Wednesday 6 May 2015

पदवी बांटने वालों के बाजार में घमासान (अरुण तिवारी)

सांगठनिक स्तर पर देखें तो पर्यावरण की चिंता करना पर्यावरणीय संगठनों का काम है और शिक्षा की चिंता करना शैक्षिक संगठनों का। किंतु क्या यह पढ़-सुनकर ताज्जुब नहीं होता कि भारत में शैक्षिक संस्थानों की रैंकिंग का काम राजनीतिक पत्रिकाओं ने संभाल लिया है और ऐसे-ऐसे संगठन औद्योगिक रैंकिंग करते देखे गये हैं जिन्होंने खुद कभी उद्योग नहीं चलाये। इसी तरह की उलटबांसी पर्यावरण के क्षेत्र में भी दिखाई दे रही है। पिछले दो दशक से कई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठन, दुनिया भर की पर्यावरण रेटिंग में शिद्दत से जुटे दिखाई दे रहे हैं। और आम जन हकीकत से रू-ब-रू हुए बिना, रैंकिंग के आधार पर भविष्य के निर्णय करने लगे हैं।निर्थक सी लगती इन उलटबांसियों का मकसद एक वर्ग द्वारा येन-केन-प्रकारेण सिर्फ पैसा कमाना है। रैंकिंग देने वाले भारतीय संगठनों के खेल किसी से छिपे नहीं है। अंतरराष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुदेशीय कंपनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं, निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए पर्यावरण के सत्यानाश के कई उदाहरण भारत में हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ‘‘पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नये शिकार हैं। बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान हाल-परेशान हैं। उन्नत बीज वाली फसलें खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना है कि न चाहते हुए भी किसान कीटनाशक की शरण में जाने को मजबूर है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अंतरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है। अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाये स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठन आर ओ, शौचालय, मलशोधन संयंत्र, दवाइयां और टीके बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुस्खे इनके पास हैं। ये ‘‘हैंड वाश डे’ के जरिए ‘‘ब्रेन वाश’ का काम करते हैं। ये मामूली कीमत वाले साधारण नमक को आयोडाइज्ड का नाम दे महंगे भाव बिकवाते हैं। हमारे कुरता-धोती व सलवार-साड़ी जैसे परिधानों को पिछड़ा बता पुराने कपड़ों की खेप हमारे जैसे मुल्क में खपाते हैं। आज पुनर्पयोग के नाम पर बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रानिक, प्लास्टिक व दूसरा कचरा विदेशों से भारत आ रहा है। विकसित देश कचरा फैलाने वाले अपने उद्योगों को गरीब देशों को भेज रहे हैं। पहले किसी देश को कचराघर में तब्दील करना और फिर कचरा निष्पादन के लिए अपनी कंपनियों को रोजगार दिलाने का खेल कई स्तर पर साफ देखा जा सकता है। इसके जरिये वे अपने कचरे के पुनर्चक्रीकरण का खर्च बचा रहे हैं सो अलग। सीधे-सीधे कहें तो ये ऐसी बाजारू ताकते हैं जो अपना माल बेचने के लिए दुनिया भर में अफवाहों का विज्ञापन करती हैं। मौजूदा को नकारने-बिगाड़ने और नये को सर्वश्रेष्ठ समाधान बताना ही इनकी मार्किटिंग का आधार है। गौर करें तो हाल में दावोस में जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक का आधार इस खेल से बहुत मेल खाता है। असल चिंता तो पर्यावरणीय क्षति की होनी चाहिए। मूल कारक तो वही है। जिन कारणों से पर्यावरणीय की क्षति होती है अत: उन्हें रोकने के प्रयासों को आधार बनाना चाहिए था लेकिन सूचकांक का आधार इसे न बनाकर पर्यावरणीय क्षति से मानव सेहत तथा पारिस्थितिकीय क्षति रोकने के प्रयासों को बनाया गया है। बचपन से पढ़ते आये हैं ‘‘इलाज से बेहतर है रोग की रोकथाम।’ लेकिन उक्त आधार रोकथाम को पीछे और इलाज को आगे रखता है। क्या यह सही है? इस आधार पर जारी पर्यावरणीय प्रदशर्न सूचकांक में शामिल कुल 178 देशों की सूची में भारत को 155वें पायदान पर रखकर फिसड्डी करार दिया गया है। पड़ोसी पाकिस्तान (148) और नेपाल (139) से भी पीछे। यह सूचकांक र्वल्ड इकोनॉमी फोरम की पहल पर येल और कोलंबिया विविद्यालय ने तैयार किया है। सैमुअल फैमिली फाउंडेशन और कॉल मेकबेन फाउंडेशन ने इसमें मदद की है। गौरतलब है कि सुधरती आर्थिकी वाले चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस और भारत जैसे किसी भी देश को रैंकिंग में आगे नहीं रखा गया औ भारत को सभी से पीछे रखा गया है। दक्षिण अफ्रीका को 72, रूस को 73, ब्राजील को 78 और चीन को 118 वें पायदान पर रखा गया है। भारत को मात्र 31.23 अंक दिए गये हैं। स्विटरजरलैंड, लक्समबर्ग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और चेक रिपब्लिक के नाम प्रथम पांच के रूप में दर्ज हैं। उभरती आर्थिकी वाले देशों को खास तौर पर इंगित करते हुए सूचकांक रिपोर्ट कहती है कि ये वे देश हैं, 2009 से 2012 के बीच जिनकी आर्थिकी में 55 प्रतिशत तक तरक्की हुई। यह ठीक है कि नई आर्थिक तरक्की वाले देशों ने पर्यावरणीय क्षेत्र में काफी कुछ खोया है। यह भी सही है कि हवा, जैव विविधता और मानव सेहत के लिए जरूरी इंतजाम किए बगैर शहरीकरण बढ़ाते जाना खतरनाक है; बावजूद इसके क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रमों की पूरी श्रृंखला दुनिया को शहरीकरण की तरफ ही धकेल रही है ? गांव को गांव बना रहने देने का संयुक्त राष्ट्र का एक कार्यक्रम हो तो बताइये! जरूरी है कि ऐसी रिपोर्टों की नीयत व हकीकत का विश्लेषण करते वक्त ‘‘विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को न भूला जाए जो कहती है कि आर्थिक और भौगोलिक शक्ति के उत्तरी अमेरिका और यूरोप जैसे परंपरागत केन्द्र अब बदल गये हैं। लेटिन अमेरिका, एशिया और दक्षिण अफ्रीका उभरती आर्थिकी के नये केन्द्र हैं। तकनीक के कारण संचार, व्यापार और वित्तीय प्रबंधन के तौर-तरीके बदले हैं। हमें भी बदलना होगा। फोरम रिपोर्ट सरकारों, कारपोरेट समूहों और अंतरराष्ट्रीय न्यासियों के करीब 200 विशेषज्ञों ने तैयार की है। फोरम की रिपोर्ट कहती है कि रोजगार विकसित करने के नाम पर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े जनाधार वाली संस्थाओं को सीधे मार्किटिंग में उतारा जाये। रिपोर्ट ने हैती में मर्सीकोर नामक संस्था द्वारा बीमा बेचने का जिक्र किया है। फोरम की रिपोर्ट, बेहतर शासन व पारदर्शिता के नाम पर बौद्धिक क्षमता वाले संगठनों को संबंधित देशों की सत्ता में भी बैठाने का इरादा रखती है। दावोस में पेश रिपोर्ट हैती, सोमालिया, माली, लियोथो और अफगानिस्तान को ऐसे देशों के रूप में चिह्नित करती है, जहां अशांति और राजनीतिक उथल-पुथल है। पं. नेहरू की पुस्तक ‘‘ग्ल्म्पिसेस ऑफ र्वल्ड हिस्ट्री’ इस बारे में बहुत पहले से सचेत करती आ रही है। वह कहती है कि दूसरे देश के संसाधनों पर कब्जा करने से पहले शक्तिशाली देश उनकी राजनीतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी रखते हैं और मौका पाकर जब चाहें, सत्ता उलट देते हैं। भारतीय राजनीति में दावोस की दिलचस्पी का एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है। कुल मिलाकर खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं। जरूरत, बाजार आधारित गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है। इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और गलतियां भी। अत: अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पूछना चाहिए कि पहले खेती पर संकट को आमंत्रित कर, फिर सब्सिडी देना और खाद्यान्न आयात करना ठीक है या खेती और खाद्यान्न को संजोने की पूर्व व्यवस्था व सावधानी पर काम करना? सामाजिक/प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जांच लें। प्रवेश के लिए स्कूल/कॉलेज खोजते वक्त, खरीदारी के वक्त, उत्पाद खोजते वक्त और यात्रा के दौरान होटल खोजते वक्त हम रैंकिंग से ज्यादा, खुद की खोज पर भरोसा करें।(RS)

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