Wednesday 6 May 2015

रिश्तों की डोर को सहेजने की जरूरत (विशेष गुप्ता)

आज सामाजिक संबंधों से जुड़े सरोकार लगातार ध्वस्त हो रहे हैं। यही कारण है कि आत्मीय रिश्ते भी अब स्वार्थ की आग में झुलसने को मजबूर हैं। परिवार के आत्मिक संबंधों पर चोट करने वाली तमाम घटनाएं रोज देखने में आ रही हैं। लिव-इन रिश्ते, किराए की कोख से जुड़े संबंध तथा औपचारिक व कानूनी वैवाहिक संबंधों के बाहर बच्चों का जन्म तथा आपसी घनिष्ठ संबंधों में लगातार क्षरण इत्यादि घटनाएं समाज में बदलाव की तेज चाल को भी महसूस करा रही हैं। इनके अलावा छोटे-छोटे स्वार्थ आत्मीय संबंधों तक से खून की होली खेलने पर उतारू हैं। वैसे तो हमारे सामाजिक संबंधों और सगे रिश्तों में खूनी जंग का एक लंबा इतिहास रहा है। परंतु कुछ समय पहले तक इस प्रकार की घटनाएं राजघरानों के आपसी स्वार्थो के टकराने तक ही सीमित थीं। लेकिन अब यह मुद्दा इसलिए और भी गंभीर हो गया है क्योंकि अब छोटे-छोटे स्वार्थो को लेकर रक्त संबंधों की बलि चढ़ाने में आमजन भी शामिल हो गये हैं। वर्तमान की इस सचाई को प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं कि पूंजी, बाजार, सूचना तकनीक जैसे कारकों के फैलाव के सामने परिवार, समुदाय तथा इनमें समाहित सामाजिक रिश्त बौने नजर आ रहे हैं। इसलिए सामाजिक रिश्तों में टूटन वास्तव में समाज व देश के लिए चिंता का विषय है।वर्तमान की तेजी से भागती जिंदगी में अब यह बहस चल पड़ी है कि क्या सामाजिक रिश्तों में अभी और कड़वाहट बढ़ेगी? क्या भविष्य में विवाह और परिवार का सामाजिक-वैधानिक ढांचा बच पाएगा अथवा इनका पूरी तरह रूपांतरण हो जायेगा? क्या बच्चों को वात्सल्य, संवेदनाओं का अहसास, मूल्य एवं संस्कारों की सीख नैसर्गिक परिवारों में मिल पाएगी अथवा उन्हें भी अब बाजार की व्यावसायिक संस्थाओं पर ही निर्भर रहना होगा? क्या आने वाले समाजों में एकल परिवार ही जीवन की सचाई बनकर उभरेंगें अथवा इनमें भी अभी और टूटन बढ़ेगी? सवाल यह भी है कि क्या रिश्तों की टूटन को बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया समझा जाए या इस नए नियंतण्र समाज का दबाव मानकर चलें? आज ये कुछ ऐसे उभरते ज्वलंत प्रश्न हैं जिनका जवाब खोजना समय की मांग है।सामाजिक संबंधों के ढांचे पर ऐतिहासिक निगाह डालने से ज्ञात होता है कि आजादी के आंदोलन के बाद पुरानी पीढ़ी में जिन मूल्यों और आदशरे के साथ सामाजिक रिश्तों को परिवार के संयुक्त सांचे में ढाला; पूंजी के विस्तार, बाजार की आक्रामकता और व्यक्ति के रातोंरात सफल होने की महत्वाकांक्षा ने उसे एक ही पल में बिखेर कर रख दिया। इन रिश्तों के टूटन की खनक आज समाज में साफ सुनाई दे रही है। कई बार अनुभव होता है कि जैसे औद्योगिक-व्यापारिक व्यवस्था के फैलाव में परिवार और समुदाय के भावनात्मक रिश्ते और उनकी वफादारियां बाधक सिद्ध हो रही हैं। अवलोकन बताते हैं कि आज हर रिश्ता एक तनाव के दौर से गुजर रहा है। वह चाहे माता-पिता का हो या पति-पत्नी का अथवा भाई-बहन, दोस्त या अधिकारी-कर्मचारी का ही रिश्ता क्यों न हो। इन सभी रिश्तों के बीच एक सर्द भाव पनप रहा है। ध्यान रहे कि सामाजिक रिश्ते निरंतर संवाद की मांग करते हैं। संवाद का अभाव सामाजिक रिश्तों की गर्माहट को कम करता है। सामुदायिक रिश्तों की मिसाल माने जाने वाले गांवों में भी अब परिवार की संयुक्तता विभाजित हो रही है। कई मामलों में ये रिश्ते इंच-प्रति-इंच जमीन को लेकर खून की होली खेल रहे हैं। अदालतों में अधिकांश मुकदमे प्रापर्टी की सिकुड़ती सीमाओं को लेकर दर्ज हैं। परिवार की संयुक्तता को घायल करने की पीछे भी इसी सम्पत्ति का ब्ॉंटवारा देखने में आ रहा है। आज एक नूतन ग्लोकल कल्चर (ग्लोबल-लोकल संस्कृति) अर्थात दोगली संस्कृति जन्म ले रही है। इसके एक ओर बाहरी आवरण पर जहां हम ग्लोबल होने का दावा ठोक रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मौजूदा पीढ़ी सोच, आचार-विचार, प्रथाओं और परंपराओं में अभी लोकल होने की पीड़ा से जूझ रही है। कहना न होगा कि नये नियंतण्र परिवेश में यह सैंडविच कल्चर आज नई सोच के दबाव में है।