Saturday 2 May 2015

भारत-अफगानिस्तान एक-दूसरे की जरूरत (डॉ रहीस सिंह)

अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी भारत यात्रा पर ऐसे समय में आए हैं जब अफगानिस्तान में अस्थिरता की हल्की-सी हलचल दिख रही है। अफगानिस्तान फिर से आतंकवाद से घिरता दिख रहा है और दुनिया के तमाम देश व संयुक्त राष्ट्र जैसी नियंतण्र संस्थाएं इस स्थिति पर चिंतित दिख रही हैं। अफगानिस्तान के दक्षिण सूबे जाबोल से लेकर कुंदूज और जलालाबाद तक इस्लामी स्टेट (आईएस), इस्लामी मूवमेंट उजबेकिस्तान (आईएमयू) और तालिबान अपना दबदबा बढ़ाने में कामयाब होते लग रहे हैं और इसे अब एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों पर खतरे के रूप में स्वीकृति भी मिलने लगी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति अशरफ गनी भारत किस उम्मीद से आए होंगे। यद्यपि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें यह कहकर आास्त किया है कि भारत और अफगानिस्तान के दिल सालों से जुड़े हैं, इसलिए भारत अफगानिस्तान का दर्द समझता है। फिर भी यहां पर दो सवाल उठते हैं। पहला यह कि क्या भारत अफगानिस्तान के साथ साझेदारी से उपजने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार है, और दूसरा कि क्या अफगानिस्तान इस बात के लिए भारत को आास्त कर सकता है कि वह अपने ‘‘अविभाज्य भाई’ (पाकिस्तान) के मुकाबले भारत को तरजीह देने को राजी है? कभी दुनिया का चौराहा रही अफगानिस्तान की जमीन, पिछले दो दशक में महाशक्तियों के ग्रेट गेम का इस कदर शिकार बनी कि अब वह ऐसे दलदल में तब्दील हो गई जिससे यह देश निकलना चाहता है। दक्षिण एशिया के देशों और विशेषकर भारत के लिए भी जरूरी है कि अफगानिस्तान उस दलदल से बाहर आए। लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा है-पाकिस्तान और आतंकवाद। अफगान नेतृत्व पाकिस्तान के प्रति भक्ति प्रकट करने के लिए विवश है, क्योंकि उसे भलीभांति मालूम है कि यदि वह पाकिस्तान से दूर जाएगा तो पाकिस्तान का वर्चस्व कमजोर होगा, लेकिन इसे बनाए रखने के लिए पाकिस्तान किसी भी हद तक जा सकता है। इसी वजह से अफगान नेतृत्व भारत के प्रति मैत्री संबंधों का इजहार मुक्त मन से नहीं कर पाता है। करजई से लेकर अशरफ गनी तक ने पाकिस्तान को कुछ ज्यादा ही तरजीह दे डाली। अशरफ ने भी अपने सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण का कुछ दायित्व पाकिस्तान को सौंपा। यह उनकी बड़ी गलतियों में से एक है। हालांकि अशरफ गनी आतंकवाद से लड़ना चाहते हैं और उन्हें यह भलीभांति मालूम है कि भारत के सहयोग के बिना वे उससे नहीं निपट सकते। यही कारण है कि अपने भारत दौरे पर उन्होंने सबसे पहले आतंकवाद की कठोर शब्दों में निंदा की। उन्होंने स्पष्ट किया कि अच्छे व बुरे आतंकवादियों में कोई फर्क नहीं किया जाना चाहिए और उन्होंने इस बीमारी से लड़ने के लिए संयुक्त क्षेत्रीय व नियंतण्र दृष्टिकोण का आह्वान भी किया। उल्लेखनीय है कि अमेरिका व पाकिस्तान लंबे समय से आतंकियों का अच्छे व बुरे में विभाजन कर उन्हें अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखने की वकालत करते रहे हैं। इसे भारत खारिज करता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने गनी के आह्वान का समर्थन किया और उन्हें आास्त कराया कि भारत अफगानिस्तान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार है। उन्होंने दक्षिण एशिया में अफगास्तिान को संपर्क का केंद्र बनाने के गनी के दृष्टिकोण का भी समर्थन किया। दरअसल करजई शासन में अफगानिस्तान भारत की अपेक्षा पाकिस्तान की तरफ थोड़ा ज्यादा खिसक गया था। वह पाकिस्तान के साथ एकता का विशाल वृक्ष खड़ा करने की इस कदर चेष्टा कर बैठे कि उसे अपना ‘‘अविभाज्य भाई’ घोषित कर दिया। दरअसल पाकिस्तान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान भारत की ओर झुके, इसलिए यह उसके मन की बात थी। हालांकि करजई को ‘‘रियल पॉलिटिक’ नेता के रूप में पेश किया गया, लेकिन अपने अंतिम फेज तक पहुंचते-पहुंचते वे इससे दूर चले गए। तो क्या अशरफ गनी अफगानिस्तान की ‘‘रियल पॉलिटिक’ समझ गए हैं? अगर ऐसा है तो क्या वे अफगानिस्तानी ‘‘विदेश नीति की नई व्यवस्था’ (न्यू ऑर्डर ऑफ अफगानिस्तान फॉरेन पॉलिसी) सुनिश्चित कर पाएंगे? महत्वपूर्ण बात यह है कि वे स्वयं आतंरिक चुनौतियों में उलझे हुए हैं। उनके सामने सबसे पहली चुनौती यही है कि गनी के घोर प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला प्रमुख कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) की कुर्सी पर काबिज हैं। इससे राजनीतिक अनिश्चिता का वातावरण भी पनपता है। दूसरी चुनौती इसी का अगला सिरा है। यानी अफगानिस्तान का मौजूदा राजनीतिक ढांचा बेहद कमजोर है। खास बात यह है कि रक्षा मंत्री का महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो अब तक रिक्त है। तीसरी यह कि अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है और वहां आर्थिक पुनरुद्धार की जरूरत है। चौथी चुनौती अफगान कबीलों के मध्य एकता बनाए रखने के साथ-साथ कानून व्यवस्था भी जरूरी है, क्योंकि अब तक वे अफगान कानून-व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। अंतिम चुनौती चीन-पाकिस्तान के छद्म कूटनीतिक उद्देश्यों से संबंधित है। ऐसे में अफगान राष्ट्रपति के लिए नई विदेश नीति की व्यवस्था सुनिश्चित कर पाना बेहद मुश्किल कार्य होगा। ऐसे में उन्हें भारत की मदद की दरकार होगी। अफगानिस्तान इस समय जिस ट्रैप में फंसा हुआ है, उसका फायदा पाकिस्तान उठाना चाहेगा। इस समय पाकिस्तान वैसे भी दक्षिण एशिया का एक उभरता हुआ खिलाड़ी बनाया जा रहा है (चीन द्वारा), जिसका डिवीडेंड वह अवश्य ही प्राप्त करना चाहेगा। इसे देखते हुए भारत को अपनी दक्षिण एशियाई नीति का ट्रैक बदलने की जरूरत होगी। भारत को अफगानिस्तान के साथ साझेदारी करने से फिलहाल आर्थिक लाभ हासिल नहीं होंगे लेकिन सामरिक संतुलन के लिहाज से अफगानिस्तान भारत के लिए लाभदायक होगा। यदि भारत अफगानिस्तान को सैनिक मदद देगा तो पाकिस्तान पोषित तत्वों को अफगानिस्तान में अनिश्चितता और अस्थिरता फैलाना मुश्किल हो जाएगा। इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पाकिस्तान पूरब और पश्चिम, दोनों ही तरफ से भारतीय घेरे में आ जाएगा। चूंकि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इस्लामाबाद दौरे के बाद पाकिस्तान के हौसले और अधिक बढ़े हैं, इसलिए अब भारत को प्रतितुलक नीति की विशेष आवश्यकता है। उधर चीन की अफगानिस्तान में भी अच्छी पैठ है और यह एक बड़े दानदाता के साथ-साथ अफगानिस्तान में निवेश करने वाला बड़ा खिलाड़ी भी है। इसलिए चीन का दबाव अफगान सरकार पर अधिक होगा और वह कभी नहीं चाहेगा कि भारत अफगानिस्तान में कोई सक्रिय भूमिका निभाए। अब भारत को विकास और बुनियादी ढांचा निर्माण में सहयोग से आगे बढ़ते हुए अफगानी सुरक्षा संरचना में निर्णायक भूमिका में आना होगा, अर्थात अफगानिस्तान को न केवल ‘‘गैर घातक’ हथियार देने होंगे बल्कि अपने प्रशिक्षकों को भी भेजकर अफगान सुरक्षा बलों को प्रशिक्षित करना होगा। भारत को सामरिक संतुलन बनाने या चीन की काश्गर-ग्वादर रणनीति को काउंटर करने के लिए जरांज-डेलाराम तक सड़क बनाने के बाद डेलाराम को रेल लिंक द्वारा ईरान के चाहबहार बंदरगाह से जोड़ना होगा। यद्यपि यह कार्य बेहद चुनौतीपूर्ण है, लेकिन सामरिक जरूरतें इसकी मांग कर रही हैं। (RS)

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