Friday 1 May 2015

न्याय की तलाश में कानून (हृदयनारायण दीक्षित) न्याय सर्वोच्च अभिलाषा है.

न्याय सर्वोच्च अभिलाषा है। भारतीय संविधान की उद्देशिका में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्ति के संकल्प हैं। संविधान, कानून और न्यायपालिका न्याय प्राप्ति के ही उपकरण हैं। सर्वोच्च न्यायालय संविधान और विधि का संरक्षक है। संसद ने संविधान प्रदत्त शक्तियों का सदुपयोग करते हुए न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में 99वां संविधान संशोधन पारित किया। संविधान (अनुच्छेद 368) की अपेक्षानुसार इसे आधे से ज्यादा राज्य विधानमंडलों ने भी अनुसमर्थन दिया। तद्नुसार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम भी पारित हुआ। संप्रति यह प्रावधान भारत में प्रवर्तित संवैधानिक विधि है। इस विधि की संवैधानिकता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई है। पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस पर विचार कर रही है। ऐसा विचारण नई बात नहीं है। इसके पहले अनेक अधिनियमों पर ऐसे ही विचार हुए हैं, लेकिन न्यायिक सुनवाई के दौरान संबंधित विधि का प्रवर्तन नहीं रुका। यह अलग बात है कि न्यायालय विचारण के दौरान भी विधि प्रवर्तन रोकने के अधिकार से लैस है। लेकिन राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी विधि का प्रवर्तन न्यायालय ने नहीं रोका है। बावजूद इसके सर्वोच्च न्यायपीठ के प्रधान न्यायाधीश ने न्यायिक नियुक्तियों वाली बैठक में न जाने का आश्चर्यजनक निर्णय लिया है।
सर्वोच्च न्यायालय संविधान और विधि का संरक्षक है। प्रधान न्यायाधीश अवगत हैं कि संप्रति न्यायिक नियुक्तियों वाली विधि का प्रवर्तन जारी है। बेशक उसकी संवैधानिक वैधता पर न्यायिक कार्यवाही भी जारी है। पक्ष-विपक्ष के तर्क आ रहे हैं। न्यायालय के अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा है। न्यायालय के अंतिम निर्णय के पहले प्रवर्तित कानून को संदिग्ध नहीं माना जा सकता। न्यायालय रोक न लगाए तो कानून का प्रवर्तन भी जारी रहता है। ऐसे में प्रचलित न्यायिक कार्यवाही को ही आधार बनाकर माननीय प्रधान न्यायमूर्ति का बैठक में न जाना देश के संवैधानिक इतिहास का नया प्रसंग है। इस प्रसंग में सिर्फ वाद के आधार पर ही न्यायिक नियुक्तियों और प्रोन्नतियों की कार्रवाई में बाधा पहुंची है। उच्च न्यायालयों में 12 अतिरिक्त न्यायाधीशों का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की भी सेवानिवृत्ति निकट है। सात उच्च न्यायालयों में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीशों की जगह नियुक्तियों पर विचार होना था, लेकिन बैठक न होने से ऐसी कार्यवाही रुक गई है।
संप्रति न्यायिक नियुक्ति संबंधी विधि निर्वचन और व्याख्या का काम कर रही पीठ ने बुधवार को विचारण का मूल सिद्धांत स्पष्ट किया है। पीठ के अनुसार न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की आधारभूत संरचना है। ऐसा सही भी है। पीठ के अनुसार संविधान संशोधन और नियुक्ति आयोग का परीक्षण न्यायपालिका की स्वतंत्रता और संविधान के आधारिक लक्षणों के दायरे में ही किया जा रहा है। इसके पूर्व केंद्र की तरफ से विचारण के मूल आधार को प्रश्नगत किया गया था कि विचारण का आधार 1993 की नौ सदस्यीय पीठ का फैसला था। तब जजों की नियुक्ति वाले अनुच्छेद 124 की व्याख्या की गई थी। एटार्नी जनरल ने कहा था कि अब अनुच्छेद 124 में 124ए जोड़कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की संस्तुति का प्रावधान हो चुका है। उन्होंने इसी विचारण के लिए 11 सदस्यीय संविधान पीठ की मांग की है। गुरुवार को पीठ ने स्पष्ट किया कि कोलेजियम प्रणाली कोर्ट का अधिकार नहीं दायित्व भी है। पीठ ने यह भी कहा कि संसद की इच्छा प्रश्नगत करने का मामला नहीं है। कोर्ट नई विधि का परीक्षण सर्वोच्च न्यायपीठ के पूर्व निर्णयों के आलोक में करेगा।