गौरतलब है कि आज का मानव- मशीन, सूचना और बाजार की जबरदस्त गलाकाट होड़ के सामने स्वदेशी जमीन पर ठहर नहीं पा रहा है। यह खुले आम आदमी और मशीन का संघर्ष है जहां व्यक्तिगत संबंधों की संवेदनाएं शून्यता के क्षितिज में तैर रही हैं। चारों ओर पूंजी, प्रापर्टी, धन, बाजार और प्रोफेशनलिज्म के सामने मानव, मानवीयता, सहिष्णुता, चरित्र, संस्कार व मूल्यों इत्यादि की र्चचा पृष्ठभूमि में चली गई है। कार्ल मार्क्स ने डेढ़ सौ साल पहले ‘‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ में साफ लिखा था कि पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार में कैश-नेक्सस यानी मुद्रा के लेन-देन के संबंध बाकी सारे मानव संबंधों पर भारी पड़ेंगे। भारत में भी ऐसा प्रतीत होना शुरू हो गया है। कहना न होगा कि यह ग्लोबल व्यवस्था इस सचाई से अच्छी तरह वाकिफ है कि जब तक व्यक्ति के परिवार और समुदाय से भावनात्मक रिश्तों को खत्म नहीं कर दिया जाता, तब तक इस व्यवस्था को व्यावसायिक रूप से श्रेष्ठ नहीं बनाया जा सकता। यह इसी का परिणाम है कि आज के किशोर अपने परिवारों के बंधन से मुक्त होकर अपनी अलग नई दुनिया (पीयर सोसाइटी) बसाने को मजबूर हैं। मां-बाप से खून का रिश्ता भी अब इनके लिए अर्थहीन और अनुपयोगी होना शुरू हो गया है। यही वजह है कि आज पुरानी पीढ़ी अपने को असुरक्षित महसूस कर रही है। आज पीढ़ियों की यह रिक्तता तमाम प्रकार की विसंगतियों को जन्म दे रही है। इनमें आपसी रिश्तों के बीच बढ़ती संवादहीनता, युवाओं में मूल्यों का ह्रास, बढ़ता उन्मुक्त जीवन, संस्कारों की कमी एवं पारिवारिक रिश्तों में शीत भाव प्रमुख हैं। परिवार एवं समाज की अंदरूनी दीवारों के दरकने से सामाजिक परिवर्तन के योजनाबद्ध होने का स्वप्न फिलहाल मद्धिम पड़ता नजर आ रहा है।हमारी सामाजिक उदासीनता से पश्चिम का प्रभाव हमारी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। ऐसी अवस्था में सामाजिक रिश्तों का रूप बदलना स्वभाविक ही है। बदलते समाज में हमें चाहे जितनी विभिन्नताएं दिखाई दें, परंतु फिर भी हम भारतीय- परिवार, आपसी रिश्तों व उनके अहसास से मुंह मोड़कर समाज में देर तक अस्तित्व में नहीं रह सकते। आज परिवार व विवाह जैसी सनातन संस्थाएं संकट में हैं तो केवल इसलिए क्योंकि हमने सामाजिक बदलाव के दौर में इन संस्थाओं की परवाह करनी बिल्कुल छोड़ दी। निश्चित ही नियंतण्र स्तर पर यह समय नव सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का है। यह भी सच है कि नई उभरती सामाजिक शक्तियों के विकास का मार्ग भारतीय संस्कृति से ही होकर गुजरेगा। परंतु निकट भविष्य में समाज में बढ़ता धन का प्रभाव, छद्म तरक्की की होड़ व बढ़ता सामाजिक अकेलापन भी हमें परेशान करता रहेगा। ऐसे में हमें करना यह है कि सामाजिक जीवन की सुसुप्तावस्था से बाहर आकर अपनी देशज सामाजिक संस्थाओं से जुड़े रिश्तों के अहसास को अपने निजी स्वार्थो से अलग रखें। तभी सामाजिक रिश्तों में पुराने दौर का चुंबकीय आकर्षण लौटने की संभावनायें बलवती हो सकेंगी।(RS)
(लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)

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