफ के गठन ने बहुत ही अच्छे नतीजे दिए हैं। केंद्र और राज्य सरकारें आपदा की किसी भी स्थिति में मिलजुलकर कार्य करती हैं, लेकिन कुछ राज्यों ने अभी तक एसडीआरएफ का गठन नहीं किया है। वर्तमान संकट को देखते यह अपेक्षित है कि सभी राज्य सरकारें केंद्र के साथ मिलजुलकर बचाव और राहत के कार्य में शामिल हों। ओडिशा में आए तूफान से जिस तरह निपटा गया, उसकी सराहना पूरी दुनिया में हुई। ध्यान देने योग्य है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने इसके लिए भले ही पर्याप्त राशि मुहैया कराई है, लेकिन इसमें और अधिक बढ़ोतरी की जरूरत है ताकि प्रभावित लोगों को बचाव और राहत कार्य के बाद एक निर्धारित समयसीमा में पुनर्वास उपलब्ध कराया जा सके। आपदा की प्रक्रिया कभी खत्म नहीं होती इसलिए इससे निपटने के लिए हमें सदैव तत्पर रहना होगा, क्योंकि कभी भी और कहीं भी कोई आपदा हमारा इम्तिहान ले सकती है।
भारत में सघन आबादी वाले कई क्षेत्र, दिल्ली आदि ऐसे हैं जहां यदि कभी इतनी अधिक तीव्रता वाला भूकंप आए तो स्थिति को संभालना काफी मुश्किल होगा, क्योंकि यहां पहले से बनी तमाम इमारतें जहां जर्जर और कमजोर स्थिति में हैं वहीं नई इमारतों को बनाते समय इसमें पर्याप्त भूकंपरोधी मानकों का अनुपालन शायद ही किया जाता है। इसके लिए हमें पुराने भवनों का सर्वे करना होगा और यह जानना होगा कि उनमें कितने रहने योग्य हैं। आपदा के समय चलाए जाने वाले राहत कार्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि हम पहले से ही अपनी तैयारी मजबूत रखें। ऐसा करने से बड़े पैमाने पर लोगों के जीवन की रक्षा की जा सकेगी। हमें अपनी तैयारी को दीर्घकालिक और तात्कालिक रूप से विभाजित करके देखना होगा। फिलहाल संकट से निपटने के लिए एक अधिक व्यापक रणनीति तैयार की गई है जिसमें सार्क देशों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर और स्थानीय स्तर पर आपदा से निपटने की योजना है। आगामी 15 वर्षो तक इसी पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
भूकंप से संबंधित शोध के मुताबिक बड़े भूकंपों के आने का 50 साल का चक्र पूरा हो रहा है, इसलिए अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में हमें विशेष सतर्कता और तैयारी रखनी होगी। इसके लिए हमें भूकंप के बाद के प्रभावों से अधिक असरकारक तरीके से निपटना होगा, जैसा कि 2001 के बाद गुजरात में हुआ। इसके लिए सड़कों, भवनों, बुनियादी सुविधाओं आदि पर विशेष ध्यान देना होगा। प्राकृतिक और मानवीय गतिविधियों के कारण हिमालयी क्षेत्र में भूकंप की संभावना बनी हुई है। धरती के अंदर कुछ ऐसे बदलाव हो रहे हैं जो भूकंप सरीखी त्रसदी को जन्म देते हैं। हमें इन प्रभावों को समझना होगा और उनके अनुरूप अपनी तैयारी करनी होगी। फिलहाल हमारे सामने नेपाल और भूकंप प्रभावित अपने क्षेत्रों में राहत एवं बचाव कार्य को सही तरह पूरा करने की चुनौती है। भारत ने पिछले कुछ वर्षो में अपने आपदा प्रबंधन का कौशल दुनिया को दिखाया है। यह सिलसिला आगे भी इसी तरह जारी रहना चाहिए। एक देश की ताकत की पहचान इससे भी होती है कि वह आपदाओं का सामना किस तरह करता है।
(लेखक सार्क आपदा प्रबंधन केंद्र के निदेशक हैं)

Sunday 26 April 2015

भारत में महिलाएँ

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भारत में महिलाओं की स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है। प्राचीन काल में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल के निम्न स्तरीय जीवन और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक, भारत में महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है। आधुनिक भारत में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोक सभा अध्यक्ष, प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे शीर्ष पदों पर आसीन हुई हैं।
उनकी स्थिति में लगातार परिवर्तन को देश में महिलाओं द्वारा हासिल उपलब्धियों के माध्यम से उजागर किया जा सकता है:
1879: जॉन इलियट ड्रिंकवाटर बिथयून ने 1849 में बिथयून स्कूल स्थापित किया, जो 1879 में बिथयून कॉलेज बनने के साथ भारत का पहला महिला कॉलेज बन गया।
1883: चंद्रमुखी बसु और कादम्बिनी गांगुली ब्रिटिश साम्राज्य और भारत में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने वाली पहली महिलायें बनीं.
1886: कादम्बिनी गांगुली और आनंदी गोपाल जोशी पश्चिमी दवाओं में प्रशिक्षित होने वाली भारत की पहली महिलायें बनीं.
1905: कार चलाने वाली पहली भारतीय महिला सुज़ान आरडी टाटा थीं।[30]
1916: पहला महिला विश्वविद्यालय, एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना समाज सुधारक धोंडो केशव कर्वे द्वारा केवल पांच छात्रों के साथ 2 जून 1916 को की गई।
1917: एनी बेसेंट भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली अध्यक्ष महिला बनीं.
1919: पंडिता रामाबाई, अपनी प्रतिष्ठित समाज सेवा के कारण ब्रिटिश राज द्वारा कैसर-ए-हिंद सम्मान प्राप्त करने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं.
1925: सरोजिनी नायडू भारतीय मूल की पहली महिला थीं जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं.
1927: अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना की गई।
1944: आसिमा चटर्जी ऐसी पहली भारतीय महिला थीं जिन्हें किसी भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया।
1947: 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता के बाद, सरोजिनी नायडू संयुक्त प्रदेशों की राज्यपाल बनीं और इस तरह वे भारत की पहली महिला राज्यपाल बनीं.
1951: डेक्कन एयरवेज की प्रेम माथुर प्रथम भारतीय महिला व्यावसायिक पायलट बनीं.
1953: विजय लक्ष्मी पंडित यूनाइटेड नेशंस जनरल एसेम्बली की पहली महिला (और पहली भारतीय) अध्यक्ष बनीं.
1959: अन्ना चान्डी, किसी उच्च न्यायालय (केरल उच्च न्यायालय) की पहली भारतीय महिला जज बनीं.[31]
1963: सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, किसी भी भारतीय राज्य में यह पद सँभालने वाली वे पहली महिला थीं।
1966: कैप्टेन दुर्गा बनर्जी सरकारी एयरलाइन्स, भारतीय एयरलाइंस, की पहली भारतीय महिला पायलट बनीं.
1966: कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने समुदाय नेतृत्व के लिए रेमन मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त किया।
1966: इंदिरा गाँधी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं.
1970: कमलजीत संधू एशियन गेम्स में गोल्ड जीतने वाली पहली भारतीय महिला थीं।
1972: किरण बेदी भारतीय पुलिस सेवा (इंडियन पुलिस सर्विस) में भर्ती होने वाली पहली महिला थीं।[32]
1979: मदर टेरेसा ने नोबेल शान्ति पुरस्कार प्राप्त किया और यह सम्मान प्राप्त करने वाली प्रथम भारतीय महिला नागरिक बनीं.
1984: 23 मई को, बचेन्द्री पाल माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला बनीं.
1989: न्यायमूर्ति एम. फातिमा बीवी भारत के उच्चतम न्यायालय की पहली महिला जज बनीं.[33]
1997: कल्पना चावला, भारत में जन्मी ऐसी प्रथम महिला थीं जो अंतरिक्ष में गयीं.[34]
1992: प्रिया झिंगन भारतीय थलसेना में भर्ती होने वाली पहली महिला कैडेट थीं (6 मार्च 1993 को उन्हें कमीशन किया गया)[35]
1994: हरिता कौर देओल भारतीय वायु सेना में अकेले जहाज उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला पायलट बनी.
2000: कर्णम मल्लेश्वरी ओलिंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं (सिडनी में 2000 के समर ओलिंपिक में कांस्य पदक)
2002: लक्ष्मी सहगल भारतीय राष्ट्रपति पद के लिए खड़ी होने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं.
2004: पुनीता अरोड़ा, भारतीय थलसेना में लेफ्टिनेंट जनरल के सर्वोच्च पद तक पहुँचने वाली प्रथम भारतीय महिला बनीं.
2007: प्रतिभा पाटिल भारत की प्रथम भारतीय महिला राष्ट्रपति बनीं.
2009: मीरा कुमार भारतीय संसद के निचले सदन, लोक सभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं.
2014: सुमित्रा महाजन भारतीय संसद के निचले सदन, लोक सभा की दूसरी महिला अध्यक्ष बनीं.

Saturday 25 April 2015

भारत और फ्रांस : वसंत ऋतु (भारतीय विदेश मंत्रालय की साईट से आभार सहित ) लेखक : मनीष चंद

