प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 11 महीनों में 15 देशों की यात्राएं की
हैं और इनसे हमने कुछ खोया नहीं बल्कि हासिल ही किया है। उनकी हाल की
फ्रांस, जर्मनी और कनाडा की यात्रा यकीनन शानदार रही है। पश्चिमी देशों में
इससे भारत की पैठ और बढ़ेगी। इस बार की यात्रा से चरमपंथ के खिलाफ अभियान,
यूरेनियम आपूत्तर्ि, सुरक्षा परिषद की दावेदारी में सहयोग, अंतरराष्ट्रीय
मंचों पर साथ देने जैसे बिंदुओं पर हमने थोड़ा और प्रगति की है। लेकिन सबसे
ज्यादा र्चचा में जो मसला है वह लड़ाकू विमान राफेल से जुड़ा है। हालांकि
बहुत से लोग इसको बेहतरीन सौदा बता रहे हैं लेकिन ऐसे लोग मसले को केवल एक
एंगल से देख रहे हैं। सौदे को अच्छा-खराब के नजरिए से नहीं बल्कि हमारी
जरूरत के नजरिए से देखा जाना चाहिए। सच पूछें तो इसमें कुछ अच्छी बातें हैं
और कुछ आपत्तियां भी। राफेल समझौते पर गौर करें तो पाएंगे कि इसमें कई ऐसी
बातें हुई हैं जो तयशुदा रास्ते से अलग हैं। शुरू में जो तय हुआ, उसके
मुताबिक केवल 18 विमान फ्रांस से आने थे और बाकी 18 को भारत में ही जोड़ा
जाना था। अब जो तय हुआ है उसके मुताबिक सभी 36 विमान फ्रांस से तैयार रुप
में ही भारत आएंगे। राफेल को लेकर फ्रांस से जब शुरू में बातचीत हुई थी तो
कुल 126 विमानों की खरीदारी की बात सामने आई थी। 36 के अलावा जो विमान
आएंगे उसके बारे में अभी ज्यादा स्पष्ट नहीं है। हालांकि उम्मीद यह जताई जा
रही है कि पहले दौर के 36 विमानों की खरीदारी के बाद इस संबंध में बातचीत
होगी। जो विमान आ रहे हैं वे हमारे लिए जरुरी हैं। इससे हमारे कमजोर हो रहे
फाइटर स्क्वैड्रन को मजबूती मिलेगी। यकीनन राफैल एक शानदार लड़ाकू विमान
है लेकिन इसे लेकर जो आपत्तियां हैं उन्हें भी खारिज नहीं किया जा सकता है।
इस मामले में भाजपा नेता सुब्रम्णयम स्वामी ने जो तर्क रखे, वे अपनी जगह
सही हैं। उनका कहना सही है कि राफेल में अभी सभी अत्याधुनिक कल पुज्रे नहीं
लगे हैं। इसमें अब तक आधुनिक रडार सिस्टम ईएसए भी नहीं लगा है। फ्रांसीसी
कंपनी द सॉल्त अगर इसे खरीदने को तैयार होती है तो वे रडार के रिसर्च में
पैसे लगाएंगे। सौदा होने के बाद शायद कंपनी ने इस पर काम करना शुरू कर दिया
है। माना जा रहा है कि अगले दो साल में ये विमान भारत को सुधरे हुए रूप
में मिल जाएंगे। दरअसल हमारी वायुसेना को कई सालों से ऐसे विमान की जरूरत
थी। चीन और पाकिस्तान जैसे प्रतिद्वंद्वी को देखकर यह जरूरत और बढ़ गई थी।
राफेल ब्रह्मोस जैसी छह मिसाइलें एक साथ ले जा सकता है। एक बार में इसकी
उड़ान भरने की रेंज 3700 किलोमीटर है। अभी फ्रांसीसी कंपनी द सॉल्त के दो
खरीदार हैं। एक खुद फ्रांस की सरकार और दूसरा इजिप्ट। गौर करने वाली बात है
कि इजिप्ट ने हाल में 26 राफेल विमान खरीदने की घोषणा की है। इजिप्ट सरकार
ने संकेत भी दिए हैं कि इस संख्या को बढ़ाकर वह 40 करने वाली है। इस विमान
की खरीदारी में एक-दो अन्य देश भी दिलचस्पी दिखा रहे हैं, लेकिन सबसे
महत्वपूर्ण खरीदार भारत ही है। रही बात प्रदर्शन की तो इस विमान का तजरुबा
अब तक फ्रांसीसी सेना को छोड़ किसी के पास नहीं है। फ्रांसीसी सेना ने सबसे
पहले इसका इस्तेमाल अमेरिकाके साथ संयुक्त सैन्य युद्धाभ्यास में किया। दो
साल पहले माली के इस्लामी चरमपंथियों के खिलाफ इसका बखूबी इस्तेमाल हुआ।
हाल के दिनों में इराक में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ भी इसका बेहतरीन प्रयोग
