Monday 20 April 2015

चिंतित करने वाली दोस्ती (सी. उदयभास्कर ) चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की बहुप्रतीक्षित पाकिस्तान यात्र..........

चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की बहुप्रतीक्षित पाकिस्तान यात्र अंतत: 20 अप्रैल को होने जा रही है। पिछले वर्ष सिंतबर में उनकी प्रस्तावित यात्र स्थगित करनी पड़ी थी, क्योंकि तब इमरान खान के विरोध प्रदर्शन के कारण इस्लामाबाद आंतरिक राजनीतिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। शी चिनफिंग की दो दिवसीय यात्र को लेकर पाकिस्तान को काफी उम्मीदें हैं। इस संदर्भ में पाक मीडिया ने चीन के राष्ट्रपति द्वारा लिखे लेख को प्रकाशित किया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि यह मेरी प्रथम पाकिस्तान यात्र है, लेकिन मुङो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं अपने भाई से मिलने के लिए घर जा रहा हूं। पाकिस्तान के साथ चीन का संबंध सदैव ही विशिष्ट रहा है और द्विपक्षीय रिश्तों की सामरिक नींव 1950 के उत्तरार्ध में ही पड़ गई थी जब चीन और भारत के संबंधों में गिरावट की शुरुआत हुई।
भारत से प्रतिकूल रिश्तों के कारण पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति को बीजिंग के लिए एक मूल्यवान दीर्घकालिक निवेश माना गया। यहां इस पर भी ध्यान देना होगा कि तत्कालीन चीनी प्रमुख माओ और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच प्रत्यक्ष मतभेद पहली बार 18 अप्रैल, 1955 को इंडोनेशिया के बांडुंग सम्मेलन में सामने आए। मौजूदा राष्ट्रपति शी चिनफिंग 22 अप्रैल को बांडुंग सम्मेलन की 60वीं वर्षगांठ पर इंडोनेशिया की यात्र पर जा रहे हैं। भारत-चीन संबंधों में असहज स्थिति के कारण अक्टूबर 1962 में युद्ध भड़क गया था। शी चिनफिंग की पाकिस्तान यात्र इस बात का संकेत है कि किस तरह दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते मजबूत हुए हैं। चीनी राष्ट्रपति के लेख में उल्लेख किया गया है कि मेजबान देश को चीन में याद किया जाता है। इसमें इस बात का भी जिक्र है कि 1949 में हुई क्रांति के बाद के शुरुआती वर्षो में पाकिस्तान ने अपने वायु क्षेत्र को चीन के लिए खोला ताकि वह दुनिया के अन्य देशों तक पहुंच बना सके और इससे भी कहीं अधिक संयुक्त राष्ट्र में चीन को स्थायी सीट के लिए पाकिस्तान ने चीन का समर्थन किया। शी के लेख में संयुक्त राष्ट्र का उल्लेख किया जाना निश्चित रूप से भारत में रोष पैदा करेगा, क्योंकि आम धारणा यही है कि यह प्रधानमंत्री नेहरू ही थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन को स्थायी प्रतिनिधित्व दिए जाने के लिए बीजिंग की पैरवी की थी। लेख से पता चलता है कि पाकिस्तान को मदद के संदर्भ में शी की यात्र के कुछ महत्वाकांक्षी उद्देश्य हैं, जिसके बारे में बीजिंग सोमवार को खुलासा करेगा। विकास और बुनियादी ढांचे के लिए मदद के तौर पर करीब 46 अरब डॉलर की मदद देने के संकेत हैं। इसका उपयोग मुख्य तौर पर बिजली उत्पादन और परिवहन संपर्क को मजबूत बनाने के लिए किया जाएगा। इसका मुख्य लक्ष्य चीन-पाकिस्तान के बीच आर्थिक गलियारा कायम करना है जो कि अरब सागर के तट पर स्थित पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को उत्तर-पश्चिम चीन में शिनजियांग से जोड़ेगा। माना जा रहा है कि इसके लिए कई अरब डॉलर की लागत वाली परियोजनाओं को 2030 तक पूरा कर लिया जाएगा। जब यह परियोजना पूर्ण हो जाएगी तो पूरी संभावना है कि इससे दक्षिण एशिया का व्यापार और ऊर्जा समीकरण मौलिक रूप से बदल जाएगा।