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता निर्विवाद आस्था है। संविधान सभा भी इस प्रश्न पर एकमत थी और स्वतंत्र भारत की सभी सरकारें भी। बेशक इंदिरा गांधी की सत्ता अपवाद है। यहां न्यायपालिका को कार्यपालिका से मुक्त निर्बाध स्वतंत्रता है। संविधान निर्माताओं ने शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत अपनाया था। कार्यपालिका के अधिकार सुपरिभाषित हैं, वे संसद के प्रति जवाबदेह हैं। संसद को विधि निर्माण और संविधान संशोधन के अधिकार हैं। न्यायपालिका न्यायिक पुनर्विलोकन करती है। संविधान की कोई भी संस्था स्वायत्त नहीं है। न कार्यपालिका, न संसद और न ही न्यायपालिका। सब परस्पर पूरक हैं। सबकी मर्यादा है। मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के भीतर ही सभी संस्थाओं की प्रतिष्ठा है। यह लक्ष्मण रेखा सुस्पष्ट है, लेकिन बहुत महीन और पतली भी है। कार्यपालिका का गठन और निर्वाचन आमजन करते हैं। उसका जीवन संसदीय बहुमत से जुड़ा है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा संविधान की देन है। भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण है। स्वायत्तता या टकराव के प्रश्न बेमतलब हैं।
संविधान के ‘आधारिक लक्षण’ का विषय बेशक महत्वपूर्ण है। संविधान में इसका उल्लेख नहीं है। सर्वोच्च न्यायपीठ ने भी इसकी परिभाषा नहीं की, लेकिन संविधान के आधारिक लक्षण या बुनियादी ढांचे के अतिक्रमण के आधार पर संविधान संशोधनों को निरस्त किया जाता रहा है। संविधान संशोधन को बुनियादी ढांचे का अतिलंघन निश्चित करने का अधिकार कोर्ट का ही है। बुनियादी ढांचे की धारणा वर्ष 1953 में आई। कोर्ट ने सज्जन सिंह बनाम राजस्थान वाद में टिप्पणी की कि संविधान के बुनियादी ढांचे को बदलना सिर्फ संशोधन ही कैसे कहा जा सकता है। बाद में यह विचार पलट दिया गया, लेकिन बुनियादी ढांचे की ऐतिहासिक और चर्चित धारणा केशवानंद मामले से अस्तित्व में आई। 13 न्यायमूर्तियों में 7 बनाम 6 के बहुमत से बुनियादी ढांचे का निर्णय आया। बेशक इसकी मूलधारणा महत्वपूर्ण है, लेकिन इस वाद के भीतर असहमतियों और सहमतियों का भारी द्वंद्व भी है। इन लक्षणों की सूची लंबी है- संविधान की सर्वोच्चता, न्यायिक पुनर्विलोकन, मूल अधिकार, संसदीय प्रणाली, परिसंघवाद आदि।
संविधान निर्माताओं की भावना के अनुसार ‘जनइच्छा’ भी संविधान का आधारिक लक्षण क्यो नहीं हो सकती? राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग संप्रति संविधान का भाग है। न्यायालय में प्रश्नगत होने के बावजूद यह भारत की विधि है। भारत में संविधान ही न्याय का स्नोत है। यहां संविधान ही स्वयं का संशोधन करने, स्वयं के किसी अंश को हटाने या जोड़ने की व्यवस्था देता है। न्यायपालिका संविधान और विधि का निगरानीकर्ता, पोषक और संरक्षक है। भारतीय न्यायपालिका ने सभी संवैधानिक संस्थाओं को संरक्षण दिया है। न्यायपालिका के प्रभाव में ही सारी संवैधानिक संस्थाएं अपनी मर्यादा में हैं। प्रधान न्यायाधीश भारत की न्यायिक और संवैधानिक मर्यादा के मुकुट हैं। उन्हें अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए।
(लेखक उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं)

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