किया गया। इसकी बेहतरीन टेक्नालॉजी को देखकर ही भारत ने इसमें दिलचस्पी
दिखाई। इस संबंध में सबसे पहले 2007 में निविदा निकाली गई। इसके बाद दो साल
सेज्यादा तो ट्रायल में ही बीत गए। हमारे एयरफोर्स ने उस समय छह विमानों
का ट्रायल किया जिसमें सबसे बेहतर राफेल ही पाया गया। एयरफोर्स की राय
जानने के बाद रक्षा मंत्रालय ने 2012 इसकी खरीदारी को लेकर सौदेबाजी करनी
शुरू की। सौदेबाज अब पूरी हुई दिख रही है। हालांकि अगर खरीदारी 36 विमानों
तक ही सीमित रह जाती है तो कई मामलों पर गौर करना होगा। अगर आगे खरीदारी
नहीं करनी है तो रख-रखाव के तरीके और ऑपरेशन के लिहाज से इसकी खरीदारी का
तुक नहीं बनता। 36 विमानों का मतलब वायुसेना के लिए दो स्क्वैड्रन होता है।
इस समय हमारी एयर फोर्स को छह से सात स्क्वैड्रन की जरूरत है। वायुसेना के
बेड़े में शामिल मिग-21 विमान अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं। मिग-27 और
मिग-29 भी अगले कुछ सालों में रिटायर होने वाले हैं। अभी बेड़े में केवल
सुखोई विमान ऐसे हैं जो हमारे शक्ति संतुलन को ठीक बनाए हुए हैं। बेशक
राफेल हमारी जरूरत है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी जरूरतें और भी
हैं। वास्तव में सेना के लिए नए विमान ही नहीं, अन्य सैन्य साजो-सामान भी
बहुत अनिवार्य हैं। दरअसल हमारा 70 से 80 प्रतिशत सैन्य साजो सामान पुराना
है। 60 के दशक के बने ये सामान हमारे यहां 70-80 के दशक में आयात किए गए।
इइ मामले में हमें यह विचार भी करना चाहिए कि ये सामान हम खरीदें या इसे
स्वदेशी तकनीक से अपने ही यहां निर्मित करें। फिलहाल हमारी रक्षा कंपनियां
ज्यादातर सामन बाहर से खरीदती हैं। कुल सामान का करीब 72 प्रतिशत आयात होता
है। पिछले दस सालों में हमने करीब 30 अरब डॉलर के हथियार आयात किए हैं और
अगले छह-सात सालों में हमें मौजूदा पुराने हथियारों को बदलने के लिए 80 से
100 अरब डॉलर खर्च करने होंगे। हथियार खरीदने में चीन, भारत और पाकिस्तान
में एक किस्म की होड़ मची है। हालांकि चीन अब रिवर्स इंजीनियरिंग के जरिए
बाहर के हथियारों को घर में ही निर्मित कर रहा है पर हम ऐसा नहीं कर पा रहे
हैं। अपना देश घरेलू हथियारों के निर्माण में काफी पिछड़ रहा है। इधर
लगातार घरेलू रक्षा उद्योग को बढ़ावा देने की बात गंभीरता से चल रही है।
पिछले कुछ सालों में रक्षा सौदों में हुए कुछ कथित घोटालों के चलते पिछली
सरकार ने फैसला लेना धीमा कर दिया था। नई सरकार इसमें तेजी लाई है। हालांकि
पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी ने अपने कार्यकार्य के अंतिम दो सालों में
भी इसे लेकर गंभीर प्रयास किए थे। इधर, इसे लेकर कुछ प्रयास भी किए गए हैं।
फिर भी इतना याद रखना होगा कि रक्षा उद्योग को विकसित करने के गंभीर
प्रयास जब भी शुरू किए जाएं, उसके दो दशक बाद ही परिणाम दिखता है। इस हिसाब
से हमें भी कम से कम 16-17 साल आत्मनिर्भर होने में लगेंगे। दूसरा
महत्वपूर्ण पक्ष है कि रक्षा उद्योग को मजबूती देने के लिए राजनीति बंद
करनी होगी। सेना और राजनेताओं को तेजी से फैसले लेने होंगे। भारत इस मामले
में बहुत कमजोर स्थिति में है। हालात नहीं बदले तो भविष्य में सैन्य साजो
सामान का आयात नहीं रुकेगा। (लेखक रक्षा मामलों के जानकार हैं)(RS)
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