Saturday 25 April 2015

इस दोस्ती से आशंका स्वाभाविक (सी उदय भास्कर)

चीन की नीयत पर सवालिया निशान लगना वाजिब है। जो आर्थिक गलियारा बनना है उससे पाक अधिकृत कश्मीर वाले क्षेत्रों का मुद्दा और गहराएगा। पीओके को लेकर हमारी चिंता और बढ़ने वाली है। चीन पहले भी आधिकारिक तौर पर पाक अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखाता रहा है भारत को अब बहुत सतर्क होकर प्रतिक्रिया देनी होगी। एक ओर चीन के साथ उसे आर्थिक संबंध सुधारने हैं, दूसरी तरह यह भी देखना है पाकिस्तान-चीन की जोड़ी क्या गुल खिलाने जा रही है
सस्ती अच्छी चीज है। दो दोस्तों के बीच की भावना की आप कद्र कर सकते हैं, लेकिन जब दो देशों की दोस्ती का मकसद व्यापक हित में न हो तो सवाल उठना वाजिब है। और जब बात पाक-चीन की दोस्ती की हो तो क्या कहने! भारत की ओर से ही नहीं, दूसरे देशों का भी इसे लेकर आशंकित होना कोई नई बात नहीं। दरअसल एक तरफ ऐसा देश है जो लगातार दूसरों की मदद लेकर आतंकवाद का पालन-पोषण करता रहा है। दूसरी तरफ एक ऐसा देश है जो सामरिक मामलों में बहुत ही ज्यादा महत्वाकांक्षी है और येन केन प्रकारेण विश्व का सबसे ताकतवर देश बनना चाहता है। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी बहुचर्चित यात्रा के दूसरे दिन 21 अप्रैल को पाक संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि पाकिस्तान में एशियन टाइगर बनने की क्षमता है। पाक-चीन की दोस्ती हिमालय से भी ऊंची, महासागर से भी गहरी और शहद से भी मीठी है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भी कहा कि चीन-पाक सही मायनों में भाई-भाई जैसे हैं। गौर करने वाली बात है कि चीनी राष्ट्रपति के पाक आगमन के पहले पाकिस्तानी मीडिया ने शी जिनपिंग का एक लेख प्रकाशित किया जिसमें उनके हवाले से कहा गया कि यद्यपि यह मेरी पहली पाकिस्तान यात्रा है फिर भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं अपने भाई से मिलने जा रहा हूं। उनकी बातों से कोई नई भावना नहीं झांक रही। यात्राएं हो न हों, दोनों के संबंध कई दशकों से विशिष्ट रहे हैं। पाक को चीन की लगातार शह मिलती रही है। अमेरिका से पाकिस्तान के संबंध भले ही बनने-बिगड़ने वाले रहे हों, लेकिन चीन-पाक संबंध का ग्राफ कमोबेश हमेशा एक-सा रहा है। इसकी नींव साठ के दशक में तभी से पड़ गई थी, जब भारत-चीन की दोस्ती में विष घुल गया था। चीन के लिए पाकिस्तान एशिया के सबसे महत्वपूर्ण देशों में है। वह जानता है पाकिस्तान के साथ भारत के प्रतिकूल संबंध हैं। दूसरी तरफ अमेरिका अब भारत से बेहतर संबंध चाहता है। ऐसे में चीन को पाकिस्तान में अपनी मौजूदगी पुख्ता करने में आसानी होती है। चीन उसके लिए महत्वपूर्ण सामरिक अड्डा है। पाकिस्तान के साथ अपने संबंध को चीनी राष्ट्रपति ने ऐतिहासिक बताया है। उन्होंने अपने लेख में यहां तक जिक्र किया कि 1949 की क्रांति के बाद पाकिस्तान ने अपने वायु इलाके को चीन के लिए खोल दिया था ताकि उसे दुनिया के अन्य देशों तक पहुंच बनाने में दिक्कत न हो। शी जिनपिंग की ओर से यह भी याद दिलाया गया कि पाकिस्तान ने चीन की यूएनओ में स्थायी सदस्यता का समर्थन किया था। दरअसल वे पाकिस्तान के साथ-साथ दुनिया को भी याद दिलाना चाहते हैं कि पाकिस्तान के साथ चीन के संबंध ऐतिहासिक हैं। चीनी राष्ट्रपति ने दिखाया कि संबंध ऐतिहासिक तो हैं ही, वर्तमान में भी प्रगाढ़ हैं। यही कारण है कि इस बार दोनों के बीच 51 मसलों पर हस्ताक्षर हुए हैं। इसके तहत चीन पाकिस्तान में 46 अरब डॉलर का निवेश करेगा। यह राशि कितनी विशाल है यह इसी बात से पता चलता है कि 2002 से अब तक अमेरिका ने पाकिस्तान को 15 अरब डॉलर की सहायता दी है। यह राशि पाकिस्तान की जिन बड़ी परियोजनाओं पर खर्च की जानी है, उसका लाभ पाकिस्तान को तो होगा ही, लेकिन ज्यादा और दीर्घकालिक लाभ चीन को मिलेगा। चीन सबसे ज्यादा रकम