पंचायती राज दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आह्वान कि
पंचायतों में ‘‘सरपंच पति संस्कृति’ समाप्त होनी चाहिए ऐसी कड़ुवी सच्चाई
है जो रेखांकित करती है कि भले पंचायतों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व का
संवैधानिक अधिकार हासिल है लेकिन ज्यादातर मामलों में प्रतिनिधित्व की लगाम
उनके पतियों या अभिभावकों के हाथ में ही होती है। गांव, ब्लॉक तहसील से
लेकर जिला स्तर तक निर्वाचित महिला प्रतिनिधि के बजाए उनके पति या अभिभावक
ही दायित्व पूरा करते देखे जाते हैं। निर्वाचित महिला सरपंच रबर स्टैंप भर
रह जाती है। यह प्रवृत्ति न सिर्फ पंचायतों में महिलाओं की भूमिका सीमित
करती है बल्कि पंचायती राज के उद्देश्यों पर भी तीखा वार करती है। कहना
मुश्किल है कि प्रधानमंत्री का आह्वान सरपंचपतियों को सोचने के लिए विवश
करेगा और वे निर्वाचित सरपंच के संवैधानिक व लोकतांत्रिक अधिकारों को
हड़पने के बजाए उन्हें स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने देंगे। गौरतलब है कि
केंद्र सरकार ने पंचायतों में महिला सीटों के आरक्षण का प्रावधान लगातार दो
बार किए जाने का प्रस्ताव किया है। यदि यह प्रस्ताव कानूनी जामा पहन ले तो
आगामी चुनाव में भी उस गांव की सरपंच महिला ही होगी जहां वर्तमान में
सरपंच महिला है। दो राय नहीं कि इस कानून से पंचायतों में महिलाओं की
भूमिका और मजबूत होगी और उनका अनुभव बढ़ेगा लेकिन यहां सवाल पंचायतों में
महिलाओं के अधिकाधिक प्रतिनिधित्व तक ही सीमित नहीं है। सवाल सरपंच महिलाओं
के संविधान प्रदत्त अधिकार और उपयोग का है। यदि सरपंच महिला का पति या
अभिभावक ही उसके अधिकारों का उपयोग करेगा तो पंचायतों में महिलाओं की
भागीदारी का क्या मतलब होगा? समझना होगा कि पंचायतों में महिलाओं के लिए
आरक्षण की व्यवस्था उनकी सशक्त भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ही नहीं की
गयी। उद्देश्य लैंगिक समानता स्थापित करना भी था। इसीलिए 73 वें संविधान
संशोधन के जरिए पंचायतों की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की
गयीं। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस उद्देश्य से यह क्रांतिकारी कदम उठाया
गया, वह अपवादों को छोड़ लक्ष्य से कोसों दूर है। निश्चित ही सभी राज्यों
में पंचायत स्तर पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है लेकिन जमीनी स्तर पर
वास्तविक बागडोर चुनी गई सरपंच महिलाओं के पतियों के हाथ ही होती है।
आरक्षण के जरिए बेशक महिलाएं पंचायतों के लिए चुनी तो जा रही हैं लेकिन
अमूमन उनका कार्य पतियों द्वारा ही संपादित हो रहा है। यह एक तरह से
महिलाओं की काबिलियत पर सवालिया निशान है। समझना कठिन है कि महिला सरपंचों
को उनकी भूमिका का निर्वहन क्यों नहीं करने दिया जाता है जबकि जीवन के हर
क्षेत्र में महिलाएं अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही हैं। पति या अभिभावक
उनके अधिकारों का दुरुपयोग क्यों करते हैं? गौर करें तो चुनावी प्रक्रिया
में नामांकन से लेकर चुनाव जीतने की समस्त व्यूह रचना और रणनीति ज्यादातर
मामलों में महिला उम्मीदवारों के पति या संरक्षकों द्वारा ही तैयार की जाती
है। यहां तक कि चुनाव जीतने-हारने का श्रेय-नाकामी भी वे स्वयं उठाते हैं।
ऐसे में कहा जाए कि पंचायतों में महिलाओं की भूमिका दर्शक व सियासी औजार
भर बनकर रह गयी है, गलत नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि चुनाव में सहभागिता
