Monday 11 May 2015

ब्रिटिश चुनाव का संदेश (स्वप्न दासगुप्ता )

शुक्रवार को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने तमाम ओपिनियन पोल को धता बताते हुए चुनाव में निर्णायक जीत दर्ज की और इसी के साथ आगामी पांच वर्षो के लिए राजनीतिक अनिश्चितता के बादल भी छट गए। इससे केवल यूनाइटेड किंगडम के लोगों को ही राहत की सांस नहीं मिली, बल्कि ज्यादातर ऐसे लोकतंत्रों को भी राहत मिली जहां के लोग केवल चुनाव के दौरान ही राजनीति के बारे में सोचा करते हैं। ब्रिटेन अपना साम्राज्य खो चुका है। वर्तमान में यह महज अमेरिका का एक सहयोगी भर रह गया है, लेकिन लंदन आज भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में अपने प्रभाव को बरकरार रखे हुए है। वर्तमान तनावपूर्ण आम चुनाव से इस स्थिति में कोई भी बदलाव नहीं आया है। कोई भी आम चुनाव सैद्धांतिक रूप से या तो राष्ट्रीय मसलों से जुड़ा होता है अथवा स्थानीय मामलों से। हो सकता है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई किसी सरकार के चुनाव के पीछे कुछ अंतरराष्ट्रीय कारण भी हों, लेकिन जिन परिस्थितियों में किसी नेता अथवा पार्टी को जनादेश प्राप्त होता है वे नि:संदेह घरेलू मुद्दों से ही आकार लेती हैं। थोड़े या अधिक रूप में यह कारक दूसरे देशों में भी प्रतिध्वनित हों, यह आवश्यक नहीं। ब्रिटेन में चुनाव के नतीजों के प्रभाव बिल्कुल स्पष्ट हैं। वस्तुत: राजनीति में जो बात अंतिम तौर पर प्रभावी होती है वह है लोगों की अपनी दिलचस्पी और ब्रिटेन में जो लोग महज अपने हितों के लिए आकांक्षी थे उन्हें इस चुनाव से कुछ सबक मिले होंगे। भारत के संदर्भ में भी इसकी प्रासंगिकता बनती है। मैं इस मुद्दे को सोशल मीडिया में कई भारतीयों की दिलचस्पी के रूप में देखता हूं जो ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति एक जैसे भाव रखते हैं। इन लोगों का सुझाव यही है कि कैमरन की जीत की रणनीति मोदी के लिए भी एक महत्वपूर्ण सीख है। यदि वास्तव में देखें तो ऊपरी तौर पर इसमें कुछ समानता है। मोदी की तरह ही कैमरन को भी एक ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली थी जिसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता थी। राजकोषीय घाटा ऐसी स्थिति में पहुंच गया था जहां से इसे नियंत्रित कर पाना काफी मुश्किल था, व्यापक तौर पर व्यावसायिक माहौल उद्यमियों के हितों के विपरीत था, स्कूल से पढ़कर निकलने वाले छात्रों की योग्यता का स्तर उद्योगों की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं था, बेरोजगारी की दर बहुत उच्च थी और राष्ट्र तमाम तरह की क्षेत्रीय असमानताओं का शिकार था। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि भारत की तरह ही सार्वजनिक विचार-बहस का केंद्र महज कल्याणकारी और लोकप्रिय योजनाओं तक सीमित था, न कि राष्ट्र के समग्र आर्थिक विकास पर। डेविड कैमरन 2010 से जिस गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे थे वह इन समस्याओं का समाधान कर पाने में पूर्ण रूप से सफल नहीं रही। हालांकि ब्रिटेन की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में सुधार की दिशा में उन्होंने उल्लेखनीय सफलता हासिल की। एक ऐसे समय में जब पूरा यूरोप उथल-पुथल के दौर से घिरा रहा तब जर्मनी और ब्रिटेन ही दो ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं थीं जो विकास दर को बनाए रखने और बढ़ाने में सफल हो सकीं।
