Thursday 30 April 2015

किन्नरों को भी मिलें उनके अधिकार (गौरव कुमार)

राज्यसभा ने इतिहास रचते हुए शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण निजी विधेयक को सर्वसम्मति से पारित कर दिया। किन्नरों के अधिकार विधेयक 2014 के नाम से इस बिल के पारित होने के बाद जहां संसदीय इतिहास में 36 वर्षो का रिकॉर्ड टूटा वही अपने अधिकारों के लिए वर्षो से लड़ रहा किन्नर समुदाय बहुत खुश है। राज्यसभा में द्रमुक सांसद तिरु ची शिवा ने निजी विधेयक के रूप में इस बिल को पेश किया। किन्नरों को अधिकार प्रदान करने संबंधी इस बिल ने भारत को अग्रणी देशों की सूची में ला दिया है। अब तक अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इटली, सिंगापुर सहित करीब 29 देशों ने किन्नरों के अधिकारों से सम्बंधित कानून बनाए है। भारत में किन्नरों की अनुमानित संख्या 30 लाख के आसपास है और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते सरकार की जिम्मेदारी है कि उनके कल्याणार्थ उचित प्रावधान हों। विधेयक के प्रावधानों पर र्चचा के दौरान सांसद शिवा ने बिल वापस लेने से मना करते हुए इस पर वोटिंग की मांग की। संसदीय परंपरा में अक्सर प्राइवेट मेंबर बिल को सरकार वापस लेने का दवाब बनाती है और उचित कदम उठाने का आश्वासन देती है। इस बिल पर भी ऐसी कोशिश हुई किन्तु किन्नरों के प्रति संवेदना और आशा ने उन्हें तटस्थ रखा। बिल पर र्चचा के दौरान सदन की दर्शक दीर्घा बड़ी संख्या में किन्नरों की उपस्थिति ने भी बिल पारित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1979 के बाद यह पहला निजी विधेयक है जो किसी सदन से पारित हुआ है। इससे पहले 1979 में ‘‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिर्वसटिी एक्ट, 1977’ राज्यसभा से पारित हुआ था किन्तु लोकसभा से पारित नहीं हो सका। इस बार के विधेयक के प्रति आशा की जानी चाहिए कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक उपेक्षित समुदाय के कल्याण से सम्बंधित बिल कानूनी शक्ल ले। पारित बिल के दस अध्यायों में विभाजित 58 धाराएं किन्नरों के सामाजिक समावेशन, अधिकार और सुविधा, आर्थिक एवं कानूनी सहायता, शिक्षा, कौशल विकास तथा हिंसा व शोषण रोकने का प्रावधान करती हैं। बिल में उनके लैंगिक समानता के अधिकार के साथ शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था है। किन्नरों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की बात भी इसमें कही गई है। हालांकि तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल सरकारों द्वारा उनके कल्याणार्थ एक वेलफेयर बोर्ड गठित है किन्तु जब तक एक राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रयोजनार्थ आयोग नहीं बन जाता, तब तक ये प्रयास नाकाफी हैं। विधेयक एक व्यापक और प्रभावी राष्ट्रीय नीति का उपबंध करता है जो किन्नरों के समग्र विकास को पोषित करने वाला हो, उनके कल्याण के लिए हो। विधेयक का मकसद किन्नरों को भी समाज की मुख्यधारा से जोड़ना और अपनी रुचि के आधार पर काम का अधिकार देना है। यह भेदभाव रोकने और असमानता खत्म करने की वकालत करता है। बिल में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उनके मामलों के लिए अलग से अधिकार न्यायालय की स्थापना की जाय जिससे उनके मामलो का त्वरित निपटारा हो सके जो उनकी लैंगिग स्थिति के कारण बेहतर ढंग से नहीं हो पाती। बिल में इस समुदाय के बच्चों के लिए प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा में आरक्षण का प्रावधान भी है। सरकारी नौकरियों में दो प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान सहित किसी भी संस्थापना में उनके प्रति भेदभाव रोकने के लिए भी प्रावधान हैं साथ ही ऐसे लोगों को व्यावसायिक तथा स्वनियोजन के लिए प्रशिक्षण और कम दर पर ऋण की भी व्यवस्था का प्रावधान है। इस समुदाय की स्वास्य समस्या को भी खास तवज्जो दी गई है। उनके लिए अलग से एचआई वी निगरानी केंद्र की स्थापना और अन्य स्वास्य सुविधाओं के उपबंध हैं। विधेयक में कहा गया है कि किन्नरों के लिए ऐसे सामुदायिक केन्द्रों का विकास होना चाहिए जो पोषण, स्वच्छता और स्वास्य मानकों पर खरे हों। इसके अलावा उपेक्षित और वंचित किन्नरों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बेरोजगारी भत्ते के साथ साथ पेंशन की भी व्यवस्था की बात कही गई है। लोगों में उनके प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से भी सरकार और समुदाय द्वारा जागरूकता पर जोर दिया गया है।