Wednesday 6 May 2015

धर्म का विज्ञान बताने वाले बुद्ध (डॉ. कुसुम कुमारी) (बौद्ध दार्शनिक असिस्टेंट डीन, ह्यूमेनिटीज, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया)

आज युग की मांग एक ऐसे सकारात्मक आदर्श की है जो मानवतावादी, सांसारिक और अध्यात्मिक प्रवृत्तियों में तालमेल स्थापित करता हो। राज कुमार सिद्धार्थ से तथागत भगवान बुद्ध तक की यात्रा, इसी समन्वय की यात्रा है। 2600 साल पहले बुद्ध ने धर्म को पारलौकिक आदर्श मानकर जीवनशैली के रूप में अपनाने की सलाह दी। प्राचीन समय में प्रवृत्तियों के निषेध से आदर्श (ईश्वर) की ओर बढ़ने की परिकल्पना थी। यहां आदर्श, यथार्थ से बहुत ही ऊंचा था। आज 21वीं शताब्दी में मानव ने इतने प्रकार के वैज्ञानिक और तकनीकी उपकरण हासिल कर लिए हैं कि सांसारिक प्रवृत्तियां प्रबल हो गई हैं। ई-पूजा की प्रवृत्ति चल पड़ी है। भगवान तथा धर्मग्रंथ टीवी स्क्रीन पर हैं। बुद्ध ने कहा था, 'मनुष्य के मस्तिष्क में सबकुछ निहित है।' इसीलिए बुद्धि प्रधान बौद्ध दर्शन नए युग में आकर्षण का केंद्र बन गया है।
मौजूदा हालत में व्यक्ति से विश्व तक की स्थिति के आईने में बौद्ध विचारधारा की व्यावहारिक पड़ताल करें तो स्पष्ट होता है कि जिजीविषा, भौतिक सुखों की कामना, नैतिकताविहीन समाज की समस्या। राष्ट्र और विश्व के स्तर पर युद्धोन्मत्त प्रवृत्तियां, आर्थिक दोहन और शोषण की वृत्तियां सबका शमन निराकरण बुद्ध के निर्देशों के पालन से संभव है। सामान्यतः उत्पत्ति स्रोत से धर्म की दो श्रेणियां हैं। पहली, ईश्वरीय प्रेरणा आधारित और दूसरी, वैसे धर्म जो ईश्वरीय प्रेरणा के स्थान पर जीवन के मूलभूत सत्य के आधार और आश्रय को अपनाते हैं। बौद्ध धर्म की गणना दूसरी कोटि में होनी चाहिए, जो जीवन के बहुविध प्रयोगों और अनुभवों पर आधारित है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को यही बताया कि बुद्धत्व की प्राप्ति उनके अनुभव, प्रयोग और अनुसंधान का ही प्रतिफल है।
बुद्ध ने धर्म को अंधविश्वास या परंपरा के रूप में अपनाकर एक मार्ग के रूप में अपनाया। जो सिद्धांत प्रतिपादित किए वे इतने ठोस हैं कि निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनके दुरुपयोग की सभी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। यही कारण है कि शताब्दियों बाद भी बुद्ध की शिक्षाएं समसामयिक लोकप्रिय होने के साथ जीवन की गुत्थियों को सुलझाने में पूर्णतः समर्थ है। ग्रंथों तक सिमटकर, जीवन के वास्तविक कार्यक्षेत्र से जुड़े बुद्ध के उपदेश जनभाषा (पालि) में थे। किसी भी धर्म में जीवन के मूलभूत सिद्धांत इतनी सरलता और सुगमता से जनभाषा में प्रतिपादित नहीं किए गए। अपने मूल सिद्धांत को बुद्ध ने चार आर्यसत्य- दुःख, दुःख का कारण, दुःख निरोध तथा दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा, के रूप में सामने रखा। बौद्ध चिंतन में दुःख एवं दुःख से निवृत्ति को ही प्रधान स्थान दिया गया है। दुःख से निवृत्ति का मार्ग भी बड़ा ही सुस्पष्ट है। बुद्ध के अनुसार अगर इस जगत में सबकुछ इच्छानुकूल होता तो किसी भी धर्म को मानने की आवश्यकता ही नहीं होती। मनुष्य चार्वाक के आदर्शों का पालन करता। पर दुःख संसार में विद्यमान है- यह सत्य है।
जीवन की सबसे बड़ी समस्या (महाव्याधि) भूख है। इसके उमड़ते समुद्र में हर कोई लगातार युद्धरत है। किंतु दैहिक आवश्यकता ऐश्वर्य की आकांक्षा अन्य दायरों की ओर खींच ले जाती है। फलतः कामनाओं का कहीं अंत नहीं होता। इस मरणांतक संग्राम का मूल कारण है तृष्णा। बुद्ध ने इसे 'तण्हा' कहा है। यही अत्याचार का मूल स्रोत है। धन-वैभव के लिए तृष्णा, क्रोध, घृणा, द्रोह, शत्रुता, पाखंड आदि का मूल आधार है। महान व्यक्तियों और राष्ट्रों का विनाशक तत्व है। यहीं से अशांति का सूत्रपात होता है। मानव के संपूर्ण दुःखों का कारण मानव में ही अंतर्निहित है। बुद्ध के अनुसार इसका निवारण मनुष्य के वश में है, लेकिन अज्ञानता के कारण ही मानव इसे नहीं स्वीकारता। यदि कोई अपने अंतर्मन