पेरिस में इस समय वसंतु ऋतु है और भारत – फ्रांस संबंधों में एक नई उछाल, तरंग एवं चंचलता दिख रही है। अप्रैल में पेरिस धरती पर स्‍वर्ग जैसा दिखता है तथा यह यूरोप की तथा इस महाद्वीप की शक्तिशाली अर्थव्‍यवस्‍था की प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की पहली यात्रा का पहला पड़ाव है। यूरोपीय महाद्वीप में फ्रांस भारत का प्रमुख सामरिक साझेदार है तथा दोनों देशों के बीच सामरिक साझेदारी का निर्माण 1998 में हुआ तथा निरंतर इसके तहत नई सीमाओं को शामिल किया गया है।
बहुआयामी संबंधों की खासियत यह है कि उच्‍च स्‍तर पर अक्‍सर यात्राएं होती हैं तथा एक – दूसरे की कंपनी में दुर्लभ सामरिक सहजता की अनुभूति होती है। फरवरी, 2013 में, फ्रांस के राष्‍ट्रपति फ्रांकोस ओलांद ने द्विपक्षीय यात्रा के लिए एशिया में पहले देश के रूप में भारत का चुना जो इस बात को रेखांकित करता है कि पेरिस के सामरिक कैलकुलस में नई दिल्‍ली का विशेष स्‍थान है। सुधार की सोच रखने वाले भारत के प्रधानमंत्री ने भारत गाथा के बारे में फ्रांस में उत्‍साह की एक नई तरंग पैदा की है। इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं है कि राष्‍ट्रपति ओलांद ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में श्री मोदी के शपथ – ग्रहण के कुछ सप्‍ताह के अंदर पिछले साल जुलाई में अपने विदेश मंत्री लॉरेंट फेबियस को नई दिल्‍ली भेजा जो इस बात का संकेत है कि भारत में नए वसंत को लेकर पेरिस में आशाएं जगी हैं। और अब श्री मोदी फ्रांस की बहु-शहर यात्रा के लिए प्रस्‍थान कर रहे हैं (9 से 12 अप्रैल) जिसके तहत पेरिस, टुलुस और न्‍यूव चैपल शामिल हैं, जो प्रथम विश्‍व युद्ध का प्रसिद्ध युद्ध स्‍थल है, जो भारत – फ्रांस संबंधों के बहुरंगी विकास पथ को दर्शाएगा। प्रतीकात्‍मक भंगिमाओं की दृष्टि से यह यात्रा बहुत महत्‍वपूर्ण होगी जैसे कि प्रधानमंत्री जी फ्रांस के राष्‍ट्रपति के साथ सीएन में नौकायन करेंगे तथा उम्‍मीद है कि इससे अनेक सारवान परिणाम प्राप्‍त होंगे जिनका भारत – फ्रांस संबंधों के भावी विकास पथ से सरोकार होगा।
(भारत की अपनी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री से मुलाकात करते हुए फ्रांस के विदेश मंत्री लॉरेंट फेबियस)मेज पर क्‍या है?
जब प्रधानमंत्री मोदी 10 अप्रैल को पेरिस में फ्रांस के राष्‍ट्रपति के साथ वार्ता के लिए बैठेंगे, तो वार्ता के लिए स्‍वादिष्‍ट व्‍यंजन के अलावा टेबल बहुत कुछ होगा, जिसके लिए फ्रांस विख्‍यात है। मेनू भूखवर्धक होगा तथा विविधतापूर्ण होगा – व्‍यापार एवं निवेश, परमाणु ऊर्जा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, रक्षा सौदे तथा अंतरिक्ष आदि। भारत – फ्रांस संबंधों का स्‍तर ऊपर उठाने के लिए उन्‍होंने एक महत्‍वाकांक्षी एजेंडा तैयार किया है।
भारत और फ्रांस के नेताओं ने पहले ही निजी संबंध का निर्माण कर लिया है; प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल नवंबर में ब्रिसबेन में आस्‍ट्रेलिया में जी-20 शिखर बैठक के दौरान अतिरिक्‍त समय में फ्रांस के राष्‍ट्रपति से मुलाकात की थी तथा द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए अपनी इच्‍छा से अवगत कराया था।
आर्थिक राजनय
आर्थिक राजनय एजेंडा में काफी ऊपर होगा। फ्रांस, जर्मनी और कनाडा की अपनी यात्रा से पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने ट्विट किया है : ''मेरी फ्रांस, जर्मनी और कनाडा यात्रा भारत के आर्थिक एजेंडा के समर्थन तथा हमारे युवाओं के लिए नौकरियों के सृजन के इर्द-गिर्द केंद्रित है। मैं भारत – फ्रांस आर्थिक सहयोग के सुदृढ़ीकरण पर चर्चा करूँगा तथा पेरिस के बाहर कुछ हाई टेक औद्योगिक यूनिटों को देखने जाऊँगा।'' आर्थिक संबंध बढ़ रहे हैं तथा द्विपक्षीय व्‍यापार सात बिलियन अमरीकी डालर से अधिक हो गया है। फ्रांस की कंपनियां भारत की विकास संबंधी संभावनाओं पर दांव लगा रही हैं तथा एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था तथा विश्‍व की सबसे तेजी से विकास कर रही अर्थव्‍यवस्‍थाओं में से एक में और धन लगाने की योजना बना रही हैं। भारत में फ्रांसीसी निवेश पहले ही बढ़कर 10 बिलियन अमरीकी डालर के आसपास पहुंच गया है। और 700 से अधिक फ्रांसीसी कंपनियां भारत में कारोबार कर रही हैं तथा नौकरियों को सृजन कर रही हैं और नवाचार में नए कीर्तिमान स्‍थापित कर रही हैं।
मेक इन इंडिया तथा स्‍मार्ट शहर
एक अन्‍य क्षेत्र जहां भारत फ्रांसीसी निवेश एवं विशेषज्ञता प्राप्‍त करना चाहेगा वह स्‍मार्ट शहरों तथा शहरी अवसंरचना का क्षेत्र है। फ्रांस में भारत के राजदूत श्री राकेश सूद ने एक साक्षात्‍कार में wwww.indiawrites.org को बताया ''शहरी आयोजना, शहरी अवसंरचना, शहरी परिवहन, जल प्रबंधन, सीवेज प्रबंधन, सार्वजनिक स्‍वच्‍छता के क्षेत्र में वैश्विक लीडर में से कुछ फ्रांसीसी कंपनियां हैं तथा यह भारत - फ्रांस सहयोग का एक महत्‍वपूर्ण क्षेत्र होना चाहिए।''
जब श्री मोदी टुलुस, जो एयरबस उद्योग का केंद्र है, में होंगे तब ‘मेक इन इंडिया’ अभियान पर फोकस होगा जहां वह भारत के नागर विमानन की अवसंरचना को सुदृढ़ करने तथा देश के उभरते सैन्‍य उद्योग परिसर को सुदृढ़ करने के लिए फ्रांस की प्रौद्योगिकी एवं नवाचार प्राप्‍त करने का प्रयास करेंगे।
शांति के लिए एटम / परमाणु सौदा
असैन्‍य परमाणु सहयोग को आगे बढ़ाना एजेंडा में काफी ऊपर होगा। सितंबर, 2008 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह द्वारा छूट के बाद भारत के साथ द्विपक्षीय असैन्‍य परमाणु संधि पर हस्‍ताक्षर करने वाला फ्रांस पहला देश है। फ्रांस, जो अपनी ऊर्जा संबंधी अधिकांश मांग के लिए परमाणु ऊर्जा पर निर्भर है, असैन्‍य परमाणु ऊर्जा के लिए भारत की तलाश में भी विशेष है क्‍योंकि इसने उस समय तारापुर परमाणु संयंत्र को परमाणु ईंधन की आपूर्ति की है जब विश्‍व की बड़ी अर्थव्‍यवस्‍थाओं में परमाणु परीक्षण के लिए भारत पर प्रतिबंध लगाया था। अब भारत – फ्रांस असैन्‍य परमाणु सहयोग का सार्थक होना तय है क्‍योंकि दोनों पक्ष महाराष्‍ट्र के जैतापुर में 6 परमाणु रिएक्‍टर स्‍थापित करने के लिए फ्रांस के परमाणु जाइंट अरेवा के लिए प्रशासनिक व्‍यवस्‍थाओं को अंतिम रूप देने के लिए कुछ बकाया मुद्दों को हल करने के लिए कृत संकल्‍प हैं।
(भारत की अपनी यात्रा के दौरान विदेश मंत्री से मुलाकात करते हुए फ्रांस के विदेश मंत्री लॉरेंट फेबियस)अंतरिक्ष साझेदारी दर्शाती है कि वस्‍तुत: आकाश सीमित है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और इसके फ्रांसीसी सम‍कक्ष सेंटर नेशनल डी इटुडस स्‍पेटिएल (सी एन ई एस) दशकों से अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी पर आपस में सहयोग कर रहे हैं तथा संयुक्‍त रूप से उपग्रह छोड़ रहे हैं। इसरो एवं सी एन ई एस ने संयुक्‍त रूप से ए आर जी ओ एस और अल्टिका (सरल) के लिए उपग्रह का विकास किया जिस पर समुद्री सतह की तुंगता के अध्‍ययन के लिए एक रडार अल्‍टीमीटर लगा है तथा महासागर उछाल एवं मौसम डाटा केंद्र (ए आर जी ओ एस) से डाटा एकत्र करने के लिए डाटा संग्रहण प्‍लेटफार्म हैं। यह बहुत उपयोगी साझेदारी है : सी एन ई एस ने पेलोड प्रदान किया तथा इसरो पी एस एल वी का प्रयोग करके लांच करने और सेटेलाइट प्‍लेटफार्म एवं आपरेशन के लिए जिम्‍मेदार है। एकीकृत सरल उपग्रह को 25 फरवरी, 2013 को छोड़ा गया।
रक्षा संबंध
रक्षा सहयोग बढ़ती सामरिक साझेदारी का आधार बना हुआ है। दोनों देशों ने शक्ति नामक संयुक्‍त सैन्‍य अभ्‍यास के तीन संस्‍करणों तथा भारत – फ्रांस हवाई अभ्‍यास गरूड़ के 5 संस्‍करणों का आयोजन किया है। भारत – फ्रांस नौसैन्‍य अभ्‍यास वरूण का अयोजन 19 से 22 जुलाई, 2012 के दौरान टौलोन बंदरगाह पर भूमध्‍य सागर में हुआ। फ्रांस भारत को अधुनातन हथियारों की आपूर्ति करने वाले शीर्ष देशों में शामिल है। पेरिस में वार्ता के दौरान, राफेल एयरक्राफ्ट की खरीद पर कुछ चर्चा की उम्‍मीद की जा सकती है जिसे सभी रक्षा सौदों की जननी की संज्ञा दी जा रही है।
थिंक स्‍ट्रटेजिक
वैश्विक तापन तथा आतंकवाद की खिलाफत जैसी नई चुनौतियों की पृष्‍ठभूमि में भारत अपनी मजबूत सामरिक साझेदारी को गहन एवं विविध करना चाहेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने उस समय शीघ्रता से फ्रांस के राष्‍ट्रपति को कॉल किया जब पेरिस में आतंकियों द्वारा एक फ्रांसीसी व्‍यंग्‍यात्‍मक साप्‍ताहिक को निशाना बनाया गया तथा आतंकवाद की खिलाफत में सहयोग के लिए भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि की। दोनों देश आतंकवाद की खिलाफत के क्षेत्र में आसूचना की साझेदारी तेज करना चाहेंगे।
सांस्‍कृतिक दृष्टि से, भारत और फ्रांस आपस में जुड़े हैं तथा रिश्‍ता बहुत सुंदर है। यह मन का मिलन है तथा सहयोग के बढ़ते क्षेत्रों में से एक है। लगभग 3000 भारतीय छात्र फ्रांस में पढ़ रहे हैं। भारत और फ्रांस के विश्‍वविद्यालयों एवं निजी संस्‍थाओं के बीच लगभग 400 एम ओ यू पर हस्‍ताक्षर किए गए हैं। पेरिस, जो यूरोप की सांस्‍कृतिक राजधानी है, भारतीय पर्यटकों के लिए स्‍वप्निल गंतव्‍य बना हुआ है तथा इंडिया स्‍टोरी को फ्रांस में अच्‍छे स्रोता मिल रहे हैं। फ्रांस में बालिवुड की धूम मची हुई है तथा भारत में फ्रांसीसी सिनेमा के समर्पित अनुयायी हैं। पिछले कुछ वर्षों में आयोजित नमस्‍ते फ्रांस और बोंजोर इंडिया महोत्‍सव में यह सांस्‍कृतिक चमक और तेज हुई है। अप्रैल में पेरिस एक निरापद स्‍थल के रूप में दिखता है तथा यह इस महत्‍वपूर्ण सामरिक साझेदारी के लिए नए सपनों के खिलने का समय है तथा गतिशील एवं विकासशील भारत – फ्रांस संबंधों के लिए नए अवसर तैयार होंगे।
(मनीष चंद इंडिया राइट्स नेटवर्क, www.indiawrites.org, जो अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों तथा इंडिया स्‍टोरी पर केंद्रित एक ई-मैग्‍जीन – जर्नल है, के मुख्‍य संपादक हैं)

ये दस कदम उठाकर दिखाएं प्रभु (गुरचरण दास )

लवेके पुनर्गठन के लिए बनी उच्चस्तरीय देबराय समिति के सदस्य
गर्मी की छुटि्टयां और भारतीय रेल का अटूट संबंध रहा है। हर भारतीय मन में रेलवे को लेकर छुटि्टयों में की गई यात्रा की कोई कोई रूमानी याद जरूर होती है। आज ये रूमानी यादें धुंधला गई हैं, क्योंकि सत्तारूढ़ नेताओं ने इसके साथ निजी जागीर जैसा व्यवहार कर इसे कुचल डाला है। रेलवे भारतीय व्यवस्था का लघु रूप है- अक्षम, भ्रष्ट, राजनीतिकरण से बेजार, गैर-जरूरी स्टाफ के बोझ से चरमराती असुरक्षित सेवा।
सरकारी एकाधिकार और धन-आवंटन में राजनीति के कारण निवेश टेक्नोलॉजी के लिए पैसे की तंगी इसकी मूल समस्या है। इस कारण तो इसका विस्तार आधुनिकीकरण हो पाया, रफ्तार बढ़ पाई और यह बढ़ते देश की जरूरतें पूरी कर पाई। फिर यात्रियों की सब्सिडी का भार मालभाड़े पर डालने से यह बहुत ज्यादा बढ़ गया और ग्राहक माल ढुलाई के लिए ट्रकों की ओर मुड़ गए। लगभग सारे लोकतांत्रिक देशों ने रेलवे में सरकारी एकाधिकार की निजी भागीदारी को लाकर स्पर्द्धा को बढ़ावा दिया है। इसके बाद सभी जगह शानदार नतीजे मिले हैं। भारतीयों ने 1991 के बाद से देखा है कि एकाधिकार बुरा ही होता है। उन्होंने प्रतिस्पर्द्धा के कारण आई संचार क्रांति को देखा है। 20 साल पहले कौन सोच सकता था कि गरीब से गरीब भारतीय के पास भी फोन होगा! भारत में अब 1990 के 50 लाख की तुलना में 99 करोड़ फोन हैं। प्रतियोगिता के कारण टेलीफोन सेवाओं की कीमतें नीचे आई हैं, सेवाओं में सुधार हुआ है, इनोवेशन को बढ़ावा मिला है और भ्रष्टाचार में कमी आई है।
सौभाग्य से रेलवे के लिए अब असली उम्मीद जागी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे आधुनिक बनाने का संकल्प लिया है और सुरेश प्रभु के रूप में उनके पास रेलवे के इतिहास के सर्वाधिक कार्यकुशल और ऊर्जावान रेलमंत्री हैं। गठित की गई विभिन्न विशेषज्ञ समितियों से पता चलता है कि आगे क्या होने वाला है। इसमें नवीनतम है बिबेक देबरॉय समिति, जिसने अपनी अंतरिम रिपोर्ट ऑनलाइन जाहिर कर दी है ताकि जनता की राय ली जा सके। अन्य देशों के रेलवे संगठनों के सुधारों से मिले सबक के आधार पर ऐसे दस कदम उठाए जा सकते हैं, जो भारतीय रेल के वैभव को बहाल कर सकते हैं।
एक, जैसा कि सारे पेशेवर उपक्रमों में होता है, मालिक और प्रबंधक के बीच में दूरी बनानी होगी। यहां मालिक सरकार है, जिसका प्रतिनिधित्व रेल मंत्रालय करता है। वह रेल क्षेत्र के लिए सिर्फ नीतियां बनाए और प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दे। ट्रेनें चलाने वालों को संचालन संबंधी स्वायत्तता देनी चाहिए। भविष्य में अलग रेल बजट की जरूरत नहीं है और इसका परिवहन मंत्रालय में विलय कर दिया जाना चाहिए।
दो, भारतीय रेल को दो स्वतंत्र संगठनों में बांट दिया जाना चाहिए। दोनों का स्वामित्व सरकार के पास रहे। एक पर रेलवे ट्रैक तथा आधारभूत ढांचे की जिम्मेदारी हो और दूसरा निजी क्षेत्र के साथ स्पर्द्धा में ट्रेनों का संचालन करे। इन दोनों सार्वजनिक संगठनों के अपने बोर्ड हों, जिसमें स्वतंत्र कार्यकारी निदेशक हों। राजनीतिक मजबूरियों को देखते हुए इन संगठनों का निजीकरण ठीक नहीं होगा।
तीन, स्वंतत्र नियामक यानी रेगुलेटर की स्थापना हो ताकि रेलवे ट्रैक का निष्पक्ष इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सके। कॉमन ट्रैक पर ट्रेनें चलाने के लिए शुल्क तय कर जान-माल की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। रेग्यूलेटर सीधे संसद के प्रति जवाबदेह होगा।
चार, मालवाही और यात्री ट्रेनों को स्पर्द्धा में उतारें। निजी स्पर्द्धा को आकर्षित करने के लिए स्वतंत्र नियामक और स्वतंत्र ट्रैक संगठन का होना जरूरी है ताकि निजी क्षेत्र आश्वस्त रहे कि स्पर्द्धा निष्पक्ष होगी। पांच, भारतीय रेलवे को स्कूल, अस्पताल, प्रिंटिंग प्रेस चलाना, वॉटर बॉटलिंग करना और पुलिस बल के संचालन आदि जैसी गतिविधियों को छोड़कर सिर्फ ट्रेनों के संचालन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। रेलवे के 13 लाख कर्मचारियों में से ज्यादातर इन्हीं गतिविधियों में लगे हैं, जो संसाधनों की बर्बादी है। इससे कर्मचारियों का ध्यान भटक जाता है। छह, रेलवे की उत्पादन निर्माण इकाइयों को स्वायत्तता दीजिए ताकि उन्हें पेशेवर कंपनियों की तरह चलाया जा के। वे बाजार से पूंजी जुटा सकंे और देश-विदेश की रेल कंपनियों से बिज़नेस में स्पर्द्धा कर सकें। सात, दोनों रेल संगठनों में जनरल और डिवीजनल मैनेजरों को टेंडर जारी करने, खरीद और वित्तीय सहित सारे मामलों में अधिक स्वायत्तता दीजिए।
आठ, रेलवे के फाइनेंशियल अकाउंट्स को आधुनिक बनाना होगा ताकि बेहतर निर्णय प्रक्रिया और निवेशकों से फंड्स लेने में सहूलियत रहे। आज रेलवे कर्मचारियों के लिए मौजूदा रूट की लाभप्रदता अथवा नई परियोजना पर वास्तविक प्राप्ति का आकलन करना बहुत कठिन है। नौ, उपनगरीय और स्थानीय यात्री रेल सेवाओं को राज्य सरकारों के साथ संयुक्त उपक्रम के रूप में चलाने दीजिए। राज्यों को संघवाद की सच्ची भावना से सब्सिडी वहन करनी चाहिए। फिलहाल रेलवे इसलिए घाटे में है, क्योंकि राज्य सरकारें इसकी दरें बढ़ने देना नहीं चाहतीं।
दस, रेलवे को स्वस्थ्य व्यावसायिक उपक्रम बनाना है, तो उसे इनवेस्टमेंट बैंकों की मदद से असेट्स के उपयोग से संसाधन जुटाने होंगे। अभी रेलवे 'राजनीतिक किराये' से पीड़ित है, जिनसे इसकी संचालन लागत भी वसूल नहीं होती और यह घाटे में चली जाती है। रेलवे को सब्सिडी के लिए सरकार से भीख मांगनी पड़ती है। चूंकि सरकार के पास तो हमेशा ही तंगी रहती है, रेलवे के विस्तार आधुनिकीकरण के लिए कभी पैसा नहीं मिल पाता। किंतु यदि राजनेताओं को रेलवे के संचालन से अलग कर दिया जाए दें तो अतिरिक्त जमीन बेचकर और स्टेशनों के एयर स्पेस पर निर्माण कर, उन्हें किराए पर देकर या बेचकर संसाधन जुटाए जा सकते हैं। भारत की राजनीतिक वास्तविकताओं को देखते हुए समझदारी इसी में है कि रेलवे को निजी हाथों में सौंपा जाए, बल्कि रेल क्षेत्र में स्पर्द्धा पैदा की जाए। इससे कर्मचारी अधिक प्रेरित और जवाबदेह होंगे, जिन्हें नेताओं के हस्तक्षेप के खिलाफ संरक्षण मिलेगा। उनका बोनस लाभप्रदता से जुड़ेगा तो सरकार उनकी पेंशन की रक्षा करेगी। अब गेंद रेल मंत्री सुरेश प्रभु के पाले में है। यदि कोई ऐसा व्यक्ति है, जो ये दस कदम उठा सकता है तो वे प्रभु ही हैं। पूर्व में कई विशेषज्ञ समितियां बनी हैं, लेकिन रेलवे हमेशा उनकी सिफारिशें लागू करने से बचने में कामयाब रही। आइए, उम्मीद करें कि मोदी सरकार भारतीय जनता के हित में सही कदम उठाकर दिखाकर दिखाएगी। (DB)

