Saturday 18 April 2015

नेट न्यूट्रलिटी : आजादी पर शर्ते थोपने की कोशिश (अभिषेक कुमार)

इंटरनेट उपयोग के मौजूदा स्वरूप में तब्दीली लाने के लिए इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों की कोशिशें जारी हैं, इसलिए नेट उपयोगकर्ताओं में भय बन गया है कि कहीं सरकार ऐसे बदलाव वाकई न कर दे। यदि ऐसा हुआ तो इससे देश में इंटरनेट का प्रचार-प्रसार थम जाएगा बड़ी समस्या यह है कि देश में नेट न्यूट्रलिटी को लेकर कोई कानून नहीं है। इसकी वजह सरकार की खामी नहीं, बल्कि यह है कि देश में इंटरनेट का उपयोग एक नई चीज है। इसलिए यदि सरकार की ओर से अब नेट न्यूट्रलिटी की कोई व्यवस्था बनाने की पहलकदमी होती है, तो इसे एक अच्छी शुरु आत ही कहा जाएगा
ऐसे देश या समाज की कल्पना क्या की जा सकती है जहां कार के मॉडल या निर्माता कंपनी के हिसाब से पेट्रोल पंप पर तेल की कीमत वसूली जाए! लेकिन इंटरनेट पर निजी दूरसंचार कंपनियां ऐसी ही व्यवस्था लागू करना चाहती हैं। वे चाहती हैं कि इंटरनेट सेवा का इस्तेमाल करने वाले उनके ग्राहक विभिन्न तरह के डाटा के लिए अलग-अलग शुल्क चुकाएं। मसलन, सामान्य वेब सर्फिंग के लिए वे कम शुल्क दें, पर व्हाट्सएप, फेसबुक, गूगल आदि के लिए ज्यादा पैसे दें। इसी तरह ऑनलाइन सामान बेचने वाली कंपनियों की वेबसाइटें उनके नेटवर्क पर मुफ्त मिलें, जबकि ईमेल सेवाओं, रेल, हवाई रिजर्वेशन, ऑनलाइन अखबार या ऑनलाइन पढ़ाई जैसी जरूरी वेबसाइटों को खोलने पर ज्यादा शुल्क देना पड़े। निजी दूरसंचार कंपनियों ने पिछले अरसे में ऐसा करने की कोशिश की है, पर दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के निर्देश के बाद उन्होंने ऐसे प्रावधानों से हाथ खींच लिए। जैसे पिछले साल दिसम्बर में एक निजी टेलीकॉम ऑपरेटर ने इंटरनेट कॉलिंग के लिए 3-जी डाटा प्लान लेने वाले अपने ग्राहकों से 10 किलोबाइट खर्च के लिए 4 पैसे या 2 रु पए प्रति मिनट के हिसाब से शुल्क वसूलने की व्यवस्था बना दी थी। आम तौर पर इंटरनेट के जरिये बात (कॉल) करने में एक मिनट के लिए लगभग 500 किलोबाइट डाटा खर्च होता है। इस कदम की यह कहकर तीखी आलोचना हुई कि ऐसी व्यवस्था ‘‘नेट न्यूट्रलिटी’ यानी इंटरनेट तटस्थता के खिलाफ है। इसके बाद जहां उस कंपनी ने बढ़ी दरें वापस ले लीं, वहीं ट्राई ने एक कंसल्टेशन पेपर जारी कर अगले माह 8 मई तक आम लोगों से ‘‘नेट न्यूट्रलिटी‘‘ के मुद्दे पर अपनी राय बताने को कहा।इस प्रसंग में पहला सवाल उठता है कि आखिर नेट न्यूट्रलिटी क्या है और निजी टेलीकॉम कंपनियां इसके विरोध में क्यों हैं। नेट न्यूट्रलिटी या इंटरनेट तटस्थता का सिद्धांत कहता है कि इंटरनेट की सेवा देने वाली कंपनियां इंटरनेट पर मौजूद हर तरह के डाटा को एक जैसा यानी बराबरी का दर्जा देते हुए अलग से कोई शुल्क नहीं लेंगी। वे स्पीड आदि के हिसाब से अपने ग्राहकों को विभिन्न डाटा प्लान कम या ऊंची दरों पर तो बेच सकती हैं, लेकिन उसके बाद यह भेद नहीं कर सकतीं कि ग्राहकों ने डाटा का इस्तेमाल महज वेब सर्फिंग में किया या उसे व्हाट्सएप अथवा रेल रिजर्वेशन आदि में खर्च किया। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए और न ही इसके लिए अलग कीमतें तय करनी चाहिए। यही नहीं, वे एक बार प्लान बेचने के बाद न तो इंटरनेट की किसी सेवा को बाधित (ब्लॉक) करें, न ही उसकी गति को धीमा करें। यानी इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कोई भेदभाव किए बगैर अपने ग्राहकों को वेब आधारित सभी सेवाएं दे। मोटे तौर पर यही इंटरनेट तटस्थता का सिद्धांत है और इसी की मांग हमारे देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में की जा रही है।