कर रही महिलाएं अपने नाम से कम और अमुक की पत्नी, बेटी या बहू के नाम से
ज्यादा जानी-जाती हैं। यह स्थिति महिलाओं की योग्यता और स्वतंत्र पहचान पर
बड़ा प्रश्नचिह्न है साथ ही पंचायतों में महिलाओं की वास्तविक और
निर्णयात्मक भागीदारी की कलई खोलने वाला भी। आश्र्चय कि 21वीं सदी में जब
चारों ओर महिला सशक्तिकरण की गूंज है वहीं उनकी सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी
पुरु ष वर्ग की सहमति और स्वीकारोक्ति पर निर्भर होना विडम्बनापूर्ण है।यह
कबूलना होगा कि महिलाएं आज भी पुरानी मान्यताओं से जकड़ी हैं लेकिन इन्हें
तोड़ने के लिए अंतत: महिलाओं को ही आगे आना होगा। यह तभी संभव है जब वे
शिक्षित और जागरूक होंगी। उन्हें अपने समुचित विकास के लिए स्वयं प्रयास
करना होगा। देश के कई राज्यों में महिला साक्षरता दर 50 फीसद से कम है।
इनमें वे राज्य भी शामिल हैं जहां पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण
हासिल है। बिहार, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में
पंचायतों के लिए 50 फीसद सीटें आरक्षित हैं। राजस्थान और केरल में भी पचास
फीसद आरक्षण की कवायद चल रही है। निश्चित ही यह सराहनीय कदम है पर चिंतनीय
यह है कि जब किसी राज्य में 50 फीसद से अधिक महिलाएं निरक्षर हैं तो वहां
पंचायतों में 50 फीसद आरक्षण से क्या हासिल होगा? अगर निरक्षर महिलाएं
सरपंच चुन ली जाती हैं तो वे अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों को कैसे समझेंगी
और किस तरह अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करेंगी? क्या यह स्वाभाविक
नहीं कि इन परिस्थितियों में उनके पति या अभिभावक उनके पद या अधिकारों का
दुरुपयोग करेंगे। दुर्भाग्य से यही हो रहा है। हालात तभी बदलेंगे जब
महिलाएं साक्षर होंगी और अपने संवैधानिक अधिकारों को समझेंगी। आज पंचायतों
की भूमिका पहले जैसी नहीं रही। उनके कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ है और
वित्तीय जवाबदेही बढ़ी है। सरपंच द्वारा कराए जाने वाले विकास कायरें पर
गांव के लोगों की कड़ी नजर होती है और वे सूचना अधिकार कानून के तहत
पाई-पाई का हिसाब मांगते हैं। ऐसे में सरपंच महिला पढ़ी-लिखी न हो तो अपने
उत्तरदायित्वों का ठीक से निर्वहन नहीं कर पाएगी जिसका फायदा दूसरे
उठाएंगे। पंचायतों में अधिसंख्य ऐसी महिलाएं चुनकर आ रही हैं जो कम
पढ़ी-लिखी या निरक्षर हैं। वे सिर्फ कागजों को निहार भर सकती हैं। ऐसे में
निश्चित ही उनकी भूमिका सीमित होगी और पतियों या अभिभावकों की भूमिका
बढ़ेगी। समझना होगा कि आरक्षण के जरिए भले ही सीटों की संख्या बढ़ाकर
पंचायतों में महिलाओं की तादात बढ़ा दी जाए लेकिन जब तक निर्वाचित महिला
सरपंचों को स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं करने दिया जाएगा तब तक पंचायतों
में महिलाओं की भागीदारी मजबूत नहीं होगी और न ही पंचायती राज के
उद्देश्यों को पूरा किया जा सकेगा। बेहतर होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें
महिला साक्षरता की दर शत-प्रतिशत करने के लिए ठोस कदम उठाएं। आंकड़ों के
घोड़े दौड़ाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। पढ़ी-लिखी महिला सरपंच ही अपने
अधिकारों व कर्त्तव्यों का सही निर्वहन करेगी और ठोस निर्णय लेने में भी
सक्षम होंगी।(RS)
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