कानून और अधिकार : धारा 498 ए: दहेज प्रताड़ना के खिलाफ सहारा या हथियार (वंदना शाह )

इस धारा का मतलब है पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा किया गया अत्याचार। इस धारा में यदि कोई महिला शिकायत लिखाती है तो पति को तीन साल तक की जेल हो सकती है और दंड भी भरना पड़ सकता है। पहले तो यह समझें कि अत्याचार या बर्बरता की परिभाषा क्या है-
(1) जानबूझकर किया गया कोई ऐसा कार्य जो किसी महिला को आत्मघात करने पर मजबूर करे या फिर उसे गंभीर तरह से चोट पहुंचाई गई हो। ऐसी चोट जिससे उसके जीवन पर बन आए। भले ही वह शारीरिक हो या मानसिक।
(2) महिला को इस कदर प्रताड़ित करना कि वह अपने परिजनों के पास ससुराल पक्ष की मांग लेकर जाए। महिला से अपने मायके से कुछ लाने को कहा जाए।
यदि महिला को दहेज या किसी और कारण से परेशान किया जा रहा है तो वह शिकायत करने की हकदार है। ऐसे में उसके पति और ससुराल पक्ष के लोगों को जेल भेजा जा सकता है।
परंतु हाल ही के वर्षों में इस कानून का दुरुपयोग होने लगा है। कई बार महिलाओं ने अपने पति या उसके घरवालों को सबक सिखाने के लिए इस कानून का दुरुपयोग किया है। महिलाएं ससुराल पक्ष के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करा रही हैं।
मुंबई में कोलाबा का एक मामला है। पति किसी कंपनी में इवेंट मैनेजर था। घर आया तो एक बेडरूम के फ्लैट में उसकी 70 साल की मां को पुलिस घेरकर खड़ी थी। मां रो रही थी। बच्चे दिख नहीं रहे थे। मां ने कहा, तेरी पत्नी ने दहेज प्रताड़ना की शिकायत लिखाई है। पुलिस ड्यूटी कर रही थी। मां-बेटों को सप्ताहांत में कारावास में रखा गया। पत्नी ने पैसे के लिए यह सब किया। सम्मान से जीने वाला एक परिवार इस विचित्र कानून से तार-तार हो गया। हो सकता है कि उक्त महिला अपने पति पर तलाक के लिए दबाव डाल रही हो।
मेरा मानना है कि इससे मजबूत महिला वाली बात कहीं नहीं रह जाएगी और महिलाओं की बातों को गंभीरता से नहीं लिया जा सकेगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी है कि दहेज के मामलों में पुलिस एकदम गिरफ्तारी नहीं कर सकती। इससे इस कानून का दुरुपयोग रुकेगा। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस सीके प्रसाद की अदालत ने कहा कि जब तक कानूनी रूप से दहेज मामले की जांच हो, गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है। इस संबंध में सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया है कि वे पुलिस से इसकी तामील करने को कहे।
एक अन्य मामला परिवार अदालत का है। इसमें रमेश झवेरी नाम का एक ज्वैलर अदालत में जगुआर कार से आता था। उसके पहनावे और रहन-सहन से लगता था कि वह बेहद रईस है। उसकी पत्नी और उसमें जब मामला हल हुआ तो मात्र 7500 रु. प्रतिमाह गुजारा-भत्ता पत्नी को देने की बात कही गई। उस व्यक्ति ने यह साबित कर दिया कि उसके नाम पर कुछ भी नहीं है। यह सही है कि 498ए का दुरुपयोग होता है, लेकिन यदि पत्नी सीधी-सादी है तो तलाक के बाद वह फुटपाथ पर जीने को भी मजबूर हो सकती है।
ऐसे कई मामले हैं जो पत्नी और पति के बीच अदालत में चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में रुचि अग्रवाल और अमित अग्रवाल (5 नवंबर 2004) का मामला, पंजाब-हरियाणा कोर्ट में सतवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य का मामला (2 जुलाई 1997) का है। खराब बात यह है कि दहेज का डर इसके बाद भी बना रहता है। यह कहना पूरी तरह से गलत है कि दहेज को लेकर हत्याएं नहीं होती हैं, क्योंकि यह समाज में अभी भी व्याप्त हैं।
अभीभी ज्वलंत सवाल
हालही में एक मामला मेरे सामने आया, जिससे समझ में आया कि महिलाओं की स्थिति कितनी खराब है। 100 करोड़ की संपत्ति वाले एक व्यक्ति ने जाली दस्तावेजों के जरिए सारी संपत्ति अपने नाम करने के बाद पत्नी को घर से निकाल बाहर किया। ऐसे में महिला क्या करे?
सामाजिककानूनी पक्ष यह था
इसकानून का सामाजिक और वैधानिक पक्ष यह था कि इसे महिलाओं पर अत्याचार के खिलाफ लाया गया था। भावना यह थी कि इस कानून के जरिए दहेज लेन-देन की रवायत पर रोक लग सकेगी। इससे शादियां टूटने से बच सकेंगी और लड़की के घर वालों को ससुराल वालों की मांग पूरी करने के लिए कर्ज नहीं लेना पड़ेगा, ही बेटियों को कोख में खत्म करने की जरूरत होगी, लेकिन इस भावना के मकसद को लेकर यह कानून सफल नहं माना जाएगा।
शानो-शौकत से की जाने वाली शादियां और उसके खर्च में यह दिखता है। इस तरह से किसी किसी तौर पर लेन-देन हो ही जाता है। समाज में दहेज के नए तरीके नई बोतल में पुरानी शराब की तरह है। फिर भी कुछ हद तक सफलता मिली है। अब दुल्हनों को इस कानून की जानकारी है। यहां तक कि कई लड़कियों ने विवाह वेदियों पर इसकी मांग किए जाने पर जोरदार विरोध किया है। दहेज की अवधारणा को सामाजिक स्तर पर ही खत्म करने की जरूरत है। यह कानून इसी के लिए है कि जो महिलाएं इससे प्रताड़ित होकर जान तक देने को बाध्य हो जाती हैं, उनको इसका सहारा लेना चाहिए।
इसकी शुरुआत तो उन उपहारों को नकारने से ही हो जाना चाहिए जो लिए-दिए जाते हैं। यदि लड़की के पक्ष और लड़के के पक्ष में समानता ही रखना है तो शादी के खर्च को भी दोनों को बराबर बांट लेना चाहिए। यह सही है कि इस कानून को लेकर कुछ लोग दिग्भ्रमित कर इसका दुरुपयोग करते हैं, लेकिन वास्तव में यह बेसहारा, बेघर महिलाओं के लिए संबल है। जो महिलाएं इसका दुरुपयोग कर रही हैं, उनकी संख्या काफी कम है। इसे लेकर हो-हल्ला मचा हुआ है।
इन दिनों दहेज प्रताड़ना के खिलाफ कानून की धारा 498ए को लेकर बहस जारी है कि इसका महिलाएं दुरुपयोग कर रही हैं। इस धारा के दोनों ही पक्ष हैं। यह कुछ महिलाओं के लिए वरदान से कम नहीं है, क्योंकि दहेज के लिए होने वाली हत्याओं के कटु सत्य को नकारा नहीं जा सकता है। दहेज पीड़ितों के लिए यह सहारा है। वहीं, दूसरी तरफ गलत मंशा से इसका प्रयोग करने वाली महिलाओं के लिए यह एक हथियार की तरह है। वह इसके जरिए अपने गलत इरादों को अंजाम तक पहुंचाती है।

वैधानिक सहायता का अधिकारः एक वैधानिक प्रतिबद्धता (PIB)

