सात मई को ब्रिटेन नई सरकार चुनने के लिए मतदान करेगा। यह ब्रिटेन के
हालिया इतिहास का सबसे अनिश्चित चुनाव होने जा रहा है। अभी तक कोई अनुमान
नहीं है कि जीत किसकी होगी। चुनावी सर्वे दोनों प्रमुख दलों कंजरवेटिव और
लेबर में कांटे की टक्कर बता रहे हैं। सर्वो के अनुसार इस बार ब्रिटेन में
खंडित जनादेश की उम्मीद है, जिससे कंजरवेटिव और लेबर पार्टियों के नेताओं
डेविड कैमरन और एड मिलिबैंड को घबराहट हो रही होगी। दोनों ही दल गंभीर
समस्याओं से जूझ रहे हैं। व्यक्तिगत स्तर पर डेविड कैमरन मिलिबैंड से अधिक
पसंद किए जाते हैं, किंतु उनकी पार्टी के बारे में धारणा है कि यह सामाजिक
क्षेत्र में खर्च में और अधिक कटौती करेगी। मिलिबैंड को उतना प्रभावी नेता
नहीं माना जाता और वह लोगों के साथ संपर्क बनाने में अधिक कामयाब नहीं रहे
हैं। सात प्रमुख दलों के नेताओं की टीवी पर हुई बहस से कोई खास निष्कर्ष
नहीं निकला। यूके इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआइपी) के निजेल फैरेज और ग्रींस
की नातालिया बैनेट, स्कोटिश नेशनलिस्ट पार्टी (एसएनपी) की निकोला
स्टजिर्यन, प्लेड साइम्रू (वेल्स नेशनलिस्ट्स) की लीएन वुड ने खासा
प्रभावित किया। यह दर्जा हासिल करने के लिए उनके पूर्ववर्तियों ने दशकों तक
प्रयत्न किया, किंतु फिर भी कामयाबी हासिल नहीं कर पाए। दोनों प्रमुख दल
मतदाताओं को लुभाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। लेबर पार्टी वादा कर रही
है कि वह नॉन डोमिसाइल व्यवस्था को भंग कर देगी, जो कुछ अमीर लोगों को देश
से बाहर अजिर्त आय पर करों में छूट प्रदान करती है। मिलिबैंड के अनुसार
21वीं सदी में इस कानून को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे लगता है कि
ब्रिटेन टैक्स हैवन बन चुका है। इस कदम से अरबों पाउंड सरकार को मिल सकते
हैं। किंतु यह एक ऐसी पार्टी के लिए बड़ी उलटबांसी है जो एक माह पहले तक यह
दलील देती थी कि इस कदम से ब्रिटेन को नुकसान होगा क्योंकि अमीर लोग देश
छोड़ देंगे। कंजरवेटिव्ज ब्रिटेन की चहेती नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) के
पुनर्निर्माण के वादे से अपनी साख बनाने का प्रयास कर रहे हैं। पहले इस
योजना से कदम पीछे खींच लेने वाली कंजरवेटिव पार्टी अब वादा कर रही है कि
वह एनएसएस लागू करने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी और इसके वित्त पोषण में
आने वाली कमी को पूरा करेगी। लेबर पार्टी का आरोप है कि 2010 के बाद से
ब्रिटेन में होने वाली शल्यक्रिया के मामले कम हुए हैं और इसके लिए
कंजरवेटिव पार्टी जिम्मेदार है। यही नहीं चिकित्सा सुविधाओं की अनदेखी का
ही नतीजा है कि अब स्वास्थ्य केंद्रों में लंबी-लंबी लाइनें लगने लगी हैं।
यूरोप में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ रही है। कंजरवेटिव पार्टी
चेतावनी दे रही हैं कि लेबर पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह
अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखेगी। कंजरवेटिव्ज और लिबरल डेमोक्रेट्स
दोनों वर्तमान घाटे को खत्म करने की बात कर रहे हैं। लेबर वादा कर रही है
कि वह हर साल घाटे को कम करेगी किंतु इसके लिए कोई समयसीमा तय नहीं कर रही
