रुसी मूल की एक महिला, जिसने अपने समुदाय के बाहर शादी की है, क्या
अगियारी अर्थात अगिघर, जो पारसी लोगों का पूजास्थल होता है, वहां पूजा कर
सकती है या नहीं? गोलरूख कान्टराक्टर नामक एक महिला द्वारा, जिसने आज से
लगभग 25 साल पहले माहपाल गुप्ता नाम के व्यक्ति से शादी की थी, गुजरात उच्च
न्यायालय में डाली गई जनहित याचिका के बहाने यह महत्वपूर्ण सवाल उपस्थित
हुआ है। न्यायमूर्ति मुखोपाध्याय और अकिल कुरेशी की द्विसदस्यीय पीठ ने इस
सम्बन्ध में वलसाड जिले के पारसी अंजुमन ट्रस्ट को नोटिस जारी किया है। इस
मामले की अगली सुनवाई अप्रैल माह के आखिर में होगी। अदालत ने पारसी धार्मिक
ग्रंथ, इस सम्बन्ध में क्या कहते हैं, इसे लेकर भी जानकारी प्रस्तुत करने
का आदेश दिया है।सुश्री गोलरूख ने अदालत को बताया कि विवाह के बाद भी वह
मुंबई स्थित अगियारी तथा टावर आफ साइलेन्स (जहां पारसी लोगों का अंतिम
संस्कार किया जाता है) जाती रही है, मगर जब उसने वलसाड की अगियारी में जाना
चाहा तो ट्रस्ट के संचालकों ने उसे वहां प्रवेश नहीं करने दिया। अदालत के
सामने पेश की गई याचिका में उन्होंने मांग की है कि अपने माता-पिता के
अंतिम संस्कार में भाग लेने और अपना खुद का अंतिम संस्कार वहां करने के लिए
अदालत ट्रस्ट को निर्देश दे। उन्होंने ऐसे उदाहरण भी पेश किए जिसके
अन्तर्गत पहले अन्तर सामुदायिक विवाह करनेवाली पारसी महिलाओं को प्रवेश
दिया जाता था, मगर अब रोक लगा दी गयी है। गोलरूख के वकील ने अदालत को बताया
कि इस मामले का विभेदकारी पक्ष यह है कि गैर पारसी महिलाओं से शादी
करनेवाले पारसी पुरु षों के अपने धार्मिक स्थानों में प्रवेश पर रोक नहीं
होती है जबकि अन्तर सामुदायिक शादी करनेवाली गैर पारसी महिलाओं पर रोक होती
है, जो भारत के संविधान की धारा 25 व14 का उल्लंघन है। फिलवक्त इस बात का
अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता है कि अदालत इस मामले में क्या कहती है, मगर
इसी बहाने धर्म और परंपरा के नाम पर स्त्रियों को उनके मानवीय अधिकार से
वंचित रखने का मुद्दा बहस के केंद्र में आया है।इसी किस्म का सवाल एक अन्य
जन हितयाचिका के बहाने मुंबई उच्च अदालत के सामने भी उपस्थित हुआ है।
भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की तरफ से मुंबई के हाजी अली दरगाह के
प्रबंधन के खिलाफ एक जन हितयाचिका दायर की गयी है, जिसने कुछ समय पहले
पंद्रहवीं सदी के सूफी संत पीर हाजी अली शाह बुखारी की मजार पर स्त्रियों
के जाने पर रोक लगायी है। दक्षिण मध्य मुंबई में स्थित यह दरगाह अरब समुद्र
में पत्थरों से बनी जमीन पर स्थित है। इसके पहले यहां महिलाएं अन्दर तक-
अर्थात सूफी संत की मजार तक भी जाती रही हैं लेकिन कुछ समय पहले प्रबंधन ने
इस सम्बन्ध में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाते हुए उसे शरीयत के आधार पर
जायज घोषित किया है। गौरतलब है कि हाजी अली दरगाह, जो एक सूफी मजार है, पर
हर साल हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दरगाह के प्रबंधन ने आदेश दिया कि
पंद्रहवी सदी के सूफी संत पीर हाजी अली शाह बुखारी की मजार के पास महिलाओं
को नहीं आने दिया जाएगा क्योंकि शरीया कानून के अन्तर्गत यह कदम
गैर-इस्लामिक है कि महिलाएं कब्रगाह जाएं।इस सम्बन्ध में जाने-माने लेखक
गौतम भाटिया ने ‘‘स्करोल’ पर लिखे अपने महत्वपूर्ण आलेख में संवैधानिक
