Monday 11 May 2015

न्याय का बड़ा सवाल ( डॉ. निरंजन कुमार)

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी के गठन का मुद्दा इन दिनों विवादों में है। अनेक जनहित याचिकाओं के द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सांविधानिकता को चुनौती दी गई है। चुनौती का आधार न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हनन और संविधान की आधारभूत संरचना से छेड़छाड़ है। आरोप है कि एनजेएसी के स्वरूप और संघटन से न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका का अनावश्यक हस्तक्षेप होगा। यह दिलचस्प है कि सभी राजनीतिक पार्टियां चाहे वे राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय, उनकी सरकारों ने एनजेएसी पर अपनी मुहर लगाई है। उनका आरोप है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की पूर्व व्यवस्था में कई खामियां हैं।
संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के अनुसार राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के बाद, जिनसे वह परामर्श करना उचित समङो, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा। वैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति आरंभ से ही विवाद का विषय रहा है। एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ 1993 और फिर जजेज अपाइंटमेंट रेफरेंस केस 1998 के फैसलों द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने यह स्थापित किया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश एक पांच सदस्यीय कोलेजियम के द्वारा की जाएगी जिसमें प्रधान न्यायाधीश के अतिरिक्त चार वरिष्ठतम न्यायाधीश होंगे। सरकार किसी नाम पर अधिक से अधिक एतराज भर कर सकती है, लेकिन कोलेजियम द्वारा उसे दोबारा भेजे जाने पर राष्ट्रपति अथवा सरकार उसकी नियुक्ति करने के लिए बाध्य है। इस तरह न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति में न्यायपालिका लगभग स्वतंत्र है, बल्कि उसका अपना एकाधिकार है। हालांकि यह व्यवस्था विवादों से परे नहीं रही है। एक तो यही कि कोलेजियम व्यवस्था एक अपारदर्शी व्यवस्था है। न्यायाधीशों जैसे पी. शाह अथवा रूमा पॉल आदि ने इस खामी की ओर इशारा करते हुए कहा है कि इस प्रणाली में यह प्रकट और स्पष्ट नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कसौटी क्या हो? दूसरे, कई बार संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्तियों की भी सिफारिश की गई। तीसरे, न्यायाधीशों की नियुक्ति में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व पर ध्यान नहीं दिया गया। यहां योग्यता को परे रखकर किसी आरक्षण या कोटा की वकालत नहीं की जा रही है, किंतु यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन समुदायों के अनेक सर्वथा योग्य व्यक्ति भी इन नियुक्तियों से क्यों वंचित रहे। हालांकि उपरोक्त सीमाओं के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका-विधायिका द्वारा नागरिक अधिकारों के हनन को रोकते हुए जनहित में अनेक ऐतिहासिक फैसले लिए हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि कोलेजियम प्रणाली की कमियों को सुधारा न जाए।
इसी क्रम में सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में संशोधन किया कि राष्ट्रपति राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की अनुशंसा पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। साथ ही एक नया अनुच्छेद 124 (ए) लाया गया जिसके अनुसार न्यायिक नियुक्ति आयोग में प्रधान न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम दो न्यायाधीश और केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री के अतिरिक्त दो अति प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल होंगे। इन दो अति प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन प्रधानमंत्री, संसद में विपक्षी दल का नेता और प्रधान न्यायाधीश की एक समिति करेगी। एक अच्छी बात यह है कि दो अति प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक व्यक्ति महिलाओं, पिछड़ों, दलितों आदिवासियों अथवा अल्पसंख्यक समुदायों में से होगा। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के सदस्य एनजेएसी के गठन में हो रही देरी से अत्यंत उद्वेलित हैं। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के पदेन अध्यक्ष होंगे, ने तो सरकार को साफ कह दिया है कि वह इस पैनल में तब तक नहीं शमिल होंगे जब तक कि इस नई व्यवस्था की सांविधानिक स्थिति स्पष्ट नहीं हो जाती। सुप्रीम कोर्ट के रुख से यह प्रतीत होता है कि एनजेएसी का गठन तब तक नहीं हो पाएगा जब तक कि कुछ प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट न हो जाएं। पहला प्रश्न यही है कि क्या एनजेएसी का संघटन और न्यायाधीशों की नियुक्ति की नई प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हनन करती है या नहीं?
हमारी सांविधानिक व्यवस्था संघीय प्रणाली पर आधारित है जिसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता है स्वाधीन व निष्पक्ष न्यायपालिका की अनिवार्यता। फिर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों में यह भी निर्दिष्ट किया है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना का एक अंग है। केशवानंद भारती केस और बाद में भी अपने अनेक निर्णयों में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की इस आधारभूत संरचना का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहा कि भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अब सुप्रीम कोर्ट को यह निर्णय करना है कि क्या नई व्यवस्था अर्थात एनजेएसी के प्रस्तावित गठन से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होती है या नहीं? यानी क्या एनजेएसी के पैनल में भारत के कानून मंत्री की उपस्थिति से न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया प्रभावित नहीं होगी? इस संदर्भ में प्रमुख विधिवेत्ता और वर्तमान में भारत के वित्तमंत्री का यह वक्तव्य प्रासंगिक है, जो 2012 में उन्होंने दिया था कि जज दो तरह के होते हैं-एक जो कानून जानते हैं और दूसरे, जो कानून मंत्री को जानते हैं।
न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले पैनल में कानून मंत्री अर्थात कार्यपालिका की उपस्थिति सचमुच एक गंभीर प्रश्न है और इतिहास इसका गवाह है कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका ने सचमुच मनमानी की थी, जिसने न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खत्म किया, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता को भी चोट पहुंचाई थी। आपातकाल को चुनौती देने वाले प्रसिद्ध एडीएम जबलपुर केस में सरकार के सामने घुटने टेक देने वाली वह प्रतिबद्ध न्यायपालिका सुप्रीम कोर्ट के गौरवशाली चमकीले इतिहास में एक धब्बा है। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने एक और सवाल सरकार से पूछा है कि दो अति प्रतिष्ठित व्यक्तियों के चयन की कसौटी एवं प्रक्रिया क्या होगी? चयन समिति में राजनेताओं का बहुमत क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बाधित नहीं करेगा? यह याद रहे कि कार्यपालिका-विधायिका के अनेक क्रियाकलापों के कारण भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से अनेक लोगों का मोहभंग होने के बावजूद व्यापक जनसमुदाय की इसमें आस्था यदि बनी हुई है तो इसका सर्वाधिक श्रेय न्यायपालिका को दिया जाना चाहिए। जनता केइस भरोसे को बनाए रखने की जिम्मेदारी न्यायपालिका की भी है। कोलेजियम वाली पुरानी व्यवस्था वापस नहीं लाई जा सकती। न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी न्यायशीलता का परिचय देना ही होगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)

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