है। लेबर का कहना है कि वह जल्द से जल्द बजट को लाभ में ले आएगी। इस चुनाव
से पता चलता है कि ब्रिटेन पिछले कुछ वर्षो में तेजी से बदला है।
कंजरवेटिव्ज को यूकेआइपी के उभार से नुकसान होता दिख रहा है जबकि लेबर
पार्टी को इसके गढ़ स्कॉटलैंड में स्कॉटिश नेशनलिस्ट्स चुनौती दे रहे हैं।
प्रधानमंत्री डेविड कैमरन यूकेआइपी के समर्थकों को अपने पाले में लाने में
जुटे हैं। उनका कहना है कि आम चुनाव विरोध में वोट देने का वक्त नहीं है।
एसएनपी नेता निकोला लेबर पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर रही हैं। उनका कहना
है कि एसएनपी मिलिबैंड को तभी प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देगी जब
कंजरवेटिव्ज बहुमत हासिल करने में विफल हो जाएंगे। एसएनपी इस मुद्दे पर
जितना जोर देगी, उतने ही वोट लेबर पार्टी से कट जाएंगे। मिलिबैंड इस बात को
जानते हैं इसीलिए वह और उनकी पार्टी एसएनपी से दूरी बनाए रखने की कोशिश कर
रही है।
1997, 2001 और 2005 में आम चुनाव जीतने वाले और 2007 में प्रधानमंत्री पद छोड़ने वाले लेबर नेता टोनी ब्लेयर भी चुनावी अखाड़े में कूद पड़े हैं। उन्होंने चेताया है कि यूरोपीय संघ की सदस्यता के मुद्दे पर डेविड कैमरन द्वारा जनमत संग्रह कराए जाने की कोशिश आर्थिक उथल-पुथल मचा देगी। ब्लेयर का सुझाव है कि यूरोपीय संघ को छोड़ने से ब्रिटेन विश्व में अपनी अहमियत खो देगा और इससे देश वैश्विक नेतृत्व के खेल से बाहर हो जाएगा। लेबर उद्योग जगत को लुभाने के लिए जनमत संग्रह के विरोध को मुद्दा बना रही है। हालांकि उद्योग जगत ने चेतावनी जारी की है कि जनमत संग्रह से अनिश्चितता फैलेगी, किंतु यूरोपीय संघ में ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है और यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। ब्रिटेन के चुनाव में जनमत संग्रह एक बड़ा मुद्दा बन गया है क्योंकि यह चुनाव देर-सबेर ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से रिश्ता निर्धारित करेगा।
भारत और ब्रिटेन ने पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के 2005 के भारत दौरे में सामरिक साङोदारी पर समझौता किया था, लेकिन यह साङोदारी केवल नाम की रह गई। कंजरवेटिव्ज इसे नई दिशा देने को उत्सुक हैं। ब्रिटेन भारत में सबसे बड़ा यूरोपीय निवेशक है और भारत ब्रिटेन में दूसरा सबसे बड़ा निवेशक है। ब्रिटेन में भारतीय छात्र दूसरा सबसे बड़ा समूह है। दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक, भाषायी और सांस्कृतिक रिश्ते हैं जिनका सही ढंग से दोहन नहीं किया गया है। डेविड कैमरन भारत के लिए बेहतर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। उन्होंने भारतीय हितों के लिए काफी काम किया है। कंजरवेटिव नेतृत्व में सरकार भारत के लिए बेहतर साबित होगी, किंतु भारत के आर्थिक शक्ति के रूप में उभार से ब्रिटिश रवैये में बदलाव देखने को मिला है और अब लेबर सरकार भी, मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर प्रवचन देने और पाकिस्तान के प्रति नरम रुख रखने के बावजूद नई दिल्ली की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं है।
