Wednesday 6 May 2015

बारिश और अर्थव्यवस्था का जटिल है रिश्ता (सुबीर गोकर्ण )

दक्षिण पश्चिम मॉनसून को लेकर जताए गए इस वर्ष के पहले पूर्वानुमान ने चिंताओं को जन्म दे दिया। पूर्वानुमान में कहा गया कि जून से सितंबर 2015 के दौरान होने वाली बारिश सामान्य की 93 फीसदी रहेगी। यह मात्रा 96 से 104 फीसदी के सामान्य स्तर से कम होगी। इस पूर्वानुमान ने बहुत अधिक ध्यान आकृष्ट नहीं किया होता लेकिन यह ऐसे समय में आया है जब बारिश से जुड़ी समस्याएं हमें लगातार घेरे हुए हैं। सबसे पहले वर्ष 2014 में दक्षिण पश्चिम मॉनसून काफी कमजोर रहा। दूसरा, रबी के मौसम में काफी अस्वाभाविक बारिश हुई। इसकी वजह से फसल को नुकसान पहुंचा और ग्रामीण समुदाय को दिक्कतों से दोचार होना पड़ा। इसके अलावा यह वर्ष अलनीनो प्रभाव वाला है तो बारिश की कमी की संभावना बनी रहना तय है। क्या हमें इन बातों से चिंतित होना चाहिए?
इस सवाल का जवाब बारिश के साथ जुड़ी वृहद आर्थिक घटनाओं की समझ पर निर्भर होगा। सबसे पहली बात, बारिश और खाद्यान्न उत्पादन एवं कीमतों में सीधा संबंध है लेकिन यह उतना सीधा भी नहीं है जितना कि कम बारिश और उच्च महंगाई का रिश्ता। मॉनसून अगर पूरे मौसम के दौरान औसत से कम रहा तभी सभी खाद्यान्नों की कीमत में बढ़ोतरी होती है। वर्ष 2014 कम बारिश वाला वर्ष था लेकिन कुल कमी इतनी ज्यादा नहीं थी कि उसका प्रभाव व्यापक तौर पर पड़ सके। गत वर्ष बारिश में काफी कमी के बावजूद खाद्यान्न कीमतों में लगातार गिरावट का दौर बना रहा।
इससे यही संकेत मिलता है कि कुछ अन्य कारक भी समांतर कार्य करते हैं। अगर शुरुआती अनुमान सही साबित हुए तो भी बारिश में कमी खाद्य महंगाई पर बहुत अधिक बुरा असर नहीं डालेगी। लेकिन जैसा कि पर्यवेक्षक लगातार कह रहे हैं असली प्रभाव बारिश का समय और उसका भौगोलिक दायरा असल निर्धारक तत्त्व होंगे। अभी इस संबंध में कोई पूर्वानुमान नहीं है। लेकिन इसका संबंध तो है ही।
देश के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में सामान्य बारिश इतनी हो जाती है कि कृषि कार्यों एवं सामान्य पैदावार को अंजाम दिया जा सके। अगर बारिश में मामूली कमी हुई तो दिक्कत की कोई बात नहीं। देश के उत्तरी इलाके में बर्फ के पिघलने और सिंचाई व्यवस्था की मदद से बारिश की कमी दूर हो जाती है। देश के मध्यवर्ती इलाके में सामान्य बारिश से उन तमाम गतिविधियों की भरपाई हो जाती है जो खराब मॉनसून से सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। कमजोर मॉनसून दालों, तिलहन, कपास और चारे के लिए जोखिम पैदा करता है। सामान्य से कम बारिश दालों की कीमतों को प्रभावित करती है और हम वर्ष 2009 में ऐसा देख चुके हैं। चारे की कमी सीधे-सीधे दूध की कीमतों पर असर डालती है।
समय की बात करें तो गत वर्ष हमने देखा कि जुलाई के मध्य अथवा अंत तक बारिश की कमी ने अनाज की बुआई को प्रभावित किया। अगर दूसरी छमाही में बारिश की स्थिति सुधर भी जाती है तो भी यह अल्प चक्र वाली फसलों के लिए ही मददगार होती है, मसलन सब्जियां। सब्जियों की कीमतों का पिछले सालों में मुद्रास्फीति पर काफी दबाव रहा है लेकिन गत कुछ महीनों में उनमें काफी कमी देखने को मिली है। संक्षेप में कहा जाए तो अभी खाद्यान्न उत्पादन के आंकड़ों में किसी भी तरह का संशोधन करना बहुत जल्दबाजी होगी। अगर 93 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया गया है तो वृहद आर्थिक अनुमान सामान्य बारिश को ध्यान में रखकर ही लगाए जाने चाहिए।
