बीते कुछ दिनों से रूपये के मूल्य में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने रूपये में आ रही गिरावट को रोकने का प्रयास किया
है, लेकिन अभी तक अपेक्षित परिणाम नहीं दिख रहे हैं, क्योंकि रिजर्व बैंक
के पास भी कोई जादू की छड़ी नहीं है कि वह तुरंत रूपये की गिरावट पर लगाम
लगा सके। इस वजह से गिरावट का दौर फिलवक्त जारी है। रूपये में गिरावट से
आगामी दिनों में जरूरत की बहुत सारी वस्तुएं महंगी हो सकती हैं। इसका सबसे
नकारात्मक असर खाद्य पदार्थो पर पड़ सकता है। इधर, ओलावृष्टि से रबी की फसल
के बर्बाद होने से महंगाई में और भी तेजी आ सकती है। भारत अब भी अपनी
जरूरत का करीब 80 प्रतिशत पेट्रोलियम पदार्थ आयात करता है, इसलिए
पेट्रोलियम पदार्थ का आयात महंगा हो सकता है और घरेलू पेट्रोलियम कंपनियां
पेट्रोल और डीजल की कीमत में बढ़ोतरी कर सकती हैं। ऊससे माल ढुलाई महंगी हो
सकती है। एक अनुमान के मुताबिक सबसे अधिक माल ढुलाई खाद्य पदार्थो की होती
है। इससे विदेश में शिक्षा प्राप्त करना भी महंगा हो सकता है। स्पष्ट है
कि कच्चे तेल और पेट्रोलियम पदार्थ के महंगे होने से महंगाई और
मुद्रास्फीति में उछाल आ सकता है। हालत के मद्देनजर रिजर्व बैंक जून में
संभावित नीतिगत दरों में कटौती के विचार को त्याग सकता है, क्योंकि बाजार
में पैसों की अतिरिक्त उपलब्धता से महंगाई, मुद्रास्फीति और बिकवाली को बल
मिल सकता है। दूसरी तरफ ऐसा होने से औद्योगिक विकास दर प्रभावित होगी,
जिससे समग्रता में देश के आर्थिक विकास की राह में रुकावट आएगी। हालांकि
रूपये में गिरावट से निर्यातकों मसलन, आईटी, फार्मा, टेक्सटाइल, डायमंड,
जेम्स एवं ज्वेलरी आदि क्षेत्रों को थोड़ा फायदा जरूर मिल सकता है, लेकिन
लंबी अवधि में इससे आर्थिक विकास को मजबूती नहीं मिल सकती है। विश्लेषकों
के मुताबिक रुपया, डॉलर के मुकाबले अभी और फिसल सकता है, क्योंकि दुनिया के
सभी देशों में बिकवाली का दौर जारी है। साथ ही, कराधान की चिंता,
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में तेजी, निर्यात में लगातार
कमी, रपए का अधिक मूल्यांकन, आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी, सुधारवादी
विधेयकों के पारित होने में देरी, बड़ी परियोजनाओं के शुरू होने में विलंब
तथा कंपनियों के निराशाजनक तिमाही नतीजों की वजह से विदेशी संस्थागत
निवेशकों का भरोसा हिल गया है और वे बिकवाली का रास्ता अपना रहे हैं।
उन्हें लग रहा है कि बिकवाली करके ही वे अपना हित सुनिश्चित कर सकते हैं।
इसलिए वे डेट और इक्विटी, दोनों में बिकवाली करके अपना पैसा चीन, हांगकांग,
कोरिया, ताइवान, जापान आदि देशों के बाजार में लगा रहे हैं। इधर, विदेशी
संस्थागत निवेशकों द्वारा डेट की बिकवाली से बॉन्ड की प्राप्ति में इजाफा
हुआ है। इस वजह से इक्विटी बाजार में भी दबाव का माहौल है। साथ ही स्टॉक
एक्सचेंज में गिरावट का रु ख बना हुआ है। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में
सेंसेक्स छह माह के निचले स्तर पर पहुंच गया है और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज
में भी गिरावट दर्ज की गई है। अर्थव्यवस्था में अच्छे दिन तभी आ सकते हैं
जब महंगाई दर नियंतण्रमें रहे, क्योंकि महंगाई की वजह से अर्थव्यवस्था को
मजबूती प्रदान करने वाले बहुत सारे मानक मसलन, औद्योगिक विकास, प्रति
व्यक्ति आय, उत्पादों की बिक्री, रोजगार सृजन आदि कमजोर पड़ सकते हैं।
लेकिन महँगाई एक बार फिर से उफान पर आती दिख रही है। रेटिंग एजेंसी मूडीज
का भी कहना है कि ऊंची मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के विकास में बाधक है।