ब्रिटेन के सामने अपने भविष्य को चुनने का सवाल है। वहां राजनीति तेजी से करवट बदल रही है। क्षेत्रीय और छोटे दलों का उभार यह संकेत दे रहा है कि ब्रिटेन की राजनीति अब नए दौर में प्रवेश करने जा रही है। स्थिति साफ होने ही वाली है। 7 मई का चुनाव ब्रिटेन को उस भंवरजाल से निकालता नहीं दिख रहा है, जिसमें वह देश फंसा हुआ है, जिसका कभी विश्व में सबसे बड़ा साम्राज्य था और जिसके राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता था।
(लेखक किंग्स कॉलेज, लंदन में प्राध्यापक हैं)
1997, 2001 और 2005 में आम चुनाव जीतने वाले और 2007 में प्रधानमंत्री पद छोड़ने वाले लेबर नेता टोनी ब्लेयर भी चुनावी अखाड़े में कूद पड़े हैं। उन्होंने चेताया है कि यूरोपीय संघ की सदस्यता के मुद्दे पर डेविड कैमरन द्वारा जनमत संग्रह कराए जाने की कोशिश आर्थिक उथल-पुथल मचा देगी। ब्लेयर का सुझाव है कि यूरोपीय संघ को छोड़ने से ब्रिटेन विश्व में अपनी अहमियत खो देगा और इससे देश वैश्विक नेतृत्व के खेल से बाहर हो जाएगा। लेबर उद्योग जगत को लुभाने के लिए जनमत संग्रह के विरोध को मुद्दा बना रही है। हालांकि उद्योग जगत ने चेतावनी जारी की है कि जनमत संग्रह से अनिश्चितता फैलेगी, किंतु यूरोपीय संघ में ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है और यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। ब्रिटेन के चुनाव में जनमत संग्रह एक बड़ा मुद्दा बन गया है क्योंकि यह चुनाव देर-सबेर ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से रिश्ता निर्धारित करेगा।
भारत और ब्रिटेन ने पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के 2005 के भारत दौरे में सामरिक साङोदारी पर समझौता किया था, लेकिन यह साङोदारी केवल नाम की रह गई। कंजरवेटिव्ज इसे नई दिशा देने को उत्सुक हैं। ब्रिटेन भारत में सबसे बड़ा यूरोपीय निवेशक है और भारत ब्रिटेन में दूसरा सबसे बड़ा निवेशक है। ब्रिटेन में भारतीय छात्र दूसरा सबसे बड़ा समूह है। दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक, भाषायी और सांस्कृतिक रिश्ते हैं जिनका सही ढंग से दोहन नहीं किया गया है। डेविड कैमरन भारत के लिए बेहतर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। उन्होंने भारतीय हितों के लिए काफी काम किया है। कंजरवेटिव नेतृत्व में सरकार भारत के लिए बेहतर साबित होगी, किंतु भारत के आर्थिक शक्ति के रूप में उभार से ब्रिटिश रवैये में बदलाव देखने को मिला है और अब लेबर सरकार भी, मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर प्रवचन देने और पाकिस्तान के प्रति नरम रुख रखने के बावजूद नई दिल्ली की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं है।
ब्रिटेन के सामने अपने भविष्य को चुनने का सवाल है। वहां राजनीति तेजी से करवट बदल रही है। क्षेत्रीय और छोटे दलों का उभार यह संकेत दे रहा है कि ब्रिटेन की राजनीति अब नए दौर में प्रवेश करने जा रही है। स्थिति साफ होने ही वाली है। 7 मई का चुनाव ब्रिटेन को उस भंवरजाल से निकालता नहीं दिख रहा है, जिसमें वह देश फंसा हुआ है, जिसका कभी विश्व में सबसे बड़ा साम्राज्य था और जिसके राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता था।
(लेखक किंग्स कॉलेज, लंदन में प्राध्यापक हैं)
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