भारतीय परिप्रेक्ष्य से देखें तो वास्तविकता यही है कि इस प्रस्तावित मार्ग के बनने से पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) पर चिंता और गहरा जाएगी। स्पष्ट है कि चीनी निवेश से नए राजनीतिक बदलाव आएंगे। मई माह में मोदी के बीजिंग दौरे में इस बात पर विशेष ध्यान रहेगा। मुख्य मुद्दा यही है कि क्या चीन की आर्थिक महत्वाकांक्षा और संपर्क बढ़ाने पर जोर सफल हो सकता है अथवा राजनीतिक और सुरक्षा मुद्दों पर उसकी चालाकी स्थितियों को और अधिक जटिल बनाएगी तथा चीन-पाकिस्तान और भारत के बीच त्रिपक्षीय रिश्ते और अधिक उलङोंगे? अनसुलझा भौगालिक विवाद अभी भी चीन-भारत संबंधों में बाधक बना हुआ है। इसी तरह कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद अभी भी जीवंत है। वास्तविकता यही है कि पाकिस्तान ने एकपक्षीय रूप से 1963 में जम्मू एवं कश्मीर के एक हिस्से को चीन को हस्तांतरित कर दिया, जिससे यह मसला और अधिक उलझ गया।
अब जबकि मुख्य तौर पर पाकिस्तान को ध्यान में रखते हुए चीन कई बड़ी आर्थिक और संपर्क परियोजनाएं शुरू कर रहा है तो भारत को इस पर बहुत सोच-समझकर अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। यहां इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यदि यह शताब्दी वास्तव में चीन के आर्थिक वर्चस्व के साथ एशिया की शताब्दी है तो बीजिंग-दिल्ली के लिए इसे साथ-साथ स्वीकार कर पाना काफी मुश्किल होगा। भारत दक्षिण एशिया में चीन के इरादों को लेकर संदेहास्पद है और यह मानता है कि या तो वह किनारे हो जाएगा या रावलपिंडी (पाकिस्तान सेना का मुख्यालय) को छिपे तौर पर समर्थन देने वाले बीजिंग के साथ संघर्ष करेगा और चीन के उभार और प्रभाव को रोकने का प्रयास करेगा। संक्षेप में कहें तो चीन-पाकिस्तान के द्विपक्षीय रिश्तों को सामान्य रूप में नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यह भारत के लिए अहितकर होगा। दिल्ली में इस बात पर गहरा विश्वास है कि बीजिंग ने अप्रत्यक्ष तौर पर पाकिस्तान को परमाणु हथियार और मिसाइल मुहैया कराई हैं और वह लगातार इस बात की जानबूझकर उपेक्षा कर रहा है कि पाकिस्तानी सेना सरकारी नीति के तहत भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने में जुटी हुई है। चीन पाकिस्तान को आर्थिक तौर पर मजबूत बनाने के लिए जितना अधिक राजकोषीय निवेश करने की योजना बना रहा है उसका सार्थक उद्देश्य यही होना चाहिए कि पाकिस्तान में स्थिरता और सुरक्षा को बहाल किया जाए। यही वर्तमान समय की मांग है। यदि पाकिस्तान बढ़ रही घरेलू समस्याओं से प्रभावी तरीके से निपटता है तो यह उसके अपने हित में होगा।
चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की महत्वाकांक्षी योजना यही है कि स्थल और समुद्री मार्गो पर भारी निवेश किया जाए ताकि पुराने सिल्क मार्ग को चालू किया जा सके। वास्तव में यह दूरदर्शी विचार है, लेकिन इससे पहले पाकिस्तान की जमीनी सच्चाई को भी समझना होगा। शी चिनफिंग ने अपने लेख में सामंजस्यपूर्ण पड़ोस पर जोर दिया है। इसके लिए चीन और पाकिस्तान को कूटनीतिक रणनीति को लेकर पारस्परिक सहयोग करना होगा। हमारे संदर्भ में इन दोनों ही देशों का अधिकांश बड़े अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर समान रुख होता है। निश्चित ही आतंकवाद को लेकर चीन का रुख पाकिस्तान अथवा रावलपिंडी की तरह नहीं हो सकता और इस अंतरविरोध को दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए। यह ऐसा विषय है जिस पर मई में बीजिंग यात्र के दौरान शी और मोदी के बीच वार्ता हो सकती है।(DJ)
(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं

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