प्राचीन सिल्क रूट मार्ग को फिर से तैयार करने पर खर्च करेगा। इसके जरिए उसकी योजना पश्चिमी एशिया होते हुए यूरोप से जुड़ने की है। इस रास्ते के जरिए न केवल उसका सामरिक महत्व इन इलाकों में बढ़ेगा, बल्कि उसकी ऊर्जा जरूरतें काफी हद तक पूरी हो जाएंगी। इससे पश्चिमी एशिया से तेल आयात करना काफी सस्ता पड़ेगा। चीन द्वारा पाकिस्तान को दी जा रही राशि का एक बड़ा लक्ष्य चीन-पाकिस्तान के बीच आर्थिक गलियारे का निर्माण है। यह गलियारा अरब सागर के तट पर मौजूद पाकिस्तानी बंदरगाह ग्वादर को उत्तर पश्चिम चीन के शिनजियांग से जोड़ेगा। पाकिस्तान को उम्मीद है कि 2030 तक पूरी होने वाली इस योजना से अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव कम हो जाएगा। दूसरी तरफ चीन की एक मंशा भविष्य में जरूरत के आधार पर ग्वादर में अपना नौसैनिक अड्डा स्थापित करने की है। भारत के नजरिए से देखें तो चीन की नीयत पर सवालिया निशान लगना वाजिब है। जो आर्थिक गलियारा बनना है उससे पाक अधिकृत कश्मीर वाले क्षेत्रों का मुद्दा और गहराएगा। पीओके को लेकर हमारी चिंता और बढ़ने वाली है। चीन पहले भी आधिकारिक तौर पर पाक अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखाता रहा है। पूरे मसले पर गौर करने से यह भी साफ होगा कि आगे चीन-पाकिस्तान और भारत के त्रिपक्षीय रिश्ते और उलझेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही महीने पहले चीनी राष्ट्रपति के भारत दौरे के दौरान भी निवेश को लेकर बहुत सकारात्मक माहौल बना था। फिर मई में भारत के प्रधानमंत्री भी चीन की यात्रा पर होंगे। आज चीन, भारत को दरकिनार करके भी नहीं रह सकता। यहां वह निवेश करना चाहता है और पाक को अपना सामरिक अड्डा बनाना चाहता है। भारत-पाकिस्तान में जिस तरह का सीमा विवाद है, उसी तरह भारत-चीन के बीच भी। पाकिस्तान ने तो एकपक्षीय तौर पर जम्मू कश्मीर के एक बड़े हिस्से को चीन को हस्तांतरित कर दिया था। भारत को अब बहुत सतर्क होकर प्रतिक्रिया देनी होगी। एक ओर चीन के साथ उसे आर्थिक संबंध सुधारने हैं तो दूसरी तरह यह भी देखना है कि पाकिस्तान-चीन की जोड़ी क्या गुल खिलाने जा रही है। नई शताब्दी यकीनन चीन के आर्थिक वर्चस्व के साथ-साथ एशिया की है। भारत-चीन आर्थिक सबंधों की बात करें तो दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार 75 अरब डॉलर के करीब है। यहां समस्या यह है कि चीन हमारे लिए तो नंबर वन का साझीदार है, लेकिन हमारी अहमियत उसके लिए नंबर दस तक की भी नहीं है। जब से भारत ने अमेरिका को अपना सामरिक साझीदार घोषित किया है, चीन को यह चिंता सताने लगी है कि भारत उसकी घेराबंदी में अमेरिका का साथ देने को लालायित है। जाहिर है, भारत को अपनी स्थिति साफ कर देनी चाहिए कि ऐसा नहीं है। वह ऐसा तभी करेगा जब चीन अपनी हरकतों से उसे बाध्य कर दे। जब वह अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो दे। इस विश्वसनीयता पर एक बड़ा खतरा चीन-पाक संबंध को लेकर है। भारत हमेशा से मानता रहा है कि चीन ने छिपे तौर पर पाकिस्तान को परमाणु हथियार और मिसाइल उपलब्ध कराई है और वह इस बात की हमेशा से उपेक्षा करता रहा है कि पाकिस्तान भारत के खिलाफ आतंकवादियों को शह देता है। पाकिस्तान ने अब तक अमेरिका की मदद का एक बड़ा हिस्सा सैन्य आपूत्तर्ि और आतंकवाद को फलने-फूलने में ही जाया किया। पाकिस्तान की सेना इन पैसों से मजबूत हुई। चीन को देखना होगा कि उसके द्वारा मिली मदद का उपयोग ऐसे न हो। यह राशि विकास के साथ साथ पाकिस्तान में स्थिरता और सुरक्षा पर खर्च हो। इन मुद्दों पर मई में नरेंद्र मोदी की बीजिंग यात्रा पर र्चचा जरूर होगी। र्चचा से कोई सार्थक हल भले ही न निकले, लेकिन हमारे संबंधों पर पड़ी धुंध थोड़ी छंट जरूर सकती है।(RS) (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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