Monday 20 April 2015

जब स्त्री के भीतर एक माँ देखेंगे तभी उसे समकक्ष मान सकेंगे (डॉ. विभेष कुमार चौबे असिस्टेंटप्रोफेसर, दर्शनशास्त्र दैनिक भास्कर)

हमारे देश में छेड़खानी एवं दुष्कृत्य की घटनाएं तुरंत ही दो प्रकार की प्रतिक्रियाओं को जन्म देती हैं। एक आवाज परंपरागत पितृसत्ता की अभिभावकी को व्यक्त करती है जो स्त्री को मातृ-शक्ति, देवी, पूज्या इत्यादि का उच्च दर्जा देते हुए तमाम तरह के खुलेपन को कटघरे में खड़ा करती है और उपदेशों/ नैतिक आदेशों की झड़ी लगा देती है। वहीं दूसरी आवाज आधुनिक नारीसत्ता के उन्मुक्त हठ को व्यक्त करती है जो किसी प्रकार के प्रतिबंध या आत्मसंयम को जकड़ी हुई पितृसत्तात्मक सोच कहकर खारिज कर देने पर आमादा होती है। एक को दक्षिणपंथी और दूसरे को वामपंथी नजरिया घोषित कर गुत्थमगुत्था शुरू हो जाती है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री-विमर्श को इन दो अतिवादों से बचते हुए अपना चरित्र गढ़ने की जरूरत है।
सुघड़ संस्कृति की बुनावट महज स्त्री-पुरुष देह के इर्द-गिर्द नहीं होती बल्कि उस भावभूमि पर होती है जिसमें देह न्यूनतम अंतर्विरोध के साथ संगत अंतःक्रिया कर सके। सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री और पुरुष दो शरीर से अधिक दो भाव हैं। स्त्रीभाव दया, करुणा, सेवा, समर्पण, त्याग, व्यावहारिकता, भावुकता, कोमलता, पारस्परिकता, सहयोगिता, मूर्तता इत्यादि को व्यक्त करता है तो पुरुषभाव कठोरता, अमूर्तता, बौद्धिकता, अल्हड़ता, उद्यमिता, आक्रामकता अधिकारिता, प्रतिस्पर्धात्मकता, स्वतन्त्रता, नेतृत्वशीलता इत्यादि को व्यक्त करता है। दोनों भावों का उचित संतुलन ही संगत व्यक्तित्व गढ़ता है। फिर भी यह एक स्थापित सत्य है कि स्त्रीभाव की प्रधानता ही व्यक्ति एवं समाज को अधिक मानवतावादी चरित्र प्रदान करती है। पुरुषभाव की प्रधानता आक्रामक, हिंसक, बाह्योन्मुख और भौतिक बनाती है। अर्धनारीश्वर शिव एवं स्त्रीभाव प्रधान बुद्ध के उदाहरण पुष्ट करते हैं कि पुरुष तभी अपना श्रेष्ठतम व्यक्तित्व प्राप्त करता है जब उसमे स्त्रीभाव का पक्ष पर्याप्त विकसित हो।
आध्यात्मिक जड़ों पर आधारित भारतीय सांस्कृतिक चिंतन मातृभाव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है। वह उसे दैवीय पूज्यता का सम्मान देता है। मातृभाव स्त्रीभाव का मर्म है और मनुष्यता के गढ़े जाने का गर्भस्थल भी। सांस्कृतिक संरचना जब मातृभाव की सर्वोच्चता से लबरेज होती है तो यह समाज की सबसे प्राथमिक इकाई परिवार से ही मानवतावादी स्वभाव को गढ़ती है। मातृभाव की छांव में ही स्त्रीभाव सही मायने में विकसित हो पाता है। यह स्त्री-पुरुष दोनों को एकपक्षीय स्वभाव से बचाता है। परिवार में गढ़ा हुआ स्वभाव ही आगे वृहतर समाज के स्वभाव को निर्धारित करता है। कमजोर, खंडित या उपेक्षित मातृभाव की पृष्ठभूमि स्त्रीभाव को भी न्यून कर देती है और पुरुषत्व से लबरेज स्त्री-पुरुष देहयष्टि को गढ़ती है। यह आक्रामकता और हिंसा से भरे पुरुष समाज को जन्म देता है। अतएव मातृभाव की सर्वोच्चता और पूज्यता का भारतीय सांस्कृतिक चिंतन मानवतावादी कलेवर की दृष्टि से बेहतरीन एवं वैध कहा जा सकता है। परंतु दुर्भाग्यवश यह सांस्कृतिक चिंतन सदियों से ऐसे व्यस्थागत ढांचे के अधीन रहा जो अपने चरित्र में बेहद पितृसत्तावादी, विशेषाधिकारवादी एवं शोषक चरित्र का रहा है। इसने इस चिंतन प्रणाली की मूल चमक को ही सोख लिया है। प्राचीन एवं मध्ययुगीन समाजों के व्यवस्थागत ढांचे ने मातृभाव की सर्वोच्चता को पितृ-संरक्षित गृह के मातृकार्य की सर्वोच्चता मान लिया और स्त्री के सखाभाव एवं समकक्षता भाव का अपहरण करते हुए उसे ऐसा रूढ़ गृह संचालक बना दिया जो अपनी अधिकाररहित कुर्बानियों से पितृसत्तावाद और मर्दानगी को निरंतर पुष्ट करती रहे। दुर्भाग्य से हमारे सुशिक्षित लोग भी इसी व्यवस्था को मूल भारतीय सांस्कृतिक चिंतन समझ बैठते हैं।