अच्छी बात यह है कि देश में इंटरनेट का मौजूदा सिस्टम उपभोक्ता हितों के अनुरूप ही है और इसमें किसी टेलीकॉम कंपनी को यह छूट नहीं दी गई है कि वह अपनी पसंद के हिसाब से कुछ वेबसाइटों को ब्लॉक कर दे, उनकी गति धीमी कर दे या किन्हीं खास सेवाओं जैसे ऑनलाइन सामान बेचने वाली वेबसाइटों को ही तेज गति के साथ दिखाए। लेकिन ज्यादातर इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियां मौजूदा व्यवस्था और नेट न्यूट्रलिटी के सिद्धांत का विरोध कर रही हैं। वे चाहती हैं कि अपने ग्राहकों की इंटरनेट सर्विस को अपने हिसाब से फिल्टर कर सकें। मिसाल के तौर पर यदि ऑनलाइन सामान बेचने वाली कोई कंपनी किसी इंटरनेट सेवाप्रदाता कंपनी के साथ डील कर ले, तो उसकी वेबसाइट ग्राहकों को मुफ्त भी मिल सकती है और उनकी गति भी तेज हो सकती है। लेकिन जिन कंपनियों के साथ उसकी डील न हो, उनकी वेबसाइटें को वह फिल्टर करके रोक दे या अपने ग्राहकों से उस वेबसाइट को देखने के लिए अतिरिक्त शुल्क की मांग करें। इसका एक मतलब यह निकलता है कि मुफ्त मिलने वाली ईमेल सेवाओं के लिए या तो ग्राहक पैसा चुकाएं या फिर उनकी कंपनियां इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडरों से डील करें। वेब ब्राउजिंग के अलावा दूसरी सर्विसेज चाहिए, तो उपभोक्ताओं को उसका शुल्क देना होगा। यही नहीं, व्हाट्सएप, फेसबुक, स्काइप जैसे बेसिक अप्लिकेशंस के लिए अलग से इंटरनेट प्लान लेना पड़ सकता है। जिस तरह की व्यवस्था इंटरनेट सेवाप्रदाता लाना चाहते हैं, वह नेट न्यूट्रलिटी के सिद्धांत के खिलाफ है क्योंकि इसमें उपभोक्ताओं को अपने डाटा प्लान के मनचाहे इस्तेमाल की छूट नहीं होगी।एक अहम सवाल यह भी है कि आखिर कंपनियां ऐसा क्यों करना चाहती हैं? इस बारे में उनके कई तर्क हैं। एक तो यह है कि हाल में स्पेक्ट्रम नीलामी के दौरान ऊंची बोलियां लगाने में उन्हें भारी रकम खर्च करनी पड़ी है, जिसकी भरपाई के लिए ऐसे रास्ते अपनाने ही होंगे, अन्यथा उन्हें बहुत बड़ा घाटा उठाना होगा। इसके अलावा मुफ्त व्हाट्सएप और फ्री ईमेल जैसी सेवाओं ने एसएमएस के जरिए होने वाली उनकी कमाई लगभग खत्म कर दी है, लिहाजा इसकी भरपाई के उपायों को अमल में लाने की छूट की मांग वे कर रही हैं। इसके लिए वे सरकार पर भी दबाव बना रही हैं। इंटरनेट उपयोग के मौजूदा स्वरूप में तब्दीली लाने के लिए उनकी कोशिशें जारी हैं, इसलिए नेट उपयोगकर्ताओं में भय बन गया है कि कहीं सरकार ऐसे बदलाव वाकई न कर दे। यदि ऐसा हुआ तो इससे देश में इंटरनेट का प्रचार-प्रसार थम जाएगा। यही वजह है कि इंटरनेट के मौजूदा सिस्टम को बरकरार रखने के पक्ष में सरकार को लाखों ईमेल आम लोगों की तरफ से भेजे गए हैं। सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर बाकायदा अभियान चल रहा है।इस मामले में एक बड़ी समस्या यह है कि देश में नेट न्यूट्रलिटी को लेकर कोई कानून नहीं है। इसकी वजह सरकार की खामी नहीं, बल्कि यह है कि देश में इंटरनेट का उपयोग एक नई चीज है। इसलिए यदि सरकार की ओर से अब नेट न्यूट्रलिटी की कोई व्यवस्था बनाने की पहलकदमी होती है, तो इसे एक अच्छी शुरु आत ही कहा जाएगा। इस संबंध में सुझाव देने के लिए कुछ ही समय पहले टेलिकॉम कमिशन के मेंबर एके भार्गव की अध्यक्षता में एक कमिटी गठित की जा चुकी है। हालांकि नेट न्यूट्रलिटी के बारे में ट्राई ने हाल में जो कंसल्टेशन पेपर निकाला है, उसमें कहा गया है कि देश को आम उपभोक्ताओं और टेलीकॉम कंपनियों- दोनों के हितों का ख्याल रखना है। इससे इंटरनेट उपयोगकर्ताओं और छोटी इंटरनेट कंपनियों में भी बेचैनी है। छोटी कंपनियों की चिंता यह है कि नेट न्यूट्रलिटी की व्यवस्था के खिलाफ बड़ी कंपनियां गठजोड़ बनाकर न केवल ग्राहकों को चूना लगाएंगी, बल्कि छोटी कंपनियों के आगे बढ़ने का रास्ता भी रोक देंगी।कुछ ही समय पहले ऐसी ही आशंका फेसबुक के ‘‘इंटरनेटडॉटओआरजी’ प्रोग्राम को लेकर उठी थी। वैसे खुद सरकार भी कुछ वजहों से नेट न्यूट्रलिटी के पक्ष में हो सकती है। देश में शुरू किए गए डिजिटल इंडिया जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम इंटरनेट तटस्थता के दौर में ही सफल हो सकते हैं। साथ ही, मोदी सरकार के विभिन्न मंत्रालय जिस तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने में कर रहे हैं, उसमें इंटरनेट का मौजूदा सिस्टम ही सहायक है। फिलहाल देश में जो 30 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं, यदि उनके हितों के बारे में सोचना है तो जरूरी है कि सरकार और ट्राई जैसी संस्थाएं नेट न्यूट्रलिटी बरकरार रखने के बारे में गंभीर हों। इसी में सरकार और आम जनता, दोनों की भलाई है।(RS)

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