तीसरे लिंकेज का संबंध ग्रामीण मांग पर कामजोर बारिश के असर से है। ग्रामीण भारत में मेहनताने में स्थिरता और सामान्य से कम उत्पादन के चलते खपत में कमी के संकेत सामने आए हैं। बहरहाल, भौगोलिक दशा बहुत मायने रखती है। हमें यह याद रखना होगा कि देश के कम प्रभावी हिस्से वही हैं जहां कृषि वर्षा पर अधिक निर्भर है। अन्य हिस्सों में मॉनसून से निपटने के लिए पहले से इंतजाम रखे जाते हैं। खर्च के नजरिये से देखा जाए तो अगर देश के पहले से ही कम खर्च वाले इलाकों की खरीद क्षमता में और अधिक कमी होती है तो इसका अर्थ यह होगा कि खपत पूरी तरह बंद हो जाएगी। यह बात ग्रामीण क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित करेगी। हां, कुछ अन्य कारक भी हो सकते हैं लेकिन सामान्य से थोड़ा भी कमजोर मॉनसून असरदार साबित होगा।
यहां पर चौथे लिंकेज का जिक्र आता है। यह वृहद अर्थव्यवस्था तथा अन्य बातों से ताल्लुक रखता है। इसका संबंध मानवीय निराशा से है जो कमजोर बारिश से उपजती है। वह भी देश के उन हिस्सों में जहां बचाव का कोई उपाय नहीं होता। अगर मुद्रास्फीति और मांग अपेक्षाकृत कमजोर बारिश पर कम असर डालें तो भी आम परिवारों के दैनिक जीवन पर इसका नाटकीय प्रभाव देखने को मिल सकता है। इस लिंकेज का सबसे अहम नीतिगत प्रभाव है सुरक्षा ढांचे की आवश्यकता।
वर्ष 2002 में जब मॉनसून खराब हुआ था तब राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम गति पकड़ रहा था और प्रभावित इलाकों में सबसे अहम काम हो रहा था। मुझे याद है कि नवंबर 2002 में मैं राजस्थान में राष्टï्रीय राजमार्ग क्रमांक 8 से गुजर रहा था। वह सड़क चार लेन की थी और मैं वहां काम करने वाले लोगों की संख्या देखकर हैरान था। मेरा मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाले विनिर्माण के काम सामाजिक सुरक्षा का अनिवार्य हिस्सा हैं। हालांकि यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या निर्माण किया जा रहा है?
वर्ष 2009 के दौरान महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) चल रही थी। लीकेज तथा अन्य रूप में विभिन्न राज्यों से इसकी नाकामियों के किस्से भी हमारे सामने आ रहे थे। हालंाकि ये बातें योजना की कमियां दूर करने और नया डिजाइन तैयार करने के लिहाज से आवश्यक हैं, वहीं बैंक खातों में प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण तथा विभिन्न कार्यों को पहले से चल रही ग्रामीण विनिर्माण योजनाओं से जोडऩा आदि उत्तर विचार थे। किसी भी सुरक्षा खाके का सबसे बड़ा परीक्षण यही है कि इसने संकट के वक्त निराशा दूर करने में कितनी मदद की। मुझे लगता है कि एनएचडीपी और मनरेगा के बीच कहीं एक अधिक व्यवहार्य हल तलाश किया जा सकता है।
ऐसे में अर्थव्यवस्था को मॉनसून से सुरक्षित करना हमारा नीतिगत लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए कृषि की जीडीपी में हिस्सेदारी जिम्मेदार नहीं है क्योंकि वह बमुश्किल 15 फीसदी है। बल्कि ऐसा उन लोगों के लिए किया जाना चाहिए जो मॉनसून की नाकामी को लेकर कुछ ज्यादा ही प्रभावित रहते हैं। अपेक्षाकृत प्रभावी रवैये में कई बातें शामिल हो सकती हैं। उनमें से एक अहम बात है विश्वसनीय सुरक्षा ढांचा तैयार करना। इस समस्या को हल करने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि सुरक्षा ढांचे को ग्रामीण क्षेत्र के निवेश से जोड़ दिया जाए।
लेखक ब्रुकिंग्स इंडिया के शोध निदेशक और रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर हैं। लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।

No comments:

Post a Comment