Wednesday 22 April 2015

सीमित विकल्पों में सही फैसला (नितिन अनंत गोखले)

भारत द्वारा फ्रांस की दसाल्ट एविएशन कंपनी से 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने के निर्णय पर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कुछ लोग इसे जहां भारतीय वायुसेना की आपातकालीन जरूरत बता रहे हैं वहीं कुछ इसे एक ऐसा निर्णय बता रहे हैं जो न इधर का है न उधर का। वास्तविकता यही है कि सरकार के पास विकल्प बहुत सीमित थे। इससे सेना की जरूरत के लिए विमानों की खरीद में जारी गतिरोध खत्म होगा। शायद ही किसी को याद हो कि पिछले 15 वर्षो में भारत ने कोई युद्धक विमान खरीदा हो। भारतीय वायुसेना लगातार इस बात की चेतावनी दे रही है कि वह यहां तक कि पाकिस्तान के खिलाफ भी अपनी युद्धक क्षमता खो रही है। इस संदर्भ में आपातकालीन स्थितियों को देखते हुए दशकों पुरानी एमएमआरसीए (मध्यम बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमान) खरीद पर जारी गतिरोध को लेकर सरकार के पास इसके अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं था। सरकार से सरकार (जीटूजी) के विकल्प का चुनाव करके भारत ने अपरोक्ष तौर पर बेहतर सौदा मूल्य हासिल किया। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि एमएमआरसीए प्रक्रिया के तहत सभी 36 राफेल विमान हमें उड़ान भरने योग्य स्थितियों में मिलेंगे। 126 लड़ाकू विमानों की खरीद की कोशिश की शुरुआत असल में 2001 में हुई थी। इस कार्य में 2007 से तेजी आई, लेकिन पिछले तीन वर्षो से इसके दाम को लेकर रुकावट बनी हुई थी। हालांकि भारतीय वायुसेना की युद्धक लड़ाकू विमानों की क्षमता तेजी से कम हो रही है।
पिछले कुछ वर्षो में एयरफोर्स के शीर्ष अधिकारियों ने सरकार को बार-बार चेतावनीपूर्ण संकेत देते हुए कहा कि परंपरागत युद्ध में यहां तक कि पाकिस्तान के खिलाफ भी वह अपनी क्षमता खो रहा है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने तीन यूरोपीय देशों की यात्र पर निकलने से पूर्व एक राजनीतिक निर्णय लिया कि राफेल युद्धक विमान को सरकार से सरकार (जीटूजी) विकल्प के माध्यम से फ्रांस से खरीदा जाए। इस पर उपलब्धि हासिल होने के बाद अब भारतीय वायुसेना दो वर्ष की समयावधि में राफेल युद्धक विमानों को अपने बेड़े में शामिल कर सकेगी और अपनी क्षमता को मजबूत कर सकेगी। सवाल यही है कि क्या जीटूजी के माध्यम से ही आगे की सभी खरीदारी को इसी तरह से अंजाम दिया जाएगा? यदि ऐसा है तो बहुप्रचारित मेक इन इंडिया अभियान का क्या होगा? अधिक राफेल विमानों की खरीदारी के विकल्प को देखते हुए मेक इन इंडिया की धारणा अभी एक दूर की कौड़ी है। हालांकि खरीदे जा रहे सभी 36 राफेल विमानों के संदर्भ में संकेत यही हैं कि आगामी पांच वर्षो में यह संख्या 60-63 से ऊपर नहीं जाएगी। यह जानते हुए कि 36 राफेल विमानों की खरीद से भारतीय वायुसेना की दीर्घ अवधि से चली आ रही कमी (2020 तक 12 नौसैनिक जहाजों के बेड़े सेवानिवृत्त हो जाएंगे) का समाधान नहीं होने वाला।
