Saturday 25 April 2015

वैधानिक सहायता का अधिकारः एक वैधानिक प्रतिबद्धता (PIB)

एक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में चार्ल्स डी मोन्टेसक्यू ने कहा “प्राकृतिक रूप में, सभी इंसान समान पैदा होते हैं, किंतु वे इस समानता को कायम नहीं रख सकते हैं। समाज उन्हें इसे खोने के लिए मजबूर करता है और वे कानून का संरक्षण पाकर ही इसे फिर से प्राप्त कर पाते हैं।” समानता आधारित न्याय सुनिश्चित करने में गरीबों, अशिक्षितों और कमजोर लोगों के लिए कानूनी संरक्षण प्रदान करना महत्वपूर्ण है। वैधानिक सहायता उन संसाधनों में से एक है जो यह सुनिश्चित करता है कि गरीबी, अशिक्षा आदि कारणों से किसी व्यक्ति के लिए न्याय सुनिश्चित करने से मनाही न हो।
समाज के गरीब और कमजोर वर्गों के लोगों के लिए मुफ्त वैधानिक सहायता उपलब्ध कराने का उद्देश्य उन्हें कानून द्वारा उनके लिए दिये गये अधिकारों का प्रयोग करने में उन्हें सक्षम बनाना है। न्यायमूर्ति श्री पी. एन. भगवती ने ठीक ही कहा था कि “गरीब और अशिक्षित लोगों को न्यायालयों तक पहुंचने में सक्षम होना चाहिए और उनकी उपेक्षा और गरीबी उनके लिए न्यायालयों से न्याय प्राप्त करने में बाधक नहीं होनी चाहिए।”
भारतीय संविधान में संविधानवाद और कानून के शासन पर काफी जोर दिया गया है। भारत में कानून के शासन को संविधान की मूल संरचना और स्वाभाविक न्याय का हिस्सा माना जाता है। स्‍वाभाविक न्‍याय के शासन का कहना है कि कोई व्‍यक्ति तब तक उनके अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले निर्णयों द्वारा दंडित नहीं किया जाना चाहिए, जब तक कि उनके विरूद्ध मामले की पूर्वसूचना, उसका उत्‍तर देने के लिए पर्याप्‍त अवसर और अपन मामले को प्रस्‍तुत करने का अवसर उपलब्‍ध न कराया जाय।
संविधान की प्रस्‍तावना में देश के नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्‍याय सुनिश्चित किया गया है। संविधान की धारा 14 में इस बात का स्‍पष्‍ट रूप से उल्‍लेख किया गया है कि राज्‍य की ओर से किसी व्‍यक्ति की कानून के समक्ष समानता अथवा भारतीय क्षेत्र के भीतर कानून के एकसमान संरक्षण से इनकार नहीं किया जा सकता है। धारा 14 का उद्देश्‍य समान न्‍याय सुनिश्चित करना है। समान न्‍याय की गारंटी तब तक अर्थहीन है, जब‍ तक गरीब अथवा अशिक्षित अथवा कमजोर व्‍यक्ति अपनी गरीबी अथवा अशिक्षा अथवा कमजोरी के कारण अपने अधिकारों का इस्‍तेमाल न कर सके।
भारतीय संविधान की धारा 38 और 39 में इसके बारे में स्‍पष्‍ट शासनादेश उल्लिखित है। धारा 38 (1) के अनुसार राज्‍य के ओर से जहां तक संभव हो और जैसा भी सामाजिक क्रम हो लोगों के कल्‍याण को बढ़ावा देने के लिए कारगर उपाय किए जाएंगे और चाहे वह न्‍याय, सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक क्रम में राष्‍ट्रीय जीवन की सभी संस्‍थाओं को सूचित करेगा।
धारा 39 ए में राज्‍य के लिए स्‍पष्‍ट निर्देश है कि वह यह सुनिश्चित करे कि समान अवसर के आधार पर न्‍याय को बढ़ावा देने वाली वैधानिक प्रणाली का संचालन हो और विशेष रूप से समुचित विधान अथवा योजनाओं अथवा किसी अन्‍य रूप में मुफ्त वैधानिक सहायता प्रदान की जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि आर्थिक अथवा अन्‍य कमियों के कारण किसी नागरिक को न्‍याय पाने के अवसरों से मनाही न की जा सके।
मुफ्त वैधानिक सहायता अथवा नि:शुल्‍क कानूनी सेवा संविधान द्वारा प्रदत्‍त एक अनिवार्य मौलिक अधिकार है। भारतीय संविधान की धारा 21 के अधीन यथोचित, निष्‍पक्ष और न्‍यायसंगत स्‍वतंत्रता का आधार है, जिसमें कहा गया है, ‘कानून द्वारा स्‍थापित प्रक्रिया के बिना किसी व्‍यक्ति को उसके जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता’।
