21वीं सदी अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण मानव जीवन के उन उच्चतम
शिखरों तक पहुंची है, जहां मनुष्य की कल्पना को पहुंचने में भी लंबा समय लग
सकता है। सामाजिक जीवन के विविध आयामों में एक क्रांतिकारी परिवर्तन देने
का श्रेय इस सदी को दिया जा सकता है। विज्ञान एवं तकनीक से लेकर सभी
सामाजिक विज्ञानों में इस सदी ने बौद्धिक रूप से अपनी उपलब्धियों को दर्ज
किया है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। संक्षेप में कहा जाए तो
मानव जीवन का संपूर्ण विकास ही साहित्य का लक्ष्य होता है। अपने युग के
परिप्रेक्ष्य में हर युग के लोकहितकारी साहित्य ने आम आदमी के जीवन को
बेहतर रूप देने का प्रयास किया है। 21वीं सदी में जहां आम आदमी के सामने
अनेक प्रकार की विसंगतियां हैं, वहीं समस्या के रूप में अनेक सवाल भी सिर
उठा रहे हैं। भारत में आजादी के पूर्व साहित्य की मुख्य धारा यही थी कि
भारत को विदेशी शासन से कैसे मुक्त किया जाए? यद्यपि सामाजिक समस्याएं भी
थीं, क्योंकि समस्याएं एक दिन में पैदा नहीं होतीं, किन्तु हर युग की कुछ
विशेष समस्याएं अवश्य होती हैं। साहित्य में शोषक वर्गो को चिह्नित करते
हुए पहले जहां किसान-मजदूरों की बात की जाती थी, वहीं, वर्तमान समय में
दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श का मुद्दा विशेष रूप से चिह्नित किया जा
रहा है। स्त्री विमर्श का मुद्दा इसलिए भी साहित्य का अहम प्रश्न बन जाता
है, क्योंकि दुनिया की आधी आबादी आदिमकाल से लेकर आज तक पुरु ष वर्चस्व के
अंतर्गत शोषण का शिकार रही है। समाज के सभी वर्गो की स्त्रियां विशेषत:
भारतीय परिवेश में पुरु ष की उस अहमवादी मानसिकता का शिकार रही हैं, जिसके
अंतर्गत स्त्रियों को पुरु षों के समान कभी भी सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं
हुए। माना कि स्त्री विमर्श का मुद्दा आज के दौर में साहित्य की मुख्य
धारा में दर्ज किया जाता है, लेकिन आज भी इस कृषि प्रधान देश में स्त्री
आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा पुरु ष वर्ग की अधीनता के अन्तर्गत
यंतण्रापूर्ण जीवन का निर्वाह कर रहा है। वैसे, इस सदी में पहली बार स्त्री
सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में पुरु ष के साथ कदमताल करती हुई अपना
हस्तक्षेप दर्ज कर रही है। 21वीं सदी के साहित्य का एक बड़ा प्रतिशत महिला
रचनाकारों के सृजन का परिणाम है। यह महिला रचनाकारों के जुझारू एवं
प्रतिरोधी लेखन का ही प्रतिफलन है कि स्त्री विमर्श आज साहित्य के केंद्र
में आ गया है। स्त्रीवादी विमर्श न तो मनोरंजन है, न अपवाद। यह हमारे समय,
देशकाल व पूरे नियंतण्र परिदृश्य से जुड़ा है। सदियों से पुरु षों की
अधीनता में जीवन यापन करती स्त्री वर्तमान समय में जहां सामाजिक जीवन के हर
क्षेत्र में पुरु ष वर्चस्व को चुनौती दे रही है, वहीं वह अपने आपको
भोग्या के रूप में भी नहीं स्वीकारती एवं देह के स्तर पर स्त्री-पुरु ष देह
के भेद को खारिज करती है। जैसे, मैत्रेयी पुष्पा के प्रसिद्ध उपन्यास
‘‘चाक’ के सभी स्त्री-पात्र पुरु षों को चुनौती ही नहीं देते उन पर भारी
पड़ते हैं। बुद्धि व देह ताप दोनों में अपनी पहल के द्वारा वे नारी को अबला
नहीं सबला सिद्ध करते हैं। मैत्रेयी पुष्पा के ‘‘विजन’ उपन्यास की आभा दी
विवाह-बंधन को परंपरावादी मानते हुए नेहा को समझाती हैं ‘‘अपनी उस मां
जिसने अभाव झेलकर, मुश्किलें सहकर कई विरोधों को पार करके पढ़ाया-लिखाया,
उस मां को तीन नाम रसोईदारिन, धोबिन, मोचिन देकर अपने राजमहल को लौट जाओ।
