विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की साहित्यिक कृतियों की विवेचना तो तमाम
मौकों पर होती रही है किंतु उनके आर्थिक दृष्टिकोण पर कोई बहस नहीं होती
जबकि उनका सहकारिता एवं ग्रामोन्नयन संबंधी विचार आज इसलिए बेहद प्रासंगिक
है क्योंकि विश्व बाजारवाद के प्रभाव से विकास दर में वृद्धि के बावजूद
गरीब और अमीर के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है और निम्न वर्ग व निम्न
मध्य वर्ग सांसत में है। पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक सत्ता चंद लोगों के
हाथों में सीमित होती है। इस सत्ता को दूसरों की उत्पादक शक्ति का
अधिग्रहण और श्रमशक्ति का शोषण कर प्राप्त किया जाता है। उत्पादन की शक्ति
ही वास्तविक पूंजी है जो मूर्त रूप में सीमांत किसानों, मजदूरों एवं
श्रमिकों में निहित है। छोटे उत्पादक इस प्रतियोगिता के युग में पीछे छूट
गए हैं और एकाधिकारवादियों ने मजदूरों एवं छोटे काश्तकारों के श्रम पर भी
अपनी इजारेदारी कायम कर ली है। नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं आधुनिकीकरण की मार
सबसे अधिक मजदूरों एवं काश्तकारों पर ही पड़ी है। कृषि के महत्व को देखते
हुए टैगोर ने आर्थिक संस्था के रूप में ‘श्री निकेतन’ की स्थापना की थी।
इसके माध्यम से वे कृषिक्षेत्र को समृद्ध बनाते हुए भारत को आर्थिक दृष्टि
से स्वावलम्बी देखना चाहते थे। उन्होंने ‘श्री निकेतन’ में ही कृषि आधारित
उद्योग के विकास की भी नींव रखी। यहां तक कि अपने पुत्र रथीन्द्रनाथ टैगोर
को कृषि विज्ञान संबंधी उच्च शिक्षा के अध्ययन के लिए विदेश भेजा। कृषि
स्नातक के रूप में स्वदेश लौटने पर रथीन्द्र ने ‘श्री निकेतन’ के कायरे में
महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। घरेलू उद्योग को प्रोत्साहन देने हेतु टैगोर ने
श्री निकेतन के अंदर शिल्प सदन व कृषि महाविद्यालय की स्थापना की, जहां
दैनिक उपयोग में आने वाले लगभग सभी उत्पादों का निर्माण होता था। कृषि को
गरिमा प्रदान करने हेतु वहां हलकर्षण उत्सव का भी आयोजन प्रतिवर्ष होने
लगा। टैगोर यंत्रों के बहिष्कार बिना शारीरिक श्रम को प्रतिष्ठा देना चाहते
थे जबकि गांधी यंत्र का बहिष्कार कर शारीरिक श्रम को महत्व देते थे। गांधी
जहां खादी के हिमायती थे, वहीं टैगोर हैंडलूम के समर्थक थे। टैगोर ने अपने
निबंधों में न्यायपूर्ण एवं मानवीय आर्थिक स्थिति स्थापित करने पर बल
दिया। उनके लेख ‘द नेगलेक्टेड विलेज’ के अनुसार आज हमारे गांव अधमरे हो
चुके हैं। यदि हम यह कल्पना करते हैं कि हम इसी प्रकार जीते रहेंगे तो यह
एक बड़ी भूल होगी। मरणासन्न आदमी जीवित लोगों को भी मृत्यु की ओर खींचता
है। टैगोर अपने समय में कुछ हाथों में अर्थ के सिमटने व गांवों के विनाश पर
चिंतित थे। यही चिंता आज के प्रगतिशील लोगों के बीच भी कायम है। आज के
सामाजिक दायित्व के सिद्धांत के काफी आगे उन्होंने नैतिक उत्पादकता के
सिद्धांत की वकालत की। उन्होंने समुदाय के उत्पादन में अंश निर्धारण के
सिद्धांत पर बल दिया। कर्ज में डूबे लघु एवं सीमांत किसानों की दयनीय
स्थितिे समाप्त करने के लिए उन्होंने सामूहिक स्वामित्व की कल्पना की। उनका