को टटोले, तो पाएगा कि सारे दुःखों का कारण 'तण्हा' ही है। बुद्ध का जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। दुःख का निवारण प्रार्थना, किसी दैवी सिद्धांत में विश्वास या किसी बाहरी शक्ति के द्वारा संभव नहीं है। इसे आत्मानुभूति और आत्मसिद्धि से ही नष्ट किया जा सकता है। यह असंभव नहीं है, कठिन भले ही हो। बुद्ध ने कहा है कि मानव अने को खास तरीके से शिक्षित करे तो 'तण्हा' से मुक्ति पा सकता है। यहीं, बौद्ध धर्म अन्य धर्मों से अधिक आशावादी प्रतीत होता है। जीवन के प्रति बौद्ध दृष्टि एक प्रकार की शिक्षा है। बुद्ध ने इसे हासिल करने के लिए सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक आजीव, सम्यक वाक्, सम्यक स्मृति और सम्यक व्यायाम को आवश्यक बताया।
सम्यक् दृष्टि के अनुरूप व्यवहार किया जाय तो धार्मिक अंधविश्वास के नाम पर उठे विवादों से पूर्णतः छुटकारा मिल सकता है। बौद्ध मत के अनुसार शस्त्र नहीं, ज्ञान से मिथ्या धारणाओं का निवारण श्रेयष्कर है। सम्राट अशोक का उदाहरण सामने है। सम्यक् वाक् यानी सत्य भाषण तथा दूसरे के अपमान, कटु वचन और व्यर्थ प्रलाप से दूर रहना। सम्यक् कर्मान्त यानी हिंसा, ठगी और मद्यपान दूर रहना। सम्यक् आजीव यानी सद्व्यवहार से बुराइयों का मूलोच्छेदन। सम्यक् स्मृति यानी संसार की क्षणिकता को याद रखना और सम्यक् व्यायाम यानी बुरी आदतें छोड़ने का सच्चे मन से प्रयास। इनके माध्यम से बुद्ध यह निर्देश देना चाहते हैं कि मन ही मानव के प्रत्येक विचार का आश्रय स्थल है। इसकी शुद्धि से ही मानव के संपूर्ण क्रियाकलापों की शुद्धि हो जाती है। सीमित ज्ञान के कारण ही जाति और धर्म के भेद अस्तित्व में हैं।
बुद्ध ने पारलौकिक प्रश्नों की बजाय सांसारिक बातों पर ध्यान केंद्रित रखा। ईश्वर है अथवा नहीं? आत्मा नित्य है या अनित्य? मृत्यु के पश्चात जीवन का क्या होता है? मरणोपरांत जीवन का अस्तित्व रहता है या नहीं? बुद्ध ने इन प्रश्नों को अनुपयोगी बताया। बुद्ध के अनुसार जिस व्यक्ति को विष से बुझा हुआ बाण लगा हो उसे अपने जीवन की रक्षा के लिए उपचार करना चाहिए, कि बाण की आकृति, बाण मारने वाले व्यक्ति की जाति-गौत्र आदि पर विचार करना चाहिए। जो दार्शनिक तथ्यों के शोध में पड़ेगा, वह आध्यात्म मार्ग की ओर नहीं जा सकता। बुद्ध ने पाखंड और आडंबर से मानवता को मुक्त किया। बुद्ध ही भारत में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जातिभेद की विषमता और अस्पृश्यता के विरुद्ध प्रबल अभियान शुरू किया। ईसा पूर्व छठी शताब्दी के तत्कालीन समाज में एक बड़े समूह को 'शूद्र' बताकर मौलिक अधिकार तक से वंचित कर दिया गया था। बुद्ध ने घोषणा की कि व्यक्ति के अंदर ब्राह्मणत्व की उपत्ति कर्म से होती है, कि जन्म से। इसीलिए बुद्ध के जीवन मार्ग में आत्मसंयम एवं आत्म साक्षात्कार पर प्रचुर बल दिया गया है। उनका निर्देश है- अन्त दीपा बिहरथ, अवसरणा, अनसरणा, पय धम्मा संखारा अष्पमादेन संपादेथ', अर्थात् स्वयं के लिए प्रकाश बनो। स्वयं के लिए शरण बनो। स्वयं से परे कोई शरण नहीं। सभी पदार्थ अस्थायी है। निर्वाण के लिए तत्परता से यत्न करो।
बुद्ध ने बताया कि बुद्धत्व की प्राप्ति उनके अनुभव, प्रयोग और अनुसंधान का फल है। उनके सिद्धांत इतने ठोस हैं कि निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए उनके दुरुपयोग की आशंका नहीं रहती।
दुःख का निवारण प्रार्थना, किसी दैवी सिद्धांत में विश्वास या किसी बाहरी शक्ति के द्वारा संभव नहीं है। इसे आत्मानुभूति से ही नष्ट किया जा सकता है। यह असंभव नहीं है, कठिन भले ही हो। यहीं, बौद्ध धर्म अन्य धर्मों से अधिक आशावादी प्रतीत होता है।
बुद्ध ने पारलौकिक प्रश्नों की बजाय सांसारिक बातों पर ध्यान केंद्रित रखा। ईश्वर है अथवा नहीं? आत्मा नित्य है या अनित्य? मृत्यु के पश्चात जीवन का क्या होता है? मरणोपरांत जीवन का अस्तित्व रहता है या नहीं? उन्होंने इन प्रश्नों को अनुपयोगी बताया।

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