एक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में चार्ल्स डी मोन्टेसक्यू ने कहा “प्राकृतिक रूप में, सभी इंसान समान पैदा होते हैं, किंतु वे इस समानता को कायम नहीं रख सकते हैं। समाज उन्हें इसे खोने के लिए मजबूर करता है और वे कानून का संरक्षण पाकर ही इसे फिर से प्राप्त कर पाते हैं।” समानता आधारित न्याय सुनिश्चित करने में गरीबों, अशिक्षितों और कमजोर लोगों के लिए कानूनी संरक्षण प्रदान करना महत्वपूर्ण है। वैधानिक सहायता उन संसाधनों में से एक है जो यह सुनिश्चित करता है कि गरीबी, अशिक्षा आदि कारणों से किसी व्यक्ति के लिए न्याय सुनिश्चित करने से मनाही न हो।
समाज के गरीब और कमजोर वर्गों के लोगों के लिए मुफ्त वैधानिक सहायता उपलब्ध कराने का उद्देश्य उन्हें कानून द्वारा उनके लिए दिये गये अधिकारों का प्रयोग करने में उन्हें सक्षम बनाना है। न्यायमूर्ति श्री पी. एन. भगवती ने ठीक ही कहा था कि “गरीब और अशिक्षित लोगों को न्यायालयों तक पहुंचने में सक्षम होना चाहिए और उनकी उपेक्षा और गरीबी उनके लिए न्यायालयों से न्याय प्राप्त करने में बाधक नहीं होनी चाहिए।”
भारतीय संविधान में संविधानवाद और कानून के शासन पर काफी जोर दिया गया है। भारत में कानून के शासन को संविधान की मूल संरचना और स्वाभाविक न्याय का हिस्सा माना जाता है। स्‍वाभाविक न्‍याय के शासन का कहना है कि कोई व्‍यक्ति तब तक उनके अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले निर्णयों द्वारा दंडित नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि उनके विरूद्ध मामले की पूर्वसूचना, उसका उत्‍तर देने के लिए पर्याप्‍त अवसर और अपन मामले को प्रस्‍तुत करने का अवसर उपलब्‍ध न कराया जाय।
संविधान की प्रस्‍तावना में देश के नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्‍याय सुनिश्चित किया गया है। संविधान की धारा 14 में इस बात का स्‍पष्‍ट रूप से उल्‍लेख किया गया है कि राज्‍य की ओर से किसी व्‍यक्ति की कानून के समक्ष समानता अथवा भारतीय क्षेत्र के भीतर कानून के एकसमान संरक्षण से इनकार नहीं किया जा सकता है। धारा 14 का उद्देश्‍य समान न्‍याय सुनिश्चित करना है। समान न्‍याय की गारंटी तब तक अर्थहीन है, जब‍ तक गरीब अथवा अशिक्षित अथवा कमजोर व्‍यक्ति अपनी गरीबी अथवा अशिक्षा अथवा कमजोरी के कारण अपने अधिकारों का इस्‍तेमाल न कर सके।
भारतीय संविधान की धारा 38 और 39 में इसके बारे में स्‍पष्‍ट शासनादेश उल्लिखित है। धारा 38 (1) के अनुसार राज्‍य के ओर से जहां तक संभव हो और जैसा भी सामाजिक क्रम हो लोगों के कल्‍याण को बढ़ावा देने के लिए कारगर उपाय किए जाएंगे और चाहे वह न्‍याय, सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक क्रम में राष्‍ट्रीय जीवन की सभी संस्‍थाओं को सूचित करेगा।
धारा 39 ए में राज्‍य के लिए स्‍पष्‍ट निर्देश है कि वह यह सुनिश्चित करे कि समान अवसर के आधार पर न्‍याय को बढ़ावा देने वाली वैधानिक प्रणाली का संचालन हो और विशेष रूप से समुचित विधान अथवा योजनाओं अथवा किसी अन्‍य रूप में मुफ्त वैधानिक सहायता प्रदान की जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि आर्थिक अथवा अन्‍य कमियों के कारण किसी नागरिक को न्‍याय पाने के अवसरों से मनाही न की जा सके।
मुफ्त वैधानिक सहायता अथवा नि:शुल्‍क कानूनी सेवा संविधान द्वारा प्रदत्‍त एक अनिवार्य मौलिक अधिकार है। भारतीय संविधान की धारा 21 के अधीन यथोचित, निष्‍पक्ष और न्‍यायसंगत स्‍वतंत्रता का आधार है, जिसमें कहा गया है, ‘कानून द्वारा स्‍थापित प्रक्रिया के बिना किसी व्‍यक्ति को उसके जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता’।
महाराष्‍ट्र राज्‍य बनाम मनुभाई प्रगाजी वाशी मामले में सर्वोच्‍च न्‍यायलय ने पूरी स्‍पष्‍टता से कहा है कि अब यह एक सुस्‍थापित तथ्‍य है कि किसी अभियुक्‍त द्वारा इनकार किए बिना राज्‍य के खर्च पर अभियुक्‍त को मुफ्त वैधानिक सहायता प्रदान नहीं किए जाने से मुकदमा निष्‍फल हो जाएगा। एमएच होसकोट बनाम महाराष्‍ट्र राज्‍य मामले में न्‍यायमूर्ति कृष्‍णा अय्यर ने बताया कि मुफ्त वैधानिक सहायता प्रदान करना राज्‍य का कर्तव्‍य है न कि यह सरकार की दानशीलता है।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता और दीवानी प्रक्रिया संहिता में मुफ्त वैधानिक सहायता से जुड़े प्रावधान भी शामिल हैं। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 304 में यह प्रावधान है कि सत्र न्‍यायालय किसी मुकदमे में यदि कोई अभियुक्‍त किसी वकील द्वारा प्रतिनिधित्‍व नहीं पा रहा है और जहां यह न्‍यायालय को प्रतीत है कि अभियुक्‍त के पास कोई वकील रखने के लिए पर्याप्‍त संसाधन नहीं है तो न्‍यायालय राज्‍य के खर्च पर उसके बचाव के लिए किसी वकील को मंजूरी देगा। धारा 304 में यह स्‍पष्‍ट किया गया है कि सत्र न्‍यायालय में मुकदमे के लिए किसी व्‍यक्ति को वैधानिक सहायता प्रदान करना राज्‍य का दायित्‍व है। इससे राज्‍य सरकार यह निर्देश देने में समर्थ हो जाता है कि ये प्रावधान राज्‍य के अन्‍य न्‍यायालयों में किसी श्रेणी के मुकदमे के लिए लागू हैं।
समाज के कमजोर वर्गों को मुफ्त और सक्षम वैधानिक सेवाएं प्रदान करने के लिए वैधानिक सेवा प्राधिकरण के गठन के लिए ‘वैधानिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987’ नामक एक अलग विधान लागू किया गया है, ताकि आर्थिक अथवा अन्‍य कमियों के कारण किसी नागरिक को न्‍याय प्राप्‍त करने के अवसरों से वंचित न किया जा सके। इसके साथ ही लोक अदालतें आयोजित करना ताकि न्‍याय को बढ़ावा देने के लिए वैधानिक प्रणाली सुनिश्चित हो सके। वैधानिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के माध्‍यम से राष्‍ट्रीय, राज्‍य और जिला स्‍तर पर सांविधिक वैधानिक सेवा प्राधिकरण स्‍थापित है। इसमें लोक अदालत से जुड़े प्रावधान शामिल हैं। लोक अदालत का मुख्‍य उद्देश्‍य कम लागत पर शीघ्र न्‍याय उपलब्‍ध कराना है।
दीवानी और राजनीतिक अधिकारों पर आधारित अंतर्राष्‍ट्रीय कोवनेंट की धारा 14 (3) (डी) में हर किसी के लिए यह सुनिश्चित किया गया है कि उसकी उपस्थित में मुकदमें सुने जाएं और वह व्‍यक्तिगत रूप से अथवा अपनी इच्‍छा से कानूनी सहायता से अपना बचाव कर सके और उसे सूचित किया जाना चाहिए कि यदि उसके पास कानूनी सहायता उपलब्ध नहीं है तो इस अधिकार का प्रयोग करते हुए उसे कानूनी सहायता उपलब्‍ध कराई जाती है ताकि उसे न्‍याय मिल सके।
किसी लोकतांत्रिक देश में, जहां कानून का शासन सर्वोपरि है, यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि देश में कमजोर के बीच सबसे कमजोर, गरीब से बीच सबसे गरीब व्‍यक्ति भी राज्‍य अथवा किसी व्‍यक्ति के द्वारा किए गए किसी गलत कार्य से उत्‍पन्‍न अन्‍याय से पीडि़त न हो। अगले चरण में वैधानिक सहायता आंदोलन के लिए क्षमता निर्माण सुनिश्चित करने की जरूरत है। इसके लिए वैधानिक सहायता से जुड़े हितधारकों, कानून के शिक्षकों, कानूनविदों, कानून के छात्रों के साथ ही आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, स्‍थानीय पंचायत के सदस्‍यों आदि जैसे स्‍वयंसेवियों के कौशलों को मजबूत करना आवश्‍यक है, ताकि वे ग्रामीण लोगों और वैधानिक सेवा संस्‍थाओं के बीच मध्‍यस्‍थों के रूप में काम कर सकें।
भारत में वैधानिक सहायता आंदोलन की मुख्‍य बाधा कानूनी जागरूकता की कमी है। लोग अधिकारों और कानून द्वारा उपलब्‍ध संरक्षण के बारे में अवगत नहीं हैं। इसे साकार करना जरूरी है ताकि कानूनी सहायता के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देना केवल कानून से जुड़े कर्मियों का ही काम नहीं है। कुल मिलाकर समान रूप से यह समाज का दायित्‍व है। कानूनी सहायता के लिए संवैधानिक सहायता तभी फलीभूत हो सकती है यदि समाज अपनी संवेदनशील जनसंख्‍या की देखभाल के लिए आगे आता है।

इस दोस्ती से आशंका स्वाभाविक (सी उदय भास्कर)

चीन की नीयत पर सवालिया निशान लगना वाजिब है। जो आर्थिक गलियारा बनना है उससे पाक अधिकृत कश्मीर वाले क्षेत्रों का मुद्दा और गहराएगा। पीओके को लेकर हमारी चिंता और बढ़ने वाली है। चीन पहले भी आधिकारिक तौर पर पाक अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखाता रहा है भारत को अब बहुत सतर्क होकर प्रतिक्रिया देनी होगी। एक ओर चीन के साथ उसे आर्थिक संबंध सुधारने हैं, दूसरी तरह यह भी देखना है पाकिस्तान-चीन की जोड़ी क्या गुल खिलाने जा रही है
सस्ती अच्छी चीज है। दो दोस्तों के बीच की भावना की आप कद्र कर सकते हैं, लेकिन जब दो देशों की दोस्ती का मकसद व्यापक हित में न हो तो सवाल उठना वाजिब है। और जब बात पाक-चीन की दोस्ती की हो तो क्या कहने! भारत की ओर से ही नहीं, दूसरे देशों का भी इसे लेकर आशंकित होना कोई नई बात नहीं। दरअसल एक तरफ ऐसा देश है जो लगातार दूसरों की मदद लेकर आतंकवाद का पालन-पोषण करता रहा है। दूसरी तरफ एक ऐसा देश है जो सामरिक मामलों में बहुत ही ज्यादा महत्वाकांक्षी है और येन केन प्रकारेण विश्व का सबसे ताकतवर देश बनना चाहता है। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी बहुचर्चित यात्रा के दूसरे दिन 21 अप्रैल को पाक संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि पाकिस्तान में एशियन टाइगर बनने की क्षमता है। पाक-चीन की दोस्ती हिमालय से भी ऊंची, महासागर से भी गहरी और शहद से भी मीठी है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भी कहा कि चीन-पाक सही मायनों में भाई-भाई जैसे हैं। गौर करने वाली बात है कि चीनी राष्ट्रपति के पाक आगमन के पहले पाकिस्तानी मीडिया ने शी जिनपिंग का एक लेख प्रकाशित किया जिसमें उनके हवाले से कहा गया कि यद्यपि यह मेरी पहली पाकिस्तान यात्रा है फिर भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं अपने भाई से मिलने जा रहा हूं। उनकी बातों से कोई नई भावना नहीं झांक रही। यात्राएं हो न हों, दोनों के संबंध कई दशकों से विशिष्ट रहे हैं। पाक को चीन की लगातार शह मिलती रही है। अमेरिका से पाकिस्तान के संबंध भले ही बनने-बिगड़ने वाले रहे हों, लेकिन चीन-पाक संबंध का ग्राफ कमोबेश हमेशा एक-सा रहा है। इसकी नींव साठ के दशक में तभी से पड़ गई थी, जब भारत-चीन की दोस्ती में विष घुल गया था। चीन के लिए पाकिस्तान एशिया के सबसे महत्वपूर्ण देशों में है। वह जानता है पाकिस्तान के साथ भारत के प्रतिकूल संबंध हैं। दूसरी तरफ अमेरिका अब भारत से बेहतर संबंध चाहता है। ऐसे में चीन को पाकिस्तान में अपनी मौजूदगी पुख्ता करने में आसानी होती है। चीन उसके लिए महत्वपूर्ण सामरिक अड्डा है। पाकिस्तान के साथ अपने संबंध को चीनी राष्ट्रपति ने ऐतिहासिक बताया है। उन्होंने अपने लेख में यहां तक जिक्र किया कि 1949 की क्रांति के बाद पाकिस्तान ने अपने वायु इलाके को चीन के लिए खोल दिया था ताकि उसे दुनिया के अन्य देशों तक पहुंच बनाने में दिक्कत न हो। शी जिनपिंग की ओर से यह भी याद दिलाया गया कि पाकिस्तान ने चीन की यूएनओ में स्थायी सदस्यता का समर्थन किया था। दरअसल वे पाकिस्तान के साथ-साथ दुनिया को भी याद दिलाना चाहते हैं कि पाकिस्तान के साथ चीन के संबंध ऐतिहासिक हैं। चीनी राष्ट्रपति ने दिखाया कि संबंध ऐतिहासिक तो हैं ही, वर्तमान में भी प्रगाढ़ हैं। यही कारण है कि इस बार दोनों के बीच 51 मसलों पर हस्ताक्षर हुए हैं। इसके तहत चीन पाकिस्तान में 46 अरब डॉलर का निवेश करेगा। यह राशि कितनी विशाल है यह इसी बात से पता चलता है कि 2002 से अब तक अमेरिका ने पाकिस्तान को 15 अरब डॉलर की सहायता दी है। यह राशि पाकिस्तान की जिन बड़ी परियोजनाओं पर खर्च की जानी है, उसका लाभ पाकिस्तान को तो होगा ही, लेकिन ज्यादा और दीर्घकालिक लाभ चीन को मिलेगा। चीन सबसे ज्यादा रकम प्राचीन सिल्क रूट मार्ग को फिर से तैयार करने पर खर्च करेगा। इसके जरिए उसकी योजना पश्चिमी एशिया होते हुए यूरोप से जुड़ने की है। इस रास्ते के जरिए न केवल उसका सामरिक महत्व इन इलाकों में बढ़ेगा, बल्कि उसकी ऊर्जा जरूरतें काफी हद तक पूरी हो जाएंगी। इससे पश्चिमी एशिया से तेल आयात करना काफी सस्ता पड़ेगा। चीन द्वारा पाकिस्तान को दी जा रही राशि का एक बड़ा लक्ष्य चीन-पाकिस्तान के बीच आर्थिक गलियारे का निर्माण है। यह गलियारा अरब सागर के तट पर मौजूद पाकिस्तानी बंदरगाह ग्वादर को उत्तर पश्चिम चीन के शिनजियांग से जोड़ेगा। पाकिस्तान को उम्मीद है कि 2030 तक पूरी होने वाली इस योजना से अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव कम हो जाएगा। दूसरी तरफ चीन की एक मंशा भविष्य में जरूरत के आधार पर ग्वादर में अपना नौसैनिक अड्डा स्थापित करने की है। भारत के नजरिए से देखें तो चीन की नीयत पर सवालिया निशान लगना वाजिब है। जो आर्थिक गलियारा बनना है उससे पाक अधिकृत कश्मीर वाले क्षेत्रों का मुद्दा और गहराएगा। पीओके को लेकर हमारी चिंता और बढ़ने वाली है। चीन पहले भी आधिकारिक तौर पर पाक अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखाता रहा है। पूरे मसले पर गौर करने से यह भी साफ होगा कि आगे चीन-पाकिस्तान और भारत के त्रिपक्षीय रिश्ते और उलझेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही महीने पहले चीनी राष्ट्रपति के भारत दौरे के दौरान भी निवेश को लेकर बहुत सकारात्मक माहौल बना था। फिर मई में भारत के प्रधानमंत्री भी चीन की यात्रा पर होंगे। आज चीन, भारत को दरकिनार करके भी नहीं रह सकता। यहां वह निवेश करना चाहता है और पाक को अपना सामरिक अड्डा बनाना चाहता है। भारत-पाकिस्तान में जिस तरह का सीमा विवाद है, उसी तरह भारत-चीन के बीच भी। पाकिस्तान ने तो एकपक्षीय तौर पर जम्मू कश्मीर के एक बड़े हिस्से को चीन को हस्तांतरित कर दिया था। भारत को अब बहुत सतर्क होकर प्रतिक्रिया देनी होगी। एक ओर चीन के साथ उसे आर्थिक संबंध सुधारने हैं तो दूसरी तरह यह भी देखना है कि पाकिस्तान-चीन की जोड़ी क्या गुल खिलाने जा रही है। नई शताब्दी यकीनन चीन के आर्थिक वर्चस्व के साथ-साथ एशिया की है। भारत-चीन आर्थिक सबंधों की बात करें तो दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार 75 अरब डॉलर के करीब है। यहां समस्या यह है कि चीन हमारे लिए तो नंबर वन का साझीदार है, लेकिन हमारी अहमियत उसके लिए नंबर दस तक की भी नहीं है। जब से भारत ने अमेरिका को अपना सामरिक साझीदार घोषित किया है, चीन को यह चिंता सताने लगी है कि भारत उसकी घेराबंदी में अमेरिका का साथ देने को लालायित है। जाहिर है, भारत को अपनी स्थिति साफ कर देनी चाहिए कि ऐसा नहीं है। वह ऐसा तभी करेगा जब चीन अपनी हरकतों से उसे बाध्य कर दे। जब वह अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो दे। इस विश्वसनीयता पर एक बड़ा खतरा चीन-पाक संबंध को लेकर है। भारत हमेशा से मानता रहा है कि चीन ने छिपे तौर पर पाकिस्तान को परमाणु हथियार और मिसाइल उपलब्ध कराई है और वह इस बात की हमेशा से उपेक्षा करता रहा है कि पाकिस्तान भारत के खिलाफ आतंकवादियों को शह देता है। पाकिस्तान ने अब तक अमेरिका की मदद का एक बड़ा हिस्सा सैन्य आपूत्तर्ि और आतंकवाद को फलने-फूलने में ही जाया किया। पाकिस्तान की सेना इन पैसों से मजबूत हुई। चीन को देखना होगा कि उसके द्वारा मिली मदद का उपयोग ऐसे न हो। यह राशि विकास के साथ साथ पाकिस्तान में स्थिरता और सुरक्षा पर खर्च हो। इन मुद्दों पर मई में नरेंद्र मोदी की बीजिंग यात्रा पर र्चचा जरूर होगी। र्चचा से कोई सार्थक हल भले ही न निकले, लेकिन हमारे संबंधों पर पड़ी धुंध थोड़ी छंट जरूर सकती है।(RS) (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