मूडीज इंवेस्टर सर्विस की रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि
मुद्रास्फीतिक दबाव के कारण पूंजी की लागत ज्यादा होती है, जिससे घरेलू
खरीद क्षमता एवं बचत दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।महंगाई को विकास
दर से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। दोनों में चोली-दामन का रिश्ता है।
महंगाई कम होने से लोग बचत करेंगे और बैंक को सस्ती दर पर पूंजी मिलेगी।
इससे कर्ज सस्ता हो जाएगा। रिजर्व बैंक का भी मामले में रु ख सकारात्मक
रहेगा और वह नीतिगत दरों में कटौती करके कारोबारियों की शिकायत को दूर कर
सकेगा। लिहाजा, महंगाई दर के नीचे रहने से विकास को बल मिलना निश्चित है।
जरूरत है लंबित परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने की भी, क्योंकि इससे विकास
को रफ्तार नहीं मिल पा रही है। एक अनुमान के मुताबिक अभी लाखों करोड़ रपए
की परियोजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। इसके अंतर्गत बिजली, सड़क, सिंचाई,
विनिर्माण आदि से जुड़ी परियोजनाएं शामिल हैं।कहा जा सकता है कि भारत में
कारोबारियों के लिए फिलवक्त उनकी अपेक्षा के अनुकूल माहौल नहीं है।
विनिर्माण और आधारभूत संरचना के क्षेत्र में सुचारु तरीके से काम नहीं हो
रहा है। आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ गई है। हालांकि सरकार चाहती है कि इन
क्षेत्रों में आने वाली अड़चनों को दूर किया जाए। पूंजी की कमी के कारण भी
बहुत सारी परियोजनाएं अटकी हुई हैं। भारत में भरपूर निवेश की जरूरत है।
लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब सरकार केंद्र एवं राज्य स्तर पर विविध
परियोजनाओं की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए एकल मंजूरी की
राह अपनाए। परंतु इस दिशा में लालफीताशाही एवं भ्रष्टाचार को खत्म नहीं
किया जा सका है। सरकार द्वारा कारपोरेट को तमाम सब्सिडी व सहूलियत देने के
बावजूद निर्यात का प्रतिशत बहुत ही कम है। बता दें कि आयात और निर्यात के
बीच के अंतर को चालू खाते के घाटे या फायदे के रूप में रेखांकित किया जाता
है। निर्यात के मुकाबले आयात अधिक होने पर उसे चालू खाते का घाटा कहते हैं
और निर्यात अधिक होने पर उसे चालू खाते का मुनाफा कहते हैं। हमारे देश में
अब भी खाद्य पदार्थ, आधारभूत संरचना आदि के लिए आवश्यक चीजों का आयात दूसरे
देशों से किया जाता है। आमतौर पर रपए की कीमत में कमी आने से निर्यात
आधारित उद्योगों को फायदा होता है, लेकिन भारत में बहुत सारे निर्यात
आधारित उद्योगों के लिए कच्चे माल का आयात किया जाता है। चूंकि इस तरह के
निर्यात आधारित उद्योग भारत में अधिक हैं, इसलिए ऐसे उद्योगों के मुश्किल
में आने से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। कुल मिलाकर कहा
जा सकता है कि नियंतण्र रु ख, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत
में तेजी, रबी की फसल के बर्बाद होने, निर्यात में कमी आने, सरकारी बांड,
शेयर एवं डॉलर की बिकवाली आदि से रपए की हालत खराब हो रही है। लेकिन चालू
खाते के घाटे में कटौती, मेक इन इंडिया की संकल्पना को अमलीजामा पहनाने,
निवेश में बढ़ोतरी आदि के द्वारा रपए को मजबूत किया जा सकता है। इस दिशा
में डॉलर की जमाखोरी पर लगाम लगाने की भी जरूरत है। रपए में गिरावट से
विदेशी मुद्रा भंडार में कमी, महंगाई में इजाफा, संस्थागत पूंजी निवेश में
कमी आदि की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
इसलिए सरकार को तत्काल इस पर लगाम लगाने के लिए कारगर कदम उठाना चाहिए।
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