महाराष्‍ट्र राज्‍य बनाम मनुभाई प्रगाजी वाशी मामले में सर्वोच्‍च न्‍यायलय ने पूरी स्‍पष्‍टता से कहा है कि अब यह एक सुस्‍थापित तथ्‍य है कि किसी अभियुक्‍त द्वारा इनकार किए बिना राज्‍य के खर्च पर अभियुक्‍त को मुफ्त वैधानिक सहायता प्रदान नहीं किए जाने से मुकदमा निष्‍फल हो जाएगा। एमएच होसकोट बनाम महाराष्‍ट्र राज्‍य मामले में न्‍यायमूर्ति कृष्‍णा अय्यर ने बताया कि मुफ्त वैधानिक सहायता प्रदान करना राज्‍य का कर्तव्‍य है न कि यह सरकार की दानशीलता है।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता और दीवानी प्रक्रिया संहिता में मुफ्त वैधानिक सहायता से जुड़े प्रावधान भी शामिल हैं। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 304 में यह प्रावधान है कि सत्र न्‍यायालय किसी मुकदमे में यदि कोई अभियुक्‍त किसी वकील द्वारा प्रतिनिधित्‍व नहीं पा रहा है और जहां यह न्‍यायालय को प्रतीत है कि अभियुक्‍त के पास कोई वकील रखने के लिए पर्याप्‍त संसाधन नहीं है तो न्‍यायालय राज्‍य के खर्च पर उसके बचाव के लिए किसी वकील को मंजूरी देगा। धारा 304 में यह स्‍पष्‍ट किया गया है कि सत्र न्‍यायालय में मुकदमे के लिए किसी व्‍यक्ति को वैधानिक सहायता प्रदान करना राज्‍य का दायित्‍व है। इससे राज्‍य सरकार यह निर्देश देने में समर्थ हो जाता है कि ये प्रावधान राज्‍य के अन्‍य न्‍यायालयों में किसी श्रेणी के मुकदमे के लिए लागू हैं।
समाज के कमजोर वर्गों को मुफ्त और सक्षम वैधानिक सेवाएं प्रदान करने के लिए वैधानिक सेवा प्राधिकरण के गठन के लिए ‘वैधानिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987’ नामक एक अलग विधान लागू किया गया है, ताकि आर्थिक अथवा अन्‍य कमियों के कारण किसी नागरिक को न्‍याय प्राप्‍त करने के अवसरों से वंचित न किया जा सके। इसके साथ ही लोक अदालतें आयोजित करना ताकि न्‍याय को बढ़ावा देने के लिए वैधानिक प्रणाली सुनिश्चित हो सके। वैधानिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के माध्‍यम से राष्‍ट्रीय, राज्‍य और जिला स्‍तर पर सांविधिक वैधानिक सेवा प्राधिकरण स्‍थापित है। इसमें लोक अदालत से जुड़े प्रावधान शामिल हैं। लोक अदालत का मुख्‍य उद्देश्‍य कम लागत पर शीघ्र न्‍याय उपलब्‍ध कराना है।
दीवानी और राजनीतिक अधिकारों पर आधारित अंतर्राष्‍ट्रीय कोवनेंट की धारा 14 (3) (डी) में हर किसी के लिए यह सुनिश्चित किया गया है कि उसकी उपस्थित में मुकदमें सुने जाएं और वह व्‍यक्तिगत रूप से अथवा अपनी इच्‍छा से कानूनी सहायता से अपना बचाव कर सके और उसे सूचित किया जाना चाहिए कि यदि उसके पास कानूनी सहायता उपलब्ध नहीं है तो इस अधिकार का प्रयोग करते हुए उसे कानूनी सहायता उपलब्‍ध कराई जाती है ताकि उसे न्‍याय मिल सके।
किसी लोकतांत्रिक देश में, जहां कानून का शासन सर्वोपरि है, यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि देश में कमजोर के बीच सबसे कमजोर, गरीब से बीच सबसे गरीब व्‍यक्ति भी राज्‍य अथवा किसी व्‍यक्ति के द्वारा किए गए किसी गलत कार्य से उत्‍पन्‍न अन्‍याय से पीडि़त न हो। अगले चरण में वैधानिक सहायता आंदोलन के लिए क्षमता निर्माण सुनिश्चित करने की जरूरत है। इसके लिए वैधानिक सहायता से जुड़े हितधारकों, कानून के शिक्षकों, कानूनविदों, कानून के छात्रों के साथ ही आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, स्‍थानीय पंचायत के सदस्‍यों आदि जैसे स्‍वयंसेवियों के कौशलों को मजबूत करना आवश्‍यक है, ताकि वे ग्रामीण लोगों और वैधानिक सेवा संस्‍थाओं के बीच मध्‍यस्‍थों के रूप में काम कर सकें।
भारत में वैधानिक सहायता आंदोलन की मुख्‍य बाधा कानूनी जागरूकता की कमी है। लोग अधिकारों और कानून द्वारा उपलब्‍ध संरक्षण के बारे में अवगत नहीं हैं। इसे साकार करना जरूरी है ताकि कानूनी सहायता के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देना केवल कानून से जुड़े कर्मियों का ही काम नहीं है। कुल मिलाकर समान रूप से यह समाज का दायित्‍व है। कानूनी सहायता के लिए संवैधानिक सहायता तभी फलीभूत हो सकती है यदि समाज अपनी संवेदनशील जनसंख्‍या की देखभाल के लिए आगे आता है।

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