धर्म परंपरा और स्त्री के अधिकार (सुभाष गाताडे)

रुसी मूल की एक महिला, जिसने अपने समुदाय के बाहर शादी की है, क्या अगियारी अर्थात अगिघर, जो पारसी लोगों का पूजास्थल होता है, वहां पूजा कर सकती है या नहीं? गोलरूख कान्टराक्टर नामक एक महिला द्वारा, जिसने आज से लगभग 25 साल पहले माहपाल गुप्ता नाम के व्यक्ति से शादी की थी, गुजरात उच्च न्यायालय में डाली गई जनहित याचिका के बहाने यह महत्वपूर्ण सवाल उपस्थित हुआ है। न्यायमूर्ति मुखोपाध्याय और अकिल कुरेशी की द्विसदस्यीय पीठ ने इस सम्बन्ध में वलसाड जिले के पारसी अंजुमन ट्रस्ट को नोटिस जारी किया है। इस मामले की अगली सुनवाई अप्रैल माह के आखिर में होगी। अदालत ने पारसी धार्मिक ग्रंथ, इस सम्बन्ध में क्या कहते हैं, इसे लेकर भी जानकारी प्रस्तुत करने का आदेश दिया है।सुश्री गोलरूख ने अदालत को बताया कि विवाह के बाद भी वह मुंबई स्थित अगियारी तथा टावर आफ साइलेन्स (जहां पारसी लोगों का अंतिम संस्कार किया जाता है) जाती रही है, मगर जब उसने वलसाड की अगियारी में जाना चाहा तो ट्रस्ट के संचालकों ने उसे वहां प्रवेश नहीं करने दिया। अदालत के सामने पेश की गई याचिका में उन्होंने मांग की है कि अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार में भाग लेने और अपना खुद का अंतिम संस्कार वहां करने के लिए अदालत ट्रस्ट को निर्देश दे। उन्होंने ऐसे उदाहरण भी पेश किए जिसके अन्तर्गत पहले अन्तर सामुदायिक विवाह करनेवाली पारसी महिलाओं को प्रवेश दिया जाता था, मगर अब रोक लगा दी गयी है। गोलरूख के वकील ने अदालत को बताया कि इस मामले का विभेदकारी पक्ष यह है कि गैर पारसी महिलाओं से शादी करनेवाले पारसी पुरु षों के अपने धार्मिक स्थानों में प्रवेश पर रोक नहीं होती है जबकि अन्तर सामुदायिक शादी करनेवाली गैर पारसी महिलाओं पर रोक होती है, जो भारत के संविधान की धारा 25 व14 का उल्लंघन है। फिलवक्त इस बात का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता है कि अदालत इस मामले में क्या कहती है, मगर इसी बहाने धर्म और परंपरा के नाम पर स्त्रियों को उनके मानवीय अधिकार से वंचित रखने का मुद्दा बहस के केंद्र में आया है।इसी किस्म का सवाल एक अन्य जन हितयाचिका के बहाने मुंबई उच्च अदालत के सामने भी उपस्थित हुआ है। भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की तरफ से मुंबई के हाजी अली दरगाह के प्रबंधन के खिलाफ एक जन हितयाचिका दायर की गयी है, जिसने कुछ समय पहले पंद्रहवीं सदी के सूफी संत पीर हाजी अली शाह बुखारी की मजार पर स्त्रियों के जाने पर रोक लगायी है। दक्षिण मध्य मुंबई में स्थित यह दरगाह अरब समुद्र में पत्थरों से बनी जमीन पर स्थित है। इसके पहले यहां महिलाएं अन्दर तक- अर्थात सूफी संत की मजार तक भी जाती रही हैं लेकिन कुछ समय पहले प्रबंधन ने इस सम्बन्ध में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाते हुए उसे शरीयत के आधार पर जायज घोषित किया है। गौरतलब है कि हाजी अली दरगाह, जो एक सूफी मजार है, पर हर साल हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दरगाह के प्रबंधन ने आदेश दिया कि पंद्रहवी सदी के सूफी संत पीर हाजी अली शाह बुखारी की मजार के पास महिलाओं को नहीं आने दिया जाएगा क्योंकि शरीया कानून के अन्तर्गत यह कदम गैर-इस्लामिक है कि महिलाएं कब्रगाह जाएं।इस सम्बन्ध में जाने-माने लेखक गौतम भाटिया ने ‘‘स्करोल’ पर लिखे अपने महत्वपूर्ण आलेख में संवैधानिक अधिकार और नागरिक अधिकारों की र्चचा करते हुए स्पष्ट किया है कि किस तरह ‘‘भारतीय महिला आन्दोलन’ की याचिका मजबूत संवैधानिक मान्यताओं पर खड़ी है। सबसे पहले उन्होंने संविधान की धारा 25 की बात की है जो हर व्यक्ति को अपनी आस्था के अनुसार घूमने, उसका प्रचार करने का अधिकार देती है। उनका कहना है कि इतनी आसानी से कोई भी प्रबंधन किसी व्यक्ति को उसके संवैधानिक अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता है। लेख में आगे यह र्चचा भी की गयी है कि अगर याचिकाकर्ता संवैधानिक अधिकार की बात प्रमाणित नहीं भी कर पाती हैं तो भी उनके सामने नागरिक अधिकारों का विकल्प है। सर्वोच्च न्यायालय ने खुद माना है कि आम कानून के अन्तर्गत पूजा का अधिकार एक नागरिक अधिकार है जिसे नियमित कानूनी याचिका के जरिए लागू करवाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने सरदार सैफुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ बाम्बे के मुकदमे का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति जे दासगुप्ता की बात को उद्धृत किया है- ‘‘सम्पत्ति या किसी पूजा स्थान पर पूजा का अधिकार या स्थान विशेष पर दफनाने या अंतिम संस्कार के अधिकार को कानूनी याचिका के जरिए अमल में लाया जा सकता है।’संविधान निर्माण के दौरान चली बहसें देखें तो कुछ बातें और स्पष्ट होती हैं। इस हकीकत के मद्देनजर कि भारत में धर्म का प्रभाव काफी व्यापक है और अगर ‘‘सारभूत धार्मिक आचारों’ को लेकर संविधान द्वारा संरक्षण नहीं प्रदान किया गया तो वह लोगों के जन्म से मृत्यु तक धर्म या उसके संस्थानों की आम आस्थावान के जीवन पर पकड़ को दमघोंटू बना सकता है। अत: कुछ विशिष्ट प्रावधान डा अम्बेडकर ने रखे हैं। दरगाह में महिलाओं के प्रवेश के मामले में याचिकाकर्ताओं ने इसके प्रमाण पेश किए हैं कि महिलाओं को मजार तक जाने से रोकना कुरान या हदीस का हिस्सा नहीं है, अर्थात उसे हम ‘‘सारभूत धार्मिक आचारों’ का हिस्सा नहीं मान सकते, लिहाजा उसे लेकर प्रबंधन को आदेश देने का अधिकार नहीं बनता। याचिकाकर्ताओं ने अजमेर शरीफ दरगाह का उदाहरण देते हुए कहा है कि वहां महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार का प्रवेश वर्जित नहीं है। यहां इस बात का उल्लेख करना समीचीन होगा कि धर्म को लेकर किसी विवाद की स्थिति में उसके मूल ग्रंथों को देखा जाता है। उदाहरण के लिए रामप्रसाद सेठ बनाम स्टेट ऑफ यूपी मामले में बहुपत्नीप्रथा पर फैसला देने के पहले इलाहाबाद की उच्च अदालत ने मनुस्मृति और दत्तक मीमांसा आदि ग्रंथों का अध्ययन कर बताया था कि क्या उसे हम हिन्दू धर्म का ‘‘आवश्यक भाग’ कह सकते हैं। दूसरे गाय की हत्या को लेकर मोहम्मद हनीफ कुरेशी बनाम बिहार राज्य सरकार मामले पर गौर करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कुरान की जांच करके देखा था कि गोहत्या इस्लाम धर्म का आवश्यक हिस्सा है या नहीं। दोनों ही मामलों में वे काम धर्म का आवश्यक हिस्सा नहीं समझे गए थे। गौतम भाटिया बताते हैं कि दो अन्य वजहों से भी ट्रस्ट के प्रबंधन की याचिका कमजोर दिखती है, जिसमें उसने ‘‘महिलाओं के अनुचित पोशाक पहनने’ या उनकी ‘‘सुरक्षा’ की दुहाई देते हुए यह तर्क दिया है और इसका सम्बन्ध भी ‘‘सारभूत धार्मिक आचारों’ से नहीं है।(RS)