वह भी तुम जैसी वेध्या और अहसान-फरामोश लड़की से मुक्ति पाए। शेम टू यू,
शेमफुल टू अस।’ वर्तमान समय में स्त्री लेखिकाएं स्वयं अपने बारे में भी
मुक्त होकर लिख रही हैं, और कट्टरवादी लोगों के आक्रोश को झेलती हुई उनके
हर प्रश्न का सटीक उत्तर भी दे रही हैं। ‘‘अन्या से अनन्या’, ‘‘एक कहानी यह
भी’, ‘‘कस्तूरी कुंडल बसे’, ‘‘गुडिया भीतर गुडिया’, ‘‘रसीदी टिकट’, ‘‘लगता
नहीं दिल’ जैसी आत्मकथाएं स्त्रियों की जीवनगाथा और स्त्रित्व के संघर्ष
का सृजन हैं। साथ ही, अपने जीवन-संघर्ष की चुनौतियों को खुले रूप में
प्रस्तुत करती हैं।इन आत्मकथाओं के माध्यम से लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श के
हर आयाम को स्पर्श करते हुए स्त्री अस्मिता को तर्कपूर्ण ढंग से चित्रित
किया है। इस सदी में स्त्री अपनी मुक्ति और स्वायत्तता के लिए तन कर पुरु ष
समाज में खड़ी हो, इसकी प्रतिक्रिया में समाज के परंपरागत रूढ़िवादी पुरु ष
पहरेदार इन लेखिकाओं के चरित्र पर भी कीचड़ उछाल रहे हैं। पुरु ष आज भी
स्त्री को अपने हितों के अनुरूप ढालना चाहता है, किन्तु आधुनिक स्त्री
बराबर का हक चाहती है। नासिरा शर्मा कहती हैं-‘‘न जाने पुरु षों को पत्नी
के रूप में कैसी स्त्री चाहिए? यदि वह अनपढ़ अनगढ़ है, तो फूहड़ कहलाती है,
और पढ़ी-लिखी मिल जाए तो उसकी चुस्ती से आतंकित हो जाते हैं। ठीक ऐसी ही
स्थिति भारतीय स्त्रियों की है।’इधर, हाल में स्त्री प्रश्नों में जटिलता
का एक कारक भूमंडलीकरण भी है। भूमंडलीकरण संस्कृति एक ओर स्त्री स्वाधीनता
का दंभ भरती है, तो दूसरी ओर उसकी देह का उपयोग विज्ञापन के रूप में अपने
व्यापारिक हित के लिए करती है। उपभोक्तावाद, वैश्वीकरण, सनातन मूल्य एवं
उत्तर आधुनिकता के घालमेल के कारण स्त्री मुक्ति की जटिलताएं बढ़ी हैं।
इसके बावजूद स्त्री वह सब लिख पा रही है, जो दो दशक पूर्व वह सोच भी नहीं
सकती थी। उपभोक्ता संस्कृति के अर्थवादी रूझान के कारण स्त्री स्वाभाविक
रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए विवश है। उसका घर की चहारदीवारी से बाहर आना
अनिवार्य है। इसीलिए स्त्री हर क्षेत्र में स्वतंत्र होकर पुरु ष के कामों
में भागीदारी करना चाहती है। इसके कारण वह घरेलू हिंसा बलात्कार, यौन
उत्पीड़न आदि त्रासद स्थितियों से जूझ भी रही है। इन स्थितियों को दृष्टि
में रखते हुए मनीषा ने स्त्री की त्रासदी को सही शब्द प्रदान किए हैं-
‘‘औरतों को धर्म, वर्ग, जाति, क्षेत्र में बांटने वाले नहीं जानते कि तीन
अरब औरतों की पीड़ा, दुख, क्षोभ, उपेक्षाएं, त्रासदियां सब एक हैं। बस औसत
कम या ज्यादा हो सकता है।’यूरोप की स्त्री तो अपने अधिकारों के लिए
सत्रहवीं शताब्दी से ही संघर्षरत हैं, और एशिया महाद्वीप की स्त्रियों के
बरक्स अधिक स्वतंत्र भी हैं, किन्तु भारतीय नारी का सही अर्थो में जागरण तो
19वीं सदी में प्रारंभ हुआ है। वर्ण-व्यवस्था एवं पितृसत्ता के कारण उसकी
दास्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं। वर्तमान में नारीवादी लेखिकाएं एक सदी की
संपूर्ण त्रासद जटिलताओं को अपने साहित्य में उठाती हुई वर्गीय अधिकारों का
लेखकीय संघर्ष चला रही हैं, तथा आंदोलनात्मक स्तर पर भी प्रयासरत हैं।
जैसे चित्रा मुद्गल का ‘‘आवां’ एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है। इसकी कथावस्तु
मजदूर नेता देवीशंकर की बेटी नमिता के मोहभंग, पलायन एवं वापसी की कहानी
है। इस उपन्यास में नारी शोषण के कई रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें निम्न
एवं उच्च वर्ग की यथास्थिति को उजागर किया गया है। उच्चवर्गीय पात्र निम्न