कैमरन सरकार को घरेलू विपक्ष के विरोध से भी लगातार जूझना पड़ा। हालांकि कैमरन सरकार इस सबके बावजूद कुछ अतिरिक्त व अनावश्यक योजनाओं को खत्म करने में सफल रही। कथित कल्याणकारी योजनाओं में कटौती लोगों के बीच अधिक लोकप्रिय नहीं रही। ब्रिटेन में अभी भी इस संदर्भ में पर्याप्त जागरूकता का अभाव है कि यह देश मुफ्त में प्रदान की जाने वाली योजनाओं और सब्सिडी का बोझ उठा पाने में समर्थ-सक्षम नहीं है। इस तरह की योजनाओं को त्याग पाना निश्चित रूप में कभी भी जनता के बीच लोकप्रिय नहीं रहा। राजनीति में हमेशा यह एक बड़ा जोखिम होता है। पूरे चुनाव के दौरान पुराने दिनों की वापसी के वादे के साथ कैमरन कभी भी अपने इस मुख्य संदेश से विचलित नहीं हुए कि वस्तुस्थिति में सकारात्मक बदलाव हो रहा है और विपक्षी दलों की ओर से लोकप्रिय वादों के माध्यम से ब्रिटेन के लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है। बहुत हद तक इस संदेश को फैलाने में मीडिया से काफी मदद मिली जो राजनीति में आर्थिक नीतियों के मामले में बहुत हद तक भारतीय मीडिया से भिन्न है। हास्यास्पद रूप से इस मामले में बीबीसी एकमात्र अपवाद है जो कंजर्वेटिव विरोधी और वामपंथ के पक्ष में अपने पूर्वाग्रहों से अविचलित बना रहा।
कैमरन के उदाहरण को देखते हुए मोदी सरकार भी इस तथ्य से कभी मुंह नहीं मोड़ सकती कि मुख्य तौर पर उसका चुनाव भारतीय अर्थव्यवस्था को वापस विकास की पटरी पर लाने के लिए किया गया है ताकि हर दिशा में विकास को सुनिश्चित किया जा सके। यह संदेश बहुत प्रासंगिक है। विपक्ष और मीडिया के कुछ मित्रों द्वारा दूसरे तमाम मुद्दों पर बहकाने के प्रयासों के बावजूद मोदी अर्थव्यवस्था को गति देने के लक्ष्य पर केंद्रित हैं। कैमरन की तरह मोदी ने भी ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की तरह उग्र सुधारवाद का रास्ता अपनाने से परहेज किया है। वह अपने साथ सभी वर्गो को लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। वह उसी तरह आगे बढ़ रहे हैं जैसा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने करने के लिए सोचा था, लेकिन वह कर नहीं सके थे। यदि कैमरन ने अपना सारा ध्यान आर्थिक एजेंडे पर केंद्रित किया होता तो वह चुनाव में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर सकते थे, लेकिन उन्हें बहुमत शायद ही मिलता। कंजर्वेटिव पार्टी को मुख्य जनसमर्थन नि:संदेह अर्थव्यवस्था के बेहतर संचालन के लिए मिला है, लेकिन जिस एक बात ने निर्णायक अंतर पैदा किया वह थी कैमरन की पार्टी को हर तरफ से कुछ न कुछ वोट मिलना। विशेषकर चुनाव के अंतिम दौर में कैमरन की पार्टी के पक्ष में माहौल बन गया। देर से आए इस बदलाव को ओपिनियन पोल भांप पाने में विफल रहे।
कैमरन चाहते तो प्रचार के दौरान अप्रवास के मुद्दे को उभारकर लोगों की चिंताओं को लेकर चुनावी लाभ हासिल कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें अहसास था कि ब्रिटेन की सामाजिकता के लिए यह सही नहीं होगा। मुख्य वोट बैंक को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए और भी तरीके होते हैं। अच्छी राजनीति इस बात में निहित होती है कि विपक्ष का विरोध किए बगैर लोगों को प्रेरित किया जा सके और अपने पक्ष में विश्वास में लिया जा सके। कैमरन अपने पिछले पांच वर्षो के सुशासन के आधार पर ही नहीं जीते, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने चुनाव प्रचार की लय-ताल भी बड़े अच्छे ढंग से तय की। ब्रिटेन के चुनावों से मोदी के सहयोगियों और उनकी पार्टी के लिए यह एक बड़ी सीख है। सुशासन अनिवार्य है, लेकिन चुनाव में जीत के लिए लोगों को अपने साथ जोड़ना भी उतना ही जरूरी है।(DJ)
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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