आसमान चढ़ने में बस राफेल काफी नहीं (राहुल बेदी)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 11 महीनों में 15 देशों की यात्राएं की हैं और इनसे हमने कुछ खोया नहीं बल्कि हासिल ही किया है। उनकी हाल की फ्रांस, जर्मनी और कनाडा की यात्रा यकीनन शानदार रही है। पश्चिमी देशों में इससे भारत की पैठ और बढ़ेगी। इस बार की यात्रा से चरमपंथ के खिलाफ अभियान, यूरेनियम आपूत्तर्ि, सुरक्षा परिषद की दावेदारी में सहयोग, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर साथ देने जैसे बिंदुओं पर हमने थोड़ा और प्रगति की है। लेकिन सबसे ज्यादा र्चचा में जो मसला है वह लड़ाकू विमान राफेल से जुड़ा है। हालांकि बहुत से लोग इसको बेहतरीन सौदा बता रहे हैं लेकिन ऐसे लोग मसले को केवल एक एंगल से देख रहे हैं। सौदे को अच्छा-खराब के नजरिए से नहीं बल्कि हमारी जरूरत के नजरिए से देखा जाना चाहिए। सच पूछें तो इसमें कुछ अच्छी बातें हैं और कुछ आपत्तियां भी। राफेल समझौते पर गौर करें तो पाएंगे कि इसमें कई ऐसी बातें हुई हैं जो तयशुदा रास्ते से अलग हैं। शुरू में जो तय हुआ, उसके मुताबिक केवल 18 विमान फ्रांस से आने थे और बाकी 18 को भारत में ही जोड़ा जाना था। अब जो तय हुआ है उसके मुताबिक सभी 36 विमान फ्रांस से तैयार रुप में ही भारत आएंगे। राफेल को लेकर फ्रांस से जब शुरू में बातचीत हुई थी तो कुल 126 विमानों की खरीदारी की बात सामने आई थी। 36 के अलावा जो विमान आएंगे उसके बारे में अभी ज्यादा स्पष्ट नहीं है। हालांकि उम्मीद यह जताई जा रही है कि पहले दौर के 36 विमानों की खरीदारी के बाद इस संबंध में बातचीत होगी। जो विमान आ रहे हैं वे हमारे लिए जरुरी हैं। इससे हमारे कमजोर हो रहे फाइटर स्क्वैड्रन को मजबूती मिलेगी। यकीनन राफैल एक शानदार लड़ाकू विमान है लेकिन इसे लेकर जो आपत्तियां हैं उन्हें भी खारिज नहीं किया जा सकता है। इस मामले में भाजपा नेता सुब्रम्णयम स्वामी ने जो तर्क रखे, वे अपनी जगह सही हैं। उनका कहना सही है कि राफेल में अभी सभी अत्याधुनिक कल पुज्रे नहीं लगे हैं। इसमें अब तक आधुनिक रडार सिस्टम ईएसए भी नहीं लगा है। फ्रांसीसी कंपनी द सॉल्त अगर इसे खरीदने को तैयार होती है तो वे रडार के रिसर्च में पैसे लगाएंगे। सौदा होने के बाद शायद कंपनी ने इस पर काम करना शुरू कर दिया है। माना जा रहा है कि अगले दो साल में ये विमान भारत को सुधरे हुए रूप में मिल जाएंगे। दरअसल हमारी वायुसेना को कई सालों से ऐसे विमान की जरूरत थी। चीन और पाकिस्तान जैसे प्रतिद्वंद्वी को देखकर यह जरूरत और बढ़ गई थी। राफेल ब्रह्मोस जैसी छह मिसाइलें एक साथ ले जा सकता है। एक बार में इसकी उड़ान भरने की रेंज 3700 किलोमीटर है। अभी फ्रांसीसी कंपनी द सॉल्त के दो खरीदार हैं। एक खुद फ्रांस की सरकार और दूसरा इजिप्ट। गौर करने वाली बात है कि इजिप्ट ने हाल में 26 राफेल विमान खरीदने की घोषणा की है। इजिप्ट सरकार ने संकेत भी दिए हैं कि इस संख्या को बढ़ाकर वह 40 करने वाली है। इस विमान की खरीदारी में एक-दो अन्य देश भी दिलचस्पी दिखा रहे हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण खरीदार भारत ही है। रही बात प्रदर्शन की तो इस विमान का तजरुबा अब तक फ्रांसीसी सेना को छोड़ किसी के पास नहीं है। फ्रांसीसी सेना ने सबसे पहले इसका इस्तेमाल अमेरिकाके साथ संयुक्त सैन्य युद्धाभ्यास में किया। दो साल पहले माली के इस्लामी चरमपंथियों के खिलाफ इसका बखूबी इस्तेमाल हुआ। हाल के दिनों में इराक में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ भी इसका बेहतरीन प्रयोग किया गया। इसकी बेहतरीन टेक्नालॉजी को देखकर ही भारत ने इसमें दिलचस्पी दिखाई। इस संबंध में सबसे पहले 2007 में निविदा निकाली गई। इसके बाद दो साल सेज्यादा तो ट्रायल में ही बीत गए। हमारे एयरफोर्स ने उस समय छह विमानों का ट्रायल किया जिसमें सबसे बेहतर राफेल ही पाया गया। एयरफोर्स की राय जानने के बाद रक्षा मंत्रालय ने 2012 इसकी खरीदारी को लेकर सौदेबाजी करनी शुरू की। सौदेबाज अब पूरी हुई दिख रही है। हालांकि अगर खरीदारी 36 विमानों तक ही सीमित रह जाती है तो कई मामलों पर गौर करना होगा। अगर आगे खरीदारी नहीं करनी है तो रख-रखाव के तरीके और ऑपरेशन के लिहाज से इसकी खरीदारी का तुक नहीं बनता। 36 विमानों का मतलब वायुसेना के लिए दो स्क्वैड्रन होता है। इस समय हमारी एयर फोर्स को छह से सात स्क्वैड्रन की जरूरत है। वायुसेना के बेड़े में शामिल मिग-21 विमान अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं। मिग-27 और मिग-29 भी अगले कुछ सालों में रिटायर होने वाले हैं। अभी बेड़े में केवल सुखोई विमान ऐसे हैं जो हमारे शक्ति संतुलन को ठीक बनाए हुए हैं। बेशक राफेल हमारी जरूरत है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी जरूरतें और भी हैं। वास्तव में सेना के लिए नए विमान ही नहीं, अन्य सैन्य साजो-सामान भी बहुत अनिवार्य हैं। दरअसल हमारा 70 से 80 प्रतिशत सैन्य साजो सामान पुराना है। 60 के दशक के बने ये सामान हमारे यहां 70-80 के दशक में आयात किए गए। इइ मामले में हमें यह विचार भी करना चाहिए कि ये सामान हम खरीदें या इसे स्वदेशी तकनीक से अपने ही यहां निर्मित करें। फिलहाल हमारी रक्षा कंपनियां ज्यादातर सामन बाहर से खरीदती हैं। कुल सामान का करीब 72 प्रतिशत आयात होता है। पिछले दस सालों में हमने करीब 30 अरब डॉलर के हथियार आयात किए हैं और अगले छह-सात सालों में हमें मौजूदा पुराने हथियारों को बदलने के लिए 80 से 100 अरब डॉलर खर्च करने होंगे। हथियार खरीदने में चीन, भारत और पाकिस्तान में एक किस्म की होड़ मची है। हालांकि चीन अब रिवर्स इंजीनियरिंग के जरिए बाहर के हथियारों को घर में ही निर्मित कर रहा है पर हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। अपना देश घरेलू हथियारों के निर्माण में काफी पिछड़ रहा है। इधर लगातार घरेलू रक्षा उद्योग को बढ़ावा देने की बात गंभीरता से चल रही है। पिछले कुछ सालों में रक्षा सौदों में हुए कुछ कथित घोटालों के चलते पिछली सरकार ने फैसला लेना धीमा कर दिया था। नई सरकार इसमें तेजी लाई है। हालांकि पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी ने अपने कार्यकार्य के अंतिम दो सालों में भी इसे लेकर गंभीर प्रयास किए थे। इधर, इसे लेकर कुछ प्रयास भी किए गए हैं। फिर भी इतना याद रखना होगा कि रक्षा उद्योग को विकसित करने के गंभीर प्रयास जब भी शुरू किए जाएं, उसके दो दशक बाद ही परिणाम दिखता है। इस हिसाब से हमें भी कम से कम 16-17 साल आत्मनिर्भर होने में लगेंगे। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है कि रक्षा उद्योग को मजबूती देने के लिए राजनीति बंद करनी होगी। सेना और राजनेताओं को तेजी से फैसले लेने होंगे। भारत इस मामले में बहुत कमजोर स्थिति में है। हालात नहीं बदले तो भविष्य में सैन्य साजो सामान का आयात नहीं रुकेगा। (लेखक रक्षा मामलों के जानकार हैं)(RS)

Wednesday 22 April 2015

सीमित विकल्पों में सही फैसला (नितिन अनंत गोखले)

भारत द्वारा फ्रांस की दसाल्ट एविएशन कंपनी से 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने के निर्णय पर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कुछ लोग इसे जहां भारतीय वायुसेना की आपातकालीन जरूरत बता रहे हैं वहीं कुछ इसे एक ऐसा निर्णय बता रहे हैं जो न इधर का है न उधर का। वास्तविकता यही है कि सरकार के पास विकल्प बहुत सीमित थे। इससे सेना की जरूरत के लिए विमानों की खरीद में जारी गतिरोध खत्म होगा। शायद ही किसी को याद हो कि पिछले 15 वर्षो में भारत ने कोई युद्धक विमान खरीदा हो। भारतीय वायुसेना लगातार इस बात की चेतावनी दे रही है कि वह यहां तक कि पाकिस्तान के खिलाफ भी अपनी युद्धक क्षमता खो रही है। इस संदर्भ में आपातकालीन स्थितियों को देखते हुए दशकों पुरानी एमएमआरसीए (मध्यम बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमान) खरीद पर जारी गतिरोध को लेकर सरकार के पास इसके अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं था। सरकार से सरकार (जीटूजी) के विकल्प का चुनाव करके भारत ने अपरोक्ष तौर पर बेहतर सौदा मूल्य हासिल किया। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि एमएमआरसीए प्रक्रिया के तहत सभी 36 राफेल विमान हमें उड़ान भरने योग्य स्थितियों में मिलेंगे। 126 लड़ाकू विमानों की खरीद की कोशिश की शुरुआत असल में 2001 में हुई थी। इस कार्य में 2007 से तेजी आई, लेकिन पिछले तीन वर्षो से इसके दाम को लेकर रुकावट बनी हुई थी। हालांकि भारतीय वायुसेना की युद्धक लड़ाकू विमानों की क्षमता तेजी से कम हो रही है।
पिछले कुछ वर्षो में एयरफोर्स के शीर्ष अधिकारियों ने सरकार को बार-बार चेतावनीपूर्ण संकेत देते हुए कहा कि परंपरागत युद्ध में यहां तक कि पाकिस्तान के खिलाफ भी वह अपनी क्षमता खो रहा है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने तीन यूरोपीय देशों की यात्र पर निकलने से पूर्व एक राजनीतिक निर्णय लिया कि राफेल युद्धक विमान को सरकार से सरकार (जीटूजी) विकल्प के माध्यम से फ्रांस से खरीदा जाए। इस पर उपलब्धि हासिल होने के बाद अब भारतीय वायुसेना दो वर्ष की समयावधि में राफेल युद्धक विमानों को अपने बेड़े में शामिल कर सकेगी और अपनी क्षमता को मजबूत कर सकेगी। सवाल यही है कि क्या जीटूजी के माध्यम से ही आगे की सभी खरीदारी को इसी तरह से अंजाम दिया जाएगा? यदि ऐसा है तो बहुप्रचारित मेक इन इंडिया अभियान का क्या होगा? अधिक राफेल विमानों की खरीदारी के विकल्प को देखते हुए मेक इन इंडिया की धारणा अभी एक दूर की कौड़ी है। हालांकि खरीदे जा रहे सभी 36 राफेल विमानों के संदर्भ में संकेत यही हैं कि आगामी पांच वर्षो में यह संख्या 60-63 से ऊपर नहीं जाएगी। यह जानते हुए कि 36 राफेल विमानों की खरीद से भारतीय वायुसेना की दीर्घ अवधि से चली आ रही कमी (2020 तक 12 नौसैनिक जहाजों के बेड़े सेवानिवृत्त हो जाएंगे) का समाधान नहीं होने वाला।
सरकार का जोर निर्धारित समयावधि में हंिदूुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) से तीन स्क्वॉड्रंस हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस, मार्क-2 हासिल करने पर होगा। इस दिशा में अंतिम कदम सुखोई-30 एमकेआइ युद्धक विमानों को खरीदने का होगा। इससे भी यह सवाल बना रहेगा कि बहुप्रचारित मेक इन इंडिया अभियान का क्या होगा? इस संदर्भ में सरकार की सोच यही है कि अधिकाधिक राफेल विमानों के आने से इसके निर्माता बाद में मुख्य उपकरणों और इसके उप-संयोजन (असेंबलिंग) के लिए भारतीय कंपनियों के साथ साङोदारी करेंगे। यह सब निकट भविष्य में होगा। यह स्पष्ट है कि शीर्ष स्तर पर दृढ़ राजनीतिक निर्णय से लंबे समय से चले आ रहे युद्धक विमानों की खरीदारी में चला आ रहा गतिरोध टूटेगा। हालांकि आगे लंबा रास्ता तय करना है, जिसके लिए बहुत सावधानी से योजना बनाने और कुशल प्रयासों की आवश्यकता होगी।
इस काम की जिम्मेदारी मनोहर पर्रिकर के कंधों पर आ गई है। जब पिछले साल के अंत में उन्होंने भारत के रक्षामंत्री का कार्यभार संभाला था, तो बहुत से रक्षा पंडितों ने इसका उपहास उड़ाया था। उनका मानना था कि गोवा जैसे छोटे से राज्य के एक नौसिखिये राजनेता की भला रक्षा मंत्रलय के जटिल मामलों पर क्या पकड़ होगी। छह माह से भी कम समय में इस मुसकुराते हुए चेहरे ने करीब एक दशक पुराना गतिरोध तोड़ते हुए जरूरी जेट विमानों की खरीदारी का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उन्होंने त्वरित फैसले लेने की अपनी क्षमता से सबको प्रभावित किया। दूरदर्शन पर इंटरव्यू में उन्होंने इस फैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौ में से सौ नंबर दिए और इस अप्रत्याशित फैसले में अपनी भूमिका को कमतर पेश किया। कार्यभार संभालने के बाद जब पर्रिकर लंबित परियोजनाओं और अन्य मसलों पर विचार कर रहे थे, तो उन्हें एहसास हुआ कि एमएमआरसीए का सौदा रक्षा मंत्रलय और दसाल्ट एविएशन के बीच तीन साल से वार्ताओं के बावजूद जस का तस पड़ा था। 2007 में प्रतिस्पर्धी निविदा में सबसे कम बोली के कारण दसाल्ट एविएशन का जेट विमानों की आपूर्ति के लिए चयन हुआ था। यह सौदा बेहद जटिल था। 126 लड़ाकू विमानों की लागत 16 से 18 अरब डॉलर के बीच आ रही थी। विद्यमान रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) के तहत किसी भी व्यक्ति के लिए इतनी बड़ी राशि से जुड़ा फैसला लेना बड़ा मुश्किल हो रहा था।
दूसरी तरह भारतीय वायुसेना जल्द फैसले के लिए दबाव डाल रही थी। इसे अपने बेड़े की तेजी से घटती ताकत को लेकर चिंता सता रही थी। पर्रिकर इस मुद्दे को प्रधानमंत्री के पास ले गए और इस गतिरोध को तोड़ने की जरूरत को समझाने में कामयाब रहे। मोदी की पेरिस यात्र से कुछ घंटे पहले दोनों एक अंतरिम हल पर पहुंच चुके थे- राफेल को सीधे सरकार से सरकार समझौते के माध्यम से खरीदा जाए, चाहे इस सौदे के लिए मेक इन इंडिया की शर्त को भी हटाना पड़े। प्रधानमंत्री ने पर्रिकर का खुलकर साथ दिया और फ्रांस को भारत के फैसले से अवगत करा दिया। हैरत की बात नहीं कि शंकालुओं ने इस फैसले की भी आलोचना की, किंतु मोदी और पर्रिकर दोनों ही स्पष्ट थे कि उन्हें किसी भी चीज से ऊपर भारतीय वायुसेना के हितों को वरीयता देनी है और उन्होंने यही किया भी।
सरकार को अगले चार सालों में रिटायर होने वाले दो सौ लड़ाकू विमानों की पूर्ति करने के लिए विस्तृत योजना पर काम करना होगा। पर्रिकर ने अपने साक्षात्कार में बताया था कि निकट भविष्य में होने वाली जेट विमानों की कमी पूरी करने के लिए वह क्या सोच रहे हैं। फिलहाल तो उन्होंने रक्षा मंत्रलय में अद्भुत निर्णायक क्षमता का प्रदर्शन किया है, जहां भारत के सबसे लंबे समय तक रक्षामंत्री रहे ए.के. एंटनी के कार्यकाल में फैसलों पर ग्रहण-सा लग गया था।(DJ)
(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

Tuesday 21 April 2015

हिंदी फिल्म ‘मैरी कॉम’ स्टाकहोम अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित

बॉलीवुड अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा अभिनीत और उमंग कुमार द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मैरी कॉम’ को स्वीडन में आयोजित ‘स्टाकहोम अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’ (जूनियर) में 19 अप्रैल 2015 को सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया गया.
भारत की ओलंपिक पदक विजेता मुक्केबाज मैरी कॉम के जीवन पर बनी इस फिल्म को समारोह में ‘ब्रोंज हॉर्स’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार इस समारोह का सबसे बड़ा पुरस्कार है. इस समारोह में ज्यूरी 9 से 18 साल के बच्चों को बनाया गया था.
विदित हो कि सितंबर 2014 में रिलीज ‘मैरी कॉम’ का प्रीमियर टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी किया गया था.