सरकार का जोर निर्धारित समयावधि में हंिदूुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) से तीन स्क्वॉड्रंस हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस, मार्क-2 हासिल करने पर होगा। इस दिशा में अंतिम कदम सुखोई-30 एमकेआइ युद्धक विमानों को खरीदने का होगा। इससे भी यह सवाल बना रहेगा कि बहुप्रचारित मेक इन इंडिया अभियान का क्या होगा? इस संदर्भ में सरकार की सोच यही है कि अधिकाधिक राफेल विमानों के आने से इसके निर्माता बाद में मुख्य उपकरणों और इसके उप-संयोजन (असेंबलिंग) के लिए भारतीय कंपनियों के साथ साङोदारी करेंगे। यह सब निकट भविष्य में होगा। यह स्पष्ट है कि शीर्ष स्तर पर दृढ़ राजनीतिक निर्णय से लंबे समय से चले आ रहे युद्धक विमानों की खरीदारी में चला आ रहा गतिरोध टूटेगा। हालांकि आगे लंबा रास्ता तय करना है, जिसके लिए बहुत सावधानी से योजना बनाने और कुशल प्रयासों की आवश्यकता होगी।
इस काम की जिम्मेदारी मनोहर पर्रिकर के कंधों पर आ गई है। जब पिछले साल के अंत में उन्होंने भारत के रक्षामंत्री का कार्यभार संभाला था, तो बहुत से रक्षा पंडितों ने इसका उपहास उड़ाया था। उनका मानना था कि गोवा जैसे छोटे से राज्य के एक नौसिखिये राजनेता की भला रक्षा मंत्रलय के जटिल मामलों पर क्या पकड़ होगी। छह माह से भी कम समय में इस मुसकुराते हुए चेहरे ने करीब एक दशक पुराना गतिरोध तोड़ते हुए जरूरी जेट विमानों की खरीदारी का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उन्होंने त्वरित फैसले लेने की अपनी क्षमता से सबको प्रभावित किया। दूरदर्शन पर इंटरव्यू में उन्होंने इस फैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौ में से सौ नंबर दिए और इस अप्रत्याशित फैसले में अपनी भूमिका को कमतर पेश किया। कार्यभार संभालने के बाद जब पर्रिकर लंबित परियोजनाओं और अन्य मसलों पर विचार कर रहे थे, तो उन्हें एहसास हुआ कि एमएमआरसीए का सौदा रक्षा मंत्रलय और दसाल्ट एविएशन के बीच तीन साल से वार्ताओं के बावजूद जस का तस पड़ा था। 2007 में प्रतिस्पर्धी निविदा में सबसे कम बोली के कारण दसाल्ट एविएशन का जेट विमानों की आपूर्ति के लिए चयन हुआ था। यह सौदा बेहद जटिल था। 126 लड़ाकू विमानों की लागत 16 से 18 अरब डॉलर के बीच आ रही थी। विद्यमान रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) के तहत किसी भी व्यक्ति के लिए इतनी बड़ी राशि से जुड़ा फैसला लेना बड़ा मुश्किल हो रहा था।
दूसरी तरह भारतीय वायुसेना जल्द फैसले के लिए दबाव डाल रही थी। इसे अपने बेड़े की तेजी से घटती ताकत को लेकर चिंता सता रही थी। पर्रिकर इस मुद्दे को प्रधानमंत्री के पास ले गए और इस गतिरोध को तोड़ने की जरूरत को समझाने में कामयाब रहे। मोदी की पेरिस यात्र से कुछ घंटे पहले दोनों एक अंतरिम हल पर पहुंच चुके थे- राफेल को सीधे सरकार से सरकार समझौते के माध्यम से खरीदा जाए, चाहे इस सौदे के लिए मेक इन इंडिया की शर्त को भी हटाना पड़े। प्रधानमंत्री ने पर्रिकर का खुलकर साथ दिया और फ्रांस को भारत के फैसले से अवगत करा दिया। हैरत की बात नहीं कि शंकालुओं ने इस फैसले की भी आलोचना की, किंतु मोदी और पर्रिकर दोनों ही स्पष्ट थे कि उन्हें किसी भी चीज से ऊपर भारतीय वायुसेना के हितों को वरीयता देनी है और उन्होंने यही किया भी।
सरकार को अगले चार सालों में रिटायर होने वाले दो सौ लड़ाकू विमानों की पूर्ति करने के लिए विस्तृत योजना पर काम करना होगा। पर्रिकर ने अपने साक्षात्कार में बताया था कि निकट भविष्य में होने वाली जेट विमानों की कमी पूरी करने के लिए वह क्या सोच रहे हैं। फिलहाल तो उन्होंने रक्षा मंत्रलय में अद्भुत निर्णायक क्षमता का प्रदर्शन किया है, जहां भारत के सबसे लंबे समय तक रक्षामंत्री रहे ए.के. एंटनी के कार्यकाल में फैसलों पर ग्रहण-सा लग गया था।(DJ)
(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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