वहीं दूसरी ओर आधुनिक समाज व्यवस्थागत रूप से अधिक मानवतावादी है। स्वतन्त्रता- समानता-भ्रातृत्व आधुनिकता की मूल बुनियाद है। आधुनिक समाजों में लिंग-वर्ण-जाति-रंग इत्यादि के आधारों पर किसी की समकक्षता को खारिज करना संभव नहीं है। इसलिए स्त्री-पुरुष देह के आधार पर किसी प्रकार की विभाजक रेखा खींचना संभव नहीं है। दोनों के समकक्षता की अपेक्षा बिल्कुल वाजिब है। परंतु आधुनिक व्यवस्था सांस्कृतिक विमर्श मे पिछड़ रही है। व्यवस्थागत मानवतावाद सांस्कृतिक मानवतावाद को समृद्ध करने में असफल साबित हो रहा है। आधुनिकता का ढांचा भी स्त्रीभाव की अपेक्षा पुरुषत्व भाव का ही पोषक साबित हो रहा है। बल्कि स्वतन्त्रता/समानता के व्यापक प्रसार ने पुरुष स्वभाव को अधिक बड़े पैमाने पर मुखर एवं हिंसक होने का अवसर दे दिया। इस स्थिति का कारण यह है कि एक उत्कृष्ट सांस्कृतिक चिंतन दीर्घकाल तक एक विशेषाधिकारवादी व्यवस्थातंत्र के अधीन रहा और सदियों की व्यवस्थागत मनोदशा उस पर हावी रही। इसका परिणाम है कि समानता/ स्वतन्त्रता आधारित नई आधुनिक व्यवस्था उस समृद्ध सांस्कृतिक चिंतन के प्रति सशंकित रहता है। वहीं दूसरी ओर हमारा समृद्ध सांस्कृतिक चिंतन प्राचीन व्यवस्थागत मनोवृत्ति से निकल पाने के कारण आधुनिक व्यवस्थागत अपेक्षाओं के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाता। यह एक ऐसा द्वंद है जो दोनों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देता है और स्त्री विमर्श के दो अति की रचना करता है। एक पक्ष सारे विकारों की जड़ लड़कियों के जींस पहनने, रात्रि-विचरण करने, प्रेम संबंध बनाने इत्यादि में देखने लगता है तो दूसरा पक्ष उन्हीं में नारी-स्वतन्त्रता और अस्मिता के सारे सूत्र देखने लगता है। दोनों ही अपने पक्ष को लेकर इतने आग्रही हैं कि स्त्री विमर्श का भारतीय चरित्र आज भी अनगढ़ा एवं अस्पष्ट है। हमें यह समझने कि जरूरत है कि नारी संबंधी भारतीय सांस्कृतिक चिंतन अपनी तमाम सीमाओं और विरोधाभासों के बावजूद कुछ बेहतरीन पहलुओं को समेटे हुए हैं जिसका आधुनिक प्रवृत्तियों एवं व्यवस्था विधान के साथ उचित समायोजन एक बेहतर सांस्कृतिक विकास की ओर ले जा सकता है।
मातृभाव की सर्वोच्चता और पूज्यता कहीं से भी सखा भाव एवं समकक्षता भाव का विरोधी नहीं है। समकक्षता भाव ही मातृभाव को सही मायने में वास्तविक अधिकार और शक्ति प्रदान करता है। शक्ति-सम्पन्न मातृभाव ही एक ओर परिवार एवं समाज में स्त्री भाव की प्रधानता को सुनिश्चित करता है तो दूसरी ओर समकक्षता भाव को भी नियमित करते हुए स्वच्छंद हो जाने से रोकता है। मनुष्यता का संगीत तो मातृभाव के छांव में ही झंकृत होता है।
भारतीय सांस्कृतिक चिंतन अपनी तमाम सीमाओं और विरोधाभासों के बावजूद कुछ बेहतरीन पहलुओं को समेटे हुए है। आधुनिक संदर्भ में भी स्त्री के प्रति मित्र या समकक्षता भाव ही मातृभाव को सही मायने में वास्तविक अधिकार और शक्ति प्रदान करता है। इसके पालन से ही समाज में समरसता सकती है। यदि आप स्त्री के भीतर एक मां को देखते हैं तो फिर उसकी सर्वोच्चता से आपको परहेज नहीं रहेगा। धीरे-धीरे आप उसे मित्र या सखा मानते हुए समकक्षता का दर्जा अपने भीतर ही दे सकेंगे।

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