भारतीय मूल की राज राजेश्वरी न्यूयॉर्क में न्यायाधीश नियुक्त

भारतीय मूल की अमेरिकी महिला राज राजेश्वरी को 16 अप्रैल 2015 को न्यूयॉर्क में न्यायाधीश नियुक्त किया गया. ये पहला मौका है जब कोई भारतीय मूल का व्यक्ति न्यूयॉर्क में न्यायाधीश नियुक्त किया गया हो.
चेन्नई में जन्मी 43 वर्षीय राज राजेश्वरी 16 साल की उम्र से ही अमेरिका में हैं. उन्हें मेयर बिल डे ब्लेसियो ने न्यूयॉर्क न्यायालय के पीठ के लिए नामांकित किया था.
विदित हो कि एक वकील के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान राज राजेश्वरी ने दक्षिण एशियाई मूल के परिवारों में घरेलू उत्पीड़न के कई मामले को अपने स्तर पर न्यायालय में उठाया.

सियोल ने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ द्वारा आयोजित ग्लोबल अर्थ आवर केपिटल 2015 अर्थ सिटी चैलेंज जीता

साउथ कोरिया की राजधानी सियोल ने 9 अप्रैल 2015 को वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) द्वारा आयोजित अर्थ आवर सिटी चैलेंज में ग्लोबल अर्थ आवर केपिटल 2015 का ख़िताब जीता. इसमें 16 देशों के 163 शहरों ने भाग लिया.
पुरस्कार समारोह दक्षिण कोरिया के सियोल में आयोजित किया गया.
इंडोनेशिया के बलिक्पापन को वर्ष 2015 के सबसे प्रिय शहर की मान्यता दी गई और भारत के ठाणे को राष्ट्रीय अर्थ आवर केपिटल 2015 के रूप में नामित किया गया.
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपने व्यापक दृष्टिकोण तथा अक्षय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ाने के उपायों पर प्रभावी कदम उठाने के कारण सियोल को अर्थ आवर सिटी चैलेंज ज्यूरी द्वारा विजेता चुना गया.
सियोल द्वारा मौलिक उत्सर्जन को कम करने के लिए किये गए उपाय निम्नलिखित हैं-

सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए स्थानीय निवासियों के लिए उपयुक्त बजट का आवंटन.
हरित ईंधन द्वारा परिवहन उत्सर्जन को कम करना.
अधिक बस लेन का निर्माण तथा कार शेयरिंग प्रोग्राम पर बल देना.

ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 10 लाख टन तक कम करने के लिए सियोल ने एक महत्वाकांक्षी पहल की शुरुआत की जिसके तहत वर्ष 2020 तक सियोल 20 प्रतिशत विद्युत आत्म निर्भरता हासिल कर लेगा.
सियोल निम्लिखित 16 शहरों में से ग्लोबल अर्थ आवर केपिटल 2015 के रूप में चुना गया.
बेलो होरिज़ोंटे, ब्राजीलकॉर्डोबा, स्पेनयूवान्सटन, संयुक्त राज्य अमरीका, गोटेबोर्ग, स्वीडनहताई, थाईलैंड जकार्ता, इंडोनेशिया लाटी, फ़िनलैंड मोंटेरिया, कोलम्बिया पेरिस, फ्रांस पेटालिंग जाया, मलेशिया प्यूब्ला, मेक्सिको सिंगापुर शहर, सिंगापुर  ठाणे, भारत, त्श्वाने, दक्षिण अफ्रीका वैंकूवर, कनाडा

इससे पहले वर्ष 2014 में सियोल ने विशेष स्थान हासिल किया था और दक्षिण अफ्रीका के शहर केप टाउन ने यह ख़िताब जीता था जिसका सम्मान समारोह कनाडा के वैंकूवर शहर में हुआ.

प्रतिभागियों का मूल्यांकन

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के अर्थ आवर सिटी चैलेंज में मौजूद प्रतिभागियों को उनके द्वारा स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार कम से कम कार्बन उत्सर्जन के लिए किये गए विकास कार्यों के मूल्यांकन के तहत चुना गया.

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने वन्य जीवों के लिए ऑनलाइन निगरानी प्रणाली प्रारम्भ की

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 17 अप्रैल 2015 को वन्य जीवों के लिए ऑनलाइन निगरानी प्रणाली प्रारम्भ की. इसके तहत एक वेब आधारित पोर्टल ''ऑनलाइन सब्मिशन एण्ड मॉनिट्रिंग ऑफ एनवायरमेंटल फोरेस्ट एण्ड वाइल्ड लाइफ क्लीयरेंस'' (ओएसएमईएफडब्यूसी) का संचालन प्रारम्भ किया गया.
इस पोर्टल के माध्यम से पर्यावरण, वन और वन्य जीवन स्वीकृतियों के प्रस्तावों की प्रस्तुति और प्रभावी निगरानी में प्रबंधन जैसी सभी सुविधाओं को उपयोगकर्ता एजेंसियां इस एकल सुविधा पोर्टल से प्राप्त कर सकती हैं. इस पोर्टल में प्रस्तावों की संपूर्ण प्रक्रिया पर नजर रखने के साथ-साथ नये प्रस्ताव की ऑनलाइन प्रस्तु्ति, संपादन/प्रस्तावों के विवरणों को अद्यतन करने के अलावा कार्य के प्रत्येक स्तर पर प्रस्तावों की स्थिति भी प्रदर्शित होगी. इस प्रणाली का प्रमुख उद्देश्य कुशलता, पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के साथ-साथ नागरिकों की सुविधाओं को आसान बनाना और समय बद्धता के साथ कार्य को पूर्ण करना है.
विदित हो कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 और वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के प्रावधानों के अंतर्गत पर्यावरणीय और वन स्वीकृतियों की प्रस्तुति और निगरानी के लिए एक ऑनलाइन व्यवस्था की पहल की थी. जिससे अधिक से अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही लाने में मदद मिले.

विश्व विरासत स्थल हम्पी में गेको की नयी प्रजाति की खोज


गेको छिपकली की एक प्रजाति है, यह आमतौर पर गर्म जलवायु क्षेत्र में पाई जाने वाला प्राणी है. इसे उस्मानिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा हम्पी (कर्नाटक) के विश्व विरासत स्थल पर देखा गया.

गेको का नाम हैदराबाद के युवा हेर्पेटोलोजी शोधकर्ता आदित्य श्रीनिवासुलु के नाम पर नेमाप्सिस आदि रखा गया है.
विश्वविद्यालय के प्राणीशास्त्र शाखा के शोधकर्ताओं चेमाला श्रीनिवासुलु, जी चेथान एवं भार्गवी श्रीनिवासुलु ने पत्रिका ज़ूटाक्सा में गेको की खोज तथा इसके नाम का विवरण दिया.

गेको

यह गेको छिपकलियों के वर्ग से संबंधित है जिसकी पुतलियां गोलाकार हैं जबकि सामान्य गेको में यह ऊर्ध्वाधर होती हैं.

नेमाप्सिस आदि के शरीर पर मौजूद पृष्ठीय चिन्ह छोटे, समरूप, बारीक एवं वृताकार हैं. इसके उदर स्थल पर 22 से 26 चिन्ह मौजूद हैं.

खोज का महत्व

गेको की खोज इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सामान्यतया गेको की अन्य प्रजातियां प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी और पूर्वी घाट में पायी जाती हैं. ऐसा पहली बार हुआ है जब गेको प्रजाति को पूर्वी और पश्चिमी घाट के बीच प्रायद्वीपीय भारत के मध्य क्षेत्र में पाया गया.

यह खोज इस ओर भी इंगित करती है कि हम्पी और आसपास के क्षेत्रों में जैव विविधता काफी समृद्ध है तथा नवीन खोजों के लिए इस क्षेत्र में शोध की आवश्यकता है.

केंद्र सरकार ने हिंदी दिवस पर दिए जाने वाले पुरस्कारों से इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का नाम हटाया

केंद्र सरकार के राजभाषा विभाग ने हिंदी दिवस पर दिए जाने वाले पुरस्कारों के नामों से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का नाम हटा दिया. राजभाषा विभाग ने इन पुरस्कारों का नया नामकरण किया है. ये पुरस्कार हिंदी के प्रगतिशील तरीके से उपयोग के लिए प्रतिवर्ष दिए जाते हैं.
राजभाषा विभाग के निर्देश के अनुसार, वर्ष 1986 में शुरू किया गया 'इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार' अब 'राजभाषा कीर्ति पुरस्कार' के नाम से, जबकि 'राजीव गांधी राष्ट्रीय ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार' को अब 'राजभाषा गौरव पुरस्कार योजना' के नाम से जाना जाएगा.
विदित हो कि ये पुरस्कार राष्ट्रपति द्वारा प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के मौके पर मंत्रालयों, पीएसयू, केंद्र सरकार के अधिकारियों को दिया जाता है.

सांसद आदर्श ग्राम योजना

सांसद आदर्श ग्राम योजना  
सांसद आदर्श ग्राम योजना की घोषणा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा भारत के 68वें स्वतंत्रता दिवस समारोह में की गई थी. योजना का शुभारम्भ प्रधानमंत्री द्वारा 11 अक्टूबर 2014 को समाज सुधारक और नेता जय प्रकाश नारायण की जयंती पर किया गया.
             योजना के तहत प्रत्येक सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र से गाँव का चयन करना होगा साथ ही 2016 तक एक और 2019 तक तीन गाँवों को मॉडल गाँवों यानी आदस्ढ़ गाँव के रूप में विकसित करना होगा. इसके बाद ऐसे ही पाँच गाँव का चयन किया जाएगा और उन्हें 2024 तक विकसित किया जाएगा.

 योजना का उद्देश्य

यह योजना समग्र विकास के दृष्टिकोण से एक अद्वितीय और परिवर्तनकारी योजना है. इस योजना का उद्देश्य सिर्फ बुनियादी ढांचों का विकास नहीं है. इस योजना के तहत एकीकृत विकास की अवधारणा को सम्मलित किया गया है. योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्र के कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, पर्यावरण, और आजीविका के विकास पर ध्यान दिया जाएगा. आधारभूत संरचना के विकास से परे इस योजना का उद्देश्य विकास में लोगों की भागीदारी बढ़ाना, लिंग असमानता को समाप्त करना, ग्रामीणों को सामाजिक न्याय प्रदान करना, लोगों में समाज सेवा, सफाई  और पर्यावरण मित्रता की भावना को जगाना. ताकि वह अन्य लोगों के लिए आदर्श बने. अतः योजना के तहत विकास का अर्थ सामजिक और सांस्कृतिक विकास के साथ लोगों में जागरूकता लाना भी है.

 सांसद आदर्श ग्राम योजना के घटक

• योजना के तहत सांसदों को मैदानी क्षेत्रों में ऐसे गाँव का चयन करना होगा जिसकी आबादी 3000 से 4000 तक हो. जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में 1000 से 3000 आबादी वाले गाँव का चयन करना होगा.
• सांसद गाँव को आदर्श गाँव के रूप में विकसित करने के लिए खुद के या अपनी दंपत्ति के गाँव का चयन नहीं कर सकते.
• सांसदों को गाँव के विकास का खाका तैयार करना होगा साथ ही लोगों को विकास में भागीदार बनने के लिए जागरूक करना होगा.
•  योजना के तहत स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा का विकास किया जाएगा. स्कूलों में दिए जाने वाले मिड डे की गुणवत्ता को सुधारा जाएगा. सरकार की ओर से प्रदान की जाने वाली सुविधाओं को जरूरतमंदो तक पहुचाने के लिए आधार नामांकन को बढ़ावा दिया जाएगा. साथ ही मनरेगा और पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष की मदद से स्मार्ट स्कूल, ई-पुस्तकालयों और पंचायत अवसंरचना का विकास किया जाएगा.

योजना के अंतर्गत सांसदों द्वरा चयनित ग्राम निम्नलिखित हैं
  
 1. नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के जयापुर गाँव का चयन किया.
 2. सोनिया गांधी ने रायबरेली में उडवा गाँव का चयन किया.
 3. राहुल गांधी ने अमेठी के गांव दीह का चयन किया.
 4. वीके सिंह ने गाजियाबाद के हिन्दू मीरपुर
 5. सचिन तेंदुलकर ने आंध्र प्रदेश के पुत्तमराजू वारि कन्द्रिगा गाँव का चयन किया.

यह योजना महात्मा गांधी के सिद्धांतों और मूल्यों से प्रेरित है यह योजना राष्ट्रीय गौरव, देशभक्ति, सामुदायिक भावना, आत्मविश्वास के मूल्यों के पोषण पर और बुनियादी ढांचे के विकास पर बराबर ध्यान आकर्षित करती है. सांसद आदर्श ग्राम योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र को मूलभूत सुविधा मुहैया कराते हुए ग्रामीण भारत की आत्मा को जीवित रखना है. ताकि ग्रामीण लोग अपनी नियति स्वयं लिख सकें.

भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपना अप्रैल 2015 का मासिक बुलेटिन

भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपना अप्रैल 2015 का मासिक बुलेटिन जारी किया
भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने मासिक बुलेटिन का अप्रैल 2015 अंक जारी किया। इस बुलेटिन में वर्ष 2015-16 के लिए पहली द्विमासिक मौद्रिक नीति पर गवर्नर का वक्तव्य, मौद्रिक नीति रिपोर्ट-अप्रैल 2015 और शीर्ष प्रबंध तंत्र के भाषण तथा वर्तमान सांख्यिकी शामिल है। इसमें दो आलेख – 1. गैर-सरकारी गैर-वित्तीय सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों का वित्त, 2013-14 और 2. भारत का विदेशी व्यापारः 2014-15 (अप्रैल-दिसंबर) भी शामिल हैं।
1. गैर-सरकारी गैर-वित्तीय सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों का वित्त, 2013-14
यह आलेख अप्रैल 2013 से मार्च 2014 तक की अवधि के दौरान 4,388 चयनित गैर-सरकारी गैर-वित्तीय (एनजीएनएफ) सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों के लेखापरीक्षित वार्षिक लेखों के आधार पर उनका वित्तीय निष्पादन प्रस्तुत करता है।
प्रमुख निष्कर्ष:
वर्ष 2013-14 में चयनित एनजीएपएफ सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों के समग्र परिणामों ने वर्ष 2012-13 के परिणामों की तुलना में प्रमुख मानदंडों की वृद्धि दर में नरमी दर्शाई।
बिक्रि वृद्धि के मामले में ‘निर्माण’ क्षेत्र, विनिर्माण क्षेत्र में ‘सीमेंट और सीमेंट उत्पाद’, ‘मोटर वाहन और अन्य परिवहन उपकरण’ उद्योग तथा सेवा क्षेत्र में ‘माल ढुलाई और भंडारण’ तथा ‘स्थावर-संपदा’ उद्योग सबसे अधिक प्रभावित हुए।
वर्ष 2013-14 में ब्याज, कर, अवमूल्यन और परिशोधन पूर्व अर्जन की वृद्धि में गिरावट आई। निवल लाभ भी वर्ष 2013-14 में कम हो गया।
वर्ष 2013-14 में अधिकांश खंडों में लाभ मार्जिन और इक्विटी पर प्रतिलाभ में गिरावट आई।
इस अध्ययन अवधि के दौरान चयनित कंपनियों का लीवरेज़ अनुपात बढ़ता रहा जबकि ब्याज कवरेज़ अनुपात में कमी आई। माल ढुलाई उद्योग ब्याज कवरेज़ अनुपात एक से कम रहते हुए यह उच्च लीवरेज़ उद्योग रहा। वर्ष 2013-14 में चीनी उद्योग वाली कंपनियों का लीवरेज़ अनुपात उच्च रहा और ब्याज कवरेज़ अनुपात में भारी गिरावट हुई।
वर्ष 2013-14 में कंपनियों द्वारा बाह्य स्रोतों से प्राप्त की गई निधियों में वृद्धि हुई।
स्थायी आस्ति निर्माण के लिए प्रयुक्त निधियों की हिस्सेदारी कम रही जबकि गैर-चालूनिवेश पिछले वर्ष की तुलना में अधिक रहा।
2. भारत का विदेशी व्यापारः 2014-15 (अप्रैल-दिसंबर)
मुख्य-मुख्य बातें:
निर्यात वृद्धि अप्रैल-दिसंबर 2013 के 6.6 प्रतिशत से घटकर अप्रैल-दिसंबर 2014 में 4.0 प्रतिशत हो गई।
तुलनात्मक भारित योगदान के मामले में अभियांत्रिकी माल और तैयार वस्त्रों ने निर्यात वृद्धि में सबसे अधिक योगदान दिया। लौह-अयस्क, तेल खाद्य पदार्थ और इलेक्ट्रॉनिक सामान का नकारात्मक योगदान रहा।
यद्यपिक अमेरिका और यूएई से मांग बढ़ी है, किंतु यूरोपीय यूनियन, चीन और कुछ खाड़ी देशों को किए जाने वाले निर्यात में काफी कमी आई।
अप्रैल-दिसंबर 2014 के दौरान अंतरराष्ट्रीय पण्य-वस्तुओं की कीमतों में गिरावट आने से, आयात में पिछले वर्ष की इस अवधि में 7.0 प्रतिशत की गिरावट की तुलना में 3.6 प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर्ज की गई।
जबकि गैर-तेल गैर-स्वर्ण और स्वर्ण की आयात मांग में वृद्धि हुई किंतु अप्रैल-दिसंबर 2013 की तुलना में अप्रैल-दिसंबर 2014 में पीओएल आयात कम हुआ।
चीन भारत के आयात का शीर्ष स्रोत रहा, इसके बाद साउदी अरब, यूएई, स्विट्जरलैंड और अमेरिका रहे।
अप्रैल-दिसंबर 2014 में निर्यात से अधिक आयात होने से भारत का व्यापार घाटा अप्रैल-दिसंबर 2013 के दौरान 107.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर की तुलना में थोड़ा बढ़कर 110.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया।

पश्चिम भी समझ रहा हमारी अहमियत (रहीस सिंह)


प्रधानमंत्री बनने के लगभग दस माह बाद नरेन्द्र मोदी उत्तरी गोलार्ध के उन देशों की यात्रा पर गये जिनमें से कम से कम दो देश नियंतण्र अर्थव्यवस्था व कूटनीति में खासा दखल रखते हैं। इसलिए यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि प्रधानमंत्री की इस यात्रा के निहितार्थ देशहित की दृष्टि से निर्णायक होंगे। लेकिन कूटनीति जिन आयामों को लेकर चलती है, यदि वे सभी यात्रा का हिस्सा न बनें तो उसे किसी ऐतिहासिक उपलब्धि की श्रेणी में रख पाना मुश्किल होता है। सवाल है कि क्या इस यात्रा में कूटनीतिक स्तर के वे सभी आयाम शामिल थे, जो भारत की चिंता से जुड़े हैं? कुछ सवाल और भी हैं? पहला, क्या उत्तरी गोलार्ध के इन देशों से जुड़ने का हमारा दृष्टिकोण परंपरागत ही है या हम किसी नये रोडमैप के साथ इनसे जुड़ने जा रहे हैं? दूसरा भारत के समक्ष इस समय असल चुनौती क्या है? जब तक इसका उत्तर नहीं मिल जाता तब तक उपलब्धियों की र्चचा उतनी सार्थक नहीं मानी जाएगी जिसकी अपेक्षा है।फ्रांस के साथ भारत के रिश्ते पहले से ही अच्छे रहे हैं और फ्रांस सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी दर्जा दिए जाने के पक्ष में रहा है। प्रधानमंत्री ने पेरिस, टुलुस और न्यूव चैपल, जो प्रथम विश्वयुद्ध से जुड़े युद्ध स्थल हैं- की यात्रा कर इन संबंधों को सांस्कृतिक और संवेदना के धरातल पर उतारने का प्रयास किया। लेकिन इनका प्रयोग भारत के हित में कितना हो पाया, यह स्पष्ट नहीं है। हां फ्रांस की कंपनियां भारत की विकास संबंधी संभावनाओं पर दांव लगातीं अवश्य दिखीं। भारत ने क्योंकि फिर से आर्थिक विकास की गति तेज करने में सफलता प्राप्त कर ली है और कुछ नियंतण्र संस्थाएं आने वाले दिनों में भारत को चीन से आगे दिखाने लगी हैं, इसलिए फ्रांसीसी कंपनियों की भारत में दिलचस्पी और भी बढ़नी चाहिए। लेकिन लगता है कि फ्रांस की ज्यादा दिलचस्पी भारत को रक्षा हथियार बेचने में है, क्योंकि उनका मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स मंदी की ओर जाता दिख रहा है। वैसे भी फ्रांस भारत के साथ रक्षा संबंधों को लंबे समय से मजबूत करता हुआ दिख रहा है, जैसा ‘‘शक्ति’ नाम का संयुक्त सैन्य व ‘‘वरुण’ नामक नौसैन्य अभ्यास देखकर कहा जा सकता है। यही नहीं, फ्रांस भारत को अधुनातन हथियारों की आपूत्तर्ि करने वाले शीर्ष देशों में शामिल है। ऐसे में लड़ाकू राफेल विमान सौदा इस साझेदारी को और पुख्ता बनाएगा। शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस के 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने संबंधी समझौता किया है, अन्यथा इस सौदे की पेचीदगियों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए थी। इसमें संशय नहीं कि राफेल के आने से भारत के फाइटर स्क्वैड्रन की ताकत बढ़ जाएगी, जो लगातार कम हो रही थी लेकिन इस विमान सौदे को लेकर कुछ सवाल उठ रहे हैं और उसकी मुकम्मल वजहे हैं इसलिए उनका समाधान भी होना चाहिए था।सरकोजी युग की समाप्ति और होलांद के समाजवादी मॉडल की शुरुआत के बाद, भारत के फ्रांस के साथ रिश्ते स्टैंडबाइ मोड पर चले गये थे जिन्हें फिर से सक्रिय करना जरूरी था। हालांकि फ्रांस के साथ भारत परमाणु ऊर्जा और रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समझौते कर चुका है लेकिन भारत की फ्रांस से व्यापारिक साझेदारी बहुत कमजोर है। उल्लेखनीय है कि फ्रांस के 8000 अरब यूरो के ग्लोबल व्यापार में भारत का हिस्सा मात्र 0.51 प्रतिशत है। इससे भारत की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। अब फ्रांस चाहता है कि भारत अपने रिटेल बाजार को पूरी तरह खोल दे। परमाणु क्षतिपूर्ति उत्तरदायित्व कानून को नरेन्द्र मोदी सरकार पहले ही ढीला कर चुकी है इसलिए इस मोर्चे पर ठीक साझेदारी होने की संभावना है। आने वाले समय में संभव है कि रिटेल सेक्टर को और भी ओपन किया जाएगा। फिलहाल इस यात्रा के दौरान नई दिल्ली और पेरिस के बीच जिन 17 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं, विशेषकर रेलवे, स्पेस रिसर्च, परमाणु ऊर्जा, विज्ञान और तकनीकी और मैरीन टेक्नोलॉजी- उससे भारत के इन्फ्रास्ट्रक्चर, एनर्जी और रक्षा क्षेत्र को गति मिल सकती है।रही बात जर्मनी के साथ संबंधों की तो वहां से भारत की आर्थिक जरूरतें ज्यादा पूरी हो सकती हैं। वह 12 प्रतिशत बेरोजगारी की दर से गुजर रहा है इसलिए उसकी सकल मांग घट रही है। ऐसे में उसकी कंपनियों को बाहर स्पेस चाहिए और भारत इसके लिए अनुकूल हो सकता है। यानी हमारी सरकार को भले ही लगे कि यह मेक इन इंडिया को मजबूती देने वाला है लेकिन वास्तव में यह ‘‘टू मेक स्ट्रांग जर्मन कम्पनीज’ के उद्देश्य को पूरा मजबूत करने वाला होगा। वैसे मर्केल का जोर पहले से ही भारतीय बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाए जाने और यूरोपीय ऑटो कंपनियों के उत्पादों पर आयात शुल्क कम करने की मांगों पर रहा है, जिन पर पिछली सरकार हामी भर चुकी थी और मोदी सरकार कुछ कदम उठा भी चुकी है। अभी तो उम्मीद की ही जा सकती है कि हैनोवर मैसे का लाभ भारत को मिलेगा। कारण, इसमें न केवल भारत के लगभग 400 लोगों ने हिस्सा लिया था बल्कि बल्कि दुनिया भर के 70 से ज्यादा देशों से लगभग 6,500 प्रदर्शकों ने हिस्सा लिया था जिसमें तमाम कंपनियों के प्रमुख कार्याधिकारी भी शामिल थे और प्रधानमंत्री ने उन पर जादू बिखेरने की कोशिश की थी। उन्होंने केवल जर्मन निवेशकों से ही भारत में निवेश की अपील नहीं की बल्कि यह भी कहा कि भारत पूरे विश्व का खुली बांहों से स्वागत करने को तैयार खड़ा है। लेकिन, भले ही प्रधानमंत्री मोदी यह कहकर जर्मनी को लुभाने की कोशिश कर रहे हों कि किसी भी पश्चिमी देश के मुकाबले जर्मनी ने भारत के व्यापार जगत का लाभ उठाने की ओर सबसे अधिक काम किया है लेकिन जर्मनी के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अंतरिम आंकड़ों के अनुसार 2014 में जर्मनी और भारत के बीच कुल 15.9 अरब यूरो (16.8 अरब डलर) का व्यापार हुआ है और यह मात्रा पिछले तीन वर्षों से लगातार कम होती गयी है। व्यापार की मात्रा की दृष्टि से भारत इस समय जर्मनी के व्यापारिक साझेदारों में 25वें स्थान पर है। महत्वपूर्ण यह कि इस वह रोमानिया, स्लोवाकिया, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से भी पीछे है और चीन के मुकाबले तो बहुत ही पीछे है। चीन जर्मनी का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि हैनोवर मैसे में भारत के प्रधानमंत्री विदेशी निवेशकों या दुनिया की कुछ कंपनियों के कार्यकारी अधिकारियों को कुछ समय के लिए तो रिझा सकते हैं लेकिन वास्तव में जब तक देश गुणवत्तापरक उत्पादों (क्वालिटी प्रोडक्ट्स) के क्षेत्र में पहचान नहीं बनाता, उसे बाजार प्रतिस्पर्धा या मेक इन इंडिया क्षेत्र में खास लाभ मिलने वाला नहीं है।दोनों यूरोपीय देशों के मुकाबले कनाडा आर्थिक मोर्चे पर भारत के लिए कम उपयोगी है। लेकिन ऊर्जा साझेदारी के लिहाज से सबसे बेहतर हो सकता है। कारण, कनाडा दुनिया का दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा यूरेनियम उत्पादक देश है। प्रधानमंत्री की कनाडा यात्रा के दौरान यूरेनियम आपूत्तर्ि को लेकर जो करार भारत-कनाडा के बीच हुआ है, उसके अनुसार अगले पांच वषों में भारत कनाडा से तीन हजार टन से ज्यादा यूरेनियम खरीदेगा जिसका इस्तेमाल भारत अपने परमाणु कार्यक्रम में करेगा। कनाडा की कोमेको कंपनी के साथ किये गये यूरेनियम करार के साथ कई अन्य समझौतों पर भी हस्ताक्षर हुए हैं जिनमें रेलवे, नागरिक विमानन, शिक्षा एवं कौशल विकास संबंधी समझौते भी शामिल हैं। बहरहाल, प्रधानमंत्री की यूरोप व कनाडा यात्रा से कोई ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल होती नहीं दिख रही है, केवल परंपरागत कूटनीतिक-आर्थिक सम्बंध ही कुछ कदम आगे बढ़े हैं। फिर भी यदि भारत स्किल, टेक्नॉलॉजी, इन्फ्रास्ट्रक्चर, कार्य संस्कृति, बिजनेस इनवायरमेंट और गवन्रेंस के क्षेत्र में पुनरुद्धार की प्रक्रिया आरम्भ कर सके, तो इसके लाभ मिल सकते हैं। पुनरुद्धार से पूर्व बहुत ज्यादा उम्मीद करना स्थितियों की अनदेखी होगी।(RS)
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)