अधिकार और नागरिक अधिकारों की र्चचा करते हुए स्पष्ट किया है कि किस तरह
‘‘भारतीय महिला आन्दोलन’ की याचिका मजबूत संवैधानिक मान्यताओं पर खड़ी है।
सबसे पहले उन्होंने संविधान की धारा 25 की बात की है जो हर व्यक्ति को अपनी
आस्था के अनुसार घूमने, उसका प्रचार करने का अधिकार देती है। उनका कहना है
कि इतनी आसानी से कोई भी प्रबंधन किसी व्यक्ति को उसके संवैधानिक अधिकारों
से वंचित नहीं कर सकता है। लेख में आगे यह र्चचा भी की गयी है कि अगर
याचिकाकर्ता संवैधानिक अधिकार की बात प्रमाणित नहीं भी कर पाती हैं तो भी
उनके सामने नागरिक अधिकारों का विकल्प है। सर्वोच्च न्यायालय ने खुद माना
है कि आम कानून के अन्तर्गत पूजा का अधिकार एक नागरिक अधिकार है जिसे
नियमित कानूनी याचिका के जरिए लागू करवाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने
सरदार सैफुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ बाम्बे के मुकदमे का हवाला देते हुए
न्यायमूर्ति जे दासगुप्ता की बात को उद्धृत किया है- ‘‘सम्पत्ति या किसी
पूजा स्थान पर पूजा का अधिकार या स्थान विशेष पर दफनाने या अंतिम संस्कार
के अधिकार को कानूनी याचिका के जरिए अमल में लाया जा सकता है।’संविधान
निर्माण के दौरान चली बहसें देखें तो कुछ बातें और स्पष्ट होती हैं। इस
हकीकत के मद्देनजर कि भारत में धर्म का प्रभाव काफी व्यापक है और अगर
‘‘सारभूत धार्मिक आचारों’ को लेकर संविधान द्वारा संरक्षण नहीं प्रदान किया
गया तो वह लोगों के जन्म से मृत्यु तक धर्म या उसके संस्थानों की आम
आस्थावान के जीवन पर पकड़ को दमघोंटू बना सकता है। अत: कुछ विशिष्ट
प्रावधान डा अम्बेडकर ने रखे हैं। दरगाह में महिलाओं के प्रवेश के मामले
में याचिकाकर्ताओं ने इसके प्रमाण पेश किए हैं कि महिलाओं को मजार तक जाने
से रोकना कुरान या हदीस का हिस्सा नहीं है, अर्थात उसे हम ‘‘सारभूत धार्मिक
आचारों’ का हिस्सा नहीं मान सकते, लिहाजा उसे लेकर प्रबंधन को आदेश देने
का अधिकार नहीं बनता। याचिकाकर्ताओं ने अजमेर शरीफ दरगाह का उदाहरण देते
हुए कहा है कि वहां महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार का प्रवेश वर्जित नहीं
है। यहां इस बात का उल्लेख करना समीचीन होगा कि धर्म को लेकर किसी विवाद की
स्थिति में उसके मूल ग्रंथों को देखा जाता है। उदाहरण के लिए रामप्रसाद
सेठ बनाम स्टेट ऑफ यूपी मामले में बहुपत्नीप्रथा पर फैसला देने के पहले
इलाहाबाद की उच्च अदालत ने मनुस्मृति और दत्तक मीमांसा आदि ग्रंथों का
अध्ययन कर बताया था कि क्या उसे हम हिन्दू धर्म का ‘‘आवश्यक भाग’ कह सकते
हैं। दूसरे गाय की हत्या को लेकर मोहम्मद हनीफ कुरेशी बनाम बिहार राज्य
सरकार मामले पर गौर करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कुरान की जांच करके देखा
था कि गोहत्या इस्लाम धर्म का आवश्यक हिस्सा है या नहीं। दोनों ही मामलों
में वे काम धर्म का आवश्यक हिस्सा नहीं समझे गए थे। गौतम भाटिया बताते हैं
कि दो अन्य वजहों से भी ट्रस्ट के प्रबंधन की याचिका कमजोर दिखती है,
जिसमें उसने ‘‘महिलाओं के अनुचित पोशाक पहनने’ या उनकी ‘‘सुरक्षा’ की दुहाई
देते हुए यह तर्क दिया है और इसका सम्बन्ध भी ‘‘सारभूत धार्मिक आचारों’ से
नहीं है।(RS)
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