यह विचार काफी प्रगतिशील था। उन्होंने उत्पादित अन्न के भंडारण एवं विक्रय
पर भी सर्वमान्य व्यवस्था कायम करने पर बल दिया। उनका मानना था कि इस
व्यवस्था से निजी लाभ कमाने की इच्छा पर रोक लगेगी और किसानों को भी उनके
उत्पादन का सही मूल्य प्राप्त हो सकेगा। आज भी मध्यमवर्ग के किसानों को
उपजाए गए अनाज का उचित मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है। टैगोर ने महसूस किया
था कि यदि इस तरह की व्यवस्था नहीं अपनायी जाती है तो किसान स्वाभाविक
तरीके से जमीन के मालिक होते हुए भी भू-अधिकारों से वंचित हो जाएंगे। टैगोर
ने भूमि संबंधों की विडम्बनाओं के निराकरण के लिए सहकारी सिद्धांत को
निरूपित किया। वास्तव में उनके इस सहकारी सिद्धांत से सत्ता के स्वरूप में
परिवर्तन होने की प्रबल संभावना है। पूंजी का समुदाय द्वारा स्वामित्व समाज
के सत्ता संबंधों को सशक्त रूप से चुनौती दे सकता है। अनेक
अर्थशास्त्रियों ने इनके सिद्धांत को कवि होने के कारण अस्वीकार कर दिया और
कहा कि इनके ये दिशाहीन आदर्श हैं। लेकिन उत्पादित वस्तुओं के सामूहिक
स्वामित्व की उनकी दलील समाज में आज भी गूंज रही है। भारत में समावेशी
विकास के कितने भी नारे लगाए जाएं परंतु जनसहभागिता के बगैर विकास को
बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। भारत में सूती वस्त्र के क्षेत्र में अप्रतिम
विकास के बावजूद कपास उत्पादकों को कोई लाभ नहीं मिल पाया है। विगत वर्षो
में संभवत: कपास किसानों ने सर्वाधिक आत्महत्याएं कीं। कारखानों में
कार्यरत महिला कर्मियों को लंबी अवधि तक कार्य करना पड़ता है और इन्हें
प्राय: नौकरी से निकाल दिए जाने की धमकी मिलती रहती है। यह स्थिति कारखाना
मालिकों, किसानों एवं मजदूरों के बीच कटुता पैदा करती है। जब तक उत्पादित
सामग्री का मूल्य नियंतण्र स्तर पर तय नहीं किया जाता तब तक उत्पादन की
श्रेणी में जो सबसे निचले पायदान पर हैं, उन्हें सर्वाधिक हानि होती रहेगी।
टैगोर ऐसी व्यवस्था के विरोधी थे। अहमदाबाद मिल मालिकों के विरुद्ध
श्रमिकों के पक्ष में गांधी द्वारा किए गए आंदोलन के वे समर्थक थे। आज
राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप, सरकार पर अधिक निर्भरता, अधिकारों का दुरुपयोग
आदि सहकारिता के विकास में बाधक हैं। इसके साथ ही योग्यता, निजी लाभ एवं
प्रतियोगी सिद्धांतों ने इसके तीव्र एवं क्रमिक विकास को प्रभावित किया है।
आज विडम्बना यह है कि भारत विश्व के सर्वाधिक अर्थ उत्पादक देशों की सूची
में सम्मिलित है जबकि श्रमिकों का बहुत बड़ा फीसद अब भी असंगठित क्षेत्रों
में कार्यरत है। सनद रहे कि सकल घरेलू उत्पाद में इस मेहनतकश आवाम की 50
फीसद से अधिक की हिस्सेदारी है। किंतु अर्थ के समुचित विभाजन पर ध्यान नहीं
दिया गया है। भारत जैसे विकासशील देश में सहकारिता के तीव्र विकास हेतु
सहकारी संगठनों को अधिक सशक्त करने की आवश्यकता है। सहकारिता बैंक एवं
उपक्रम को अधिक प्रोत्साहन देकर ही कमजोर वर्ग के लोगों के जीवन स्तर में
सुधार संभव है। यदि ऐसा करने में हम सफल होते हैं तो टैगोर के प्रति हमारी
यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (RS)
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