यदि यह बिल कानूनी शक्ल अख्तियार कर लेता है तो वास्तव में मानवीय संवेदना और बहुविविध समाज में समानता के अधिकारों को पुष्ट करने की दिशा में एक आदर्श कानून होगा। हालांकि इस समुदाय के विकास और सामाजिक समावेशन की दिशा में पहले से सरकार सहित कई कल्याणकारी संस्थाएं कार्य करती रही हैं। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने भी इनके शोषण और विकास की दिशा में अहम फैसला दिया था जिसने इस समुदाय के लोगों के लिए वास्तविक खुशी का कारण बना था। इसी वर्ष 15 अप्रैल को न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और ए के सीकरी की पीठ ने किन्नरों की पहचान के साथ कानूनी दर्जा की मांग करने वाली संस्थाओं की याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र व राज्य सरकारों को नौ दिशा निर्देश जारी किया था। इसमे कहा गया था कि किन्नरों को तीसरे लिंग के तौर पर शामिल करते हुए संविधान में मिले सभी अधिकार और संरक्षण उन्हें दिए जाएं। किन्नरों को उनके लिंग की पहचान तय करने का कानूनी हक मिले। उन्हें भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और नौकरियों में आरक्षण मिले। उनके स्वास्य के लिए अलग से बेहतर व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। खास कर एचआईवी मामलों में अलग से निगरानी केंद्र बनाया जाए। किन्नरों की सामाजिक समस्याओं का निवारण किया हो। उनके विकास व सामाजिक समावेशन के लिए गंभीर प्रयास हों। किन्नरों को उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाने के लिए कदम उठाये जाएं। सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से किन्नरों के कल्याण के कई रास्ते खुले और अब इस बिल के माध्यम से भी खुलने की उम्मीद बंधी है। किन्नर स्वयं को न केवल समाज बल्कि परिवार के स्तर पर भी उपेक्षित महसूस करते हैं। ऐसे में योग्यता के बावजूद वह आत्मविश्वापूर्वक उसका उपयोग नहीं कर पाते हैं। समाज में उनके प्रति एक शर्मनाक सोच विकसित कर दी गई है जो उन्हें शर्म, भय और शोषण का औजार बना देते हैं जबकि जैविक रूप से अलग तरह की शारीरिक संरचना पाने वाले इन लोगों का प्रकृति पर कोई जोर नहीं। हालांकि भारतीय समाज ऐसे लोगों के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण भी रखता है। मांगलिक कायरे में इनकी उपस्थिति शुभ मानी जाती है। इन्हें हिन्दू धर्म-दर्शन में भगवान शिव के रूप में देखा गया है। इसके बावजूद ये समाज में उपेक्षित और शोषित हैं। लेकिन सरकार द्वारा उनके हित में बेहतर कदम न उठाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। बहरहाल, मानवाधिकारों के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील आज के युग में किन्नरों के प्रति सोच बदलना समय पर बहुत बड़ी जरूरत है। एक मानव के रूप में उनको भी वे सारे मूल अधिकार मिलने जरूरी हैं जो मानव होने के नाते प्रकृति के साथ साथ नियंतण्र रूप से अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार के रूप में उन्हें मिले हुए हैं।यदि किन्नरों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने और समग्र विकास को सुनिश्चित करने का प्रयास हो तो यह मानवीय, संवैधानिक और आर्थिक सभी तरह से लाभदायक होगा। यदि सरकार किन्नरों के सामाजिक समावेशन के जरूरी प्रयास करे और उन्हें सामाजिक स्वीकृति मिल जाए तो एक वंचित, उपेक्षित, शोषित समुदाय का कल्याण व विकास सुनिश्चित किया जा सकता है।(RS)

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