वर्ग के पात्रों का शोषण करते हैं। संपूर्ण विश्व तथा विशेष रूप से भारत
में स्त्री शोषण का एक बड़ा कारक वर्गीय भी रहा है। भारत का उच्चवर्गीय
पुरु ष कई सदियों पूर्व से आज तक निम्न वर्ग की नारी का हर तरह से शोषण
करता रहा है। आधुनिक समय की महिला कथाकारों ने इसे स्वानुभूति के आधार पर
पूरी स्वाभाविकता के साथ यथार्थ वर्णन किया है। प्रभा खेतान अपने प्रसिद्ध
उपन्यास छिन्नमस्ता में लिखती हैं-‘‘औरत कहां नहीं रोती, सड़क पर झाडू
लगाते हुए, खेतों में काम करते हुए, एयरपोर्ट पर बाथरूम साफ करते हुए या
फिर भोग, ऐश्वर्य के बावजूद मेरी सासू जी की तरह पलंग पर रात-रात भर अकेले
करवटें बदलते हुए। हाड़-मांस की बनी हुई ये औरतें..अपने-अपने तरीकों से
जिंदगी जीने की कोशिश में छटपटाती हैं। हजारों सालों से इनके आंसू बहते आ
रहे हैं। वर्तमान समय में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कहलाने वाली स्त्रियों
के सामने भी त्रासद समस्याएं हैं। वे घर-बाहर दोहरे दायित्व का निर्वाह
करने के बाद भी पुरु षवर्गीय तानाशाह का शिकार होती रहती हैं, जिसकी
प्रतिक्रिया में कई बार विद्रोह भी कर बैठती हैं। ‘‘आपके भीतर वही
सामंतवादी पति जिंदा है। आप चाहते हैं पत्नी नौकरी करे। साथ ही घर की
देखभाल भी करे..चूल्हा-चौका भी करे। फिर पति के पांव दबाए। इसके बाद भी पति
को शिकायत है कि वह न तो घर को देखती है, न पति को। अच्छा इतना ही नहीं
पति को सारी छूटें हैं।’ वर्तमान समय में पुरु षों की भांति स्त्रियां भी
विदेशी नौकरी में जा रही हैं। भारतीय महिला लेखिकाओं ने ऐसी स्त्रियों की
समस्याओं को आधार बनाकर अपने उपन्यासों की रचना की है। विशेष रूप से ऊषा
प्रियंवदा के तीन उपन्यासों ‘‘शेष यात्रा (1904)’, ‘‘अंतरवंशी (2004)’,
‘‘भया कबीर उदास (2007)’ में प्रवासी भारतीय स्त्री के जीवन के विभिन्न
पहलुओं को समग्रता के साथ उजागर किया गया है। इसी तरह अनामिका ने पाश्चात्य
और पौवत्यि दोनों संस्कृतियों का गहन अध्ययन करते हुए नारी जीवन की जटिल
त्रासदी को अपने उपन्यास ‘‘तिनका तिनके पास’ में उभारा है, तथा अलका सरावगी
‘‘कलि कथा वाया बाईपास’ में नारी के त्रासद मनोविज्ञान को प्रेषित किया
है। आधुनिक समय की स्त्री समस्याओं को अपने लेखन का माध्यम बनाने वाली
प्रमुख लेखिकाओं में कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मन्नू भंडारी, अमृता
प्रीतम, प्रभा खेतान, चित्रा मुद्गल, कुसुम अंसल, मृणाल पाण्डे, प्रभा
शास्त्री, सुधा अरोड़ा, मेहरुन्ननिशा परवेज, ऊषा महाजन, लवलीन, मधु
कांकरिया, गीतांजलि श्री आदि के नाम लिए जा सकते हैं। अंत में पूरे भरोसे
के साथ आज यह कहने की स्थिति में हैं कि वर्तमान सदी की स्त्री लेखिकाओं ने
अपने लेखन में आधुनिक स्त्री जीवन के व्यापक आयामों को स्पर्श करते हुए
स्त्री संबंधी अनेक पुराने व नये प्रश्नों को उठाया ही नहीं है, बल्कि उनके
विकल्पों को भी चिह्नित किया है। कस्बों, गांवों, शहरों से लेकर दूरदराज
के देशों में काम करने वाली स्त्रियों के त्रासद अनुभवों को शब्द प्रदान
किए हैं। टीएस इलियट के अनुसार, ‘‘इतिहास जहां प्राचीनता में रमता है, वहीं
वह भविष्य में दृष्टि भी रखता है।’ इस सदी की लेखिकाओं ने प्राचीन ग्रंथों
के नारी पात्रों का नये चिंतन के अनुरूप उनका मूल्यांकन भी किया है, एवं
आधुनिक स्त्री विरोधी रूढ़ परंपराओं का पोस्टमार्टम भी किया है। इस सदी की
स्त्री लेखिका वर्तमान संस्कृति का वह इतिहास गढ़ने जा रही है, जहां आधी
आबादी की उपेक्षा संभव नहीं होगी।
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