Thursday 9 June 2016

एनएसजी पर भारत की कूटनीतिक बढ़त (अरविन्द जयतिलक)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कूटनीतिक कमाल का नतीजा है कि स्विट्जरलैंड और अमेरिका ने परमाणु आपूत्तर्िकर्ता देशों के समूह (एनएसजी) में भारत की सदस्यता का खुलकर समर्थन किया है और चीन का रुख नरम पड़ने लगा है। वह सख्त विरोध के केंचुल से निकल अब यह दलील दे रहा है कि एनएसजी में भारत को शामिल करने पर आम राय बने तथा सदस्य देशों के बीच र्चचा हो। चीन के बदले रुख का कारण यह है कि पांच देशों की यात्रा पर निकले भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनएसजी के मसले पर स्विट्जरलैंड का समर्थन हासिल कर लिया है जो कल तक विरोध कर रहा था। उधर, अमेरिका ने भी भारत की सदस्यता का खुलकर समर्थन किया है और यह भी स्पष्ट कर दिया है कि एनएसजी में भारत के प्रवेश का संबंध हथियारों के मुकाबले या परमाणु हथियारों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह सिर्फ परमाणु उर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल से जुड़ा मामला है। ब्रिटेन ने भी भारत की सदस्यता का समर्थन किया है और कहा है कि भारत अपने असैन्य परमाणु उद्योग के आकार और सैनिक सामग्री का प्रसार रोकने की उसकी प्रतिबद्धता के कारण इस संस्था में शामिल होने के काबिल है। उल्लेखनीय है कि परमाणु आपूत्तर्िकर्ता समूह 48 देशों का विशिष्ट क्लब है जो नाभिकीय निरस्त्रीकरण के लिए प्रयासरत है। इसका गठन 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण की प्रतिक्रियास्वरुप किया गया था। चूंकि चंद दिनों बाद 24 जून को इसके वार्षिक बैठक में भारत की सदस्यता को लेकर मतदान होना है लिहाजा चीन और पाकिस्तान ने विरोध जताते हुए मोर्चाबंदी शुरु की है। चीन की दलील है कि अगर भारत एनएसजी का सदस्य बनना चाहता है तो उसे परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर करना चाहिए। गौरतलब है कि एनपीटी का उद्देश्य विश्व भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर अंकुश लगाना है। इसके इतिहास में जाएं तो सोवियत संघ और अमेरकिा ने परमाणु अस्त्रों के उत्पादन को सीमित करने तथा उनके प्रयोग एवं उनके परीक्षण पर रोक लगाने के लिए अगस्त 1967 में अलग-अलग परंतु एक जैसी संधियों के प्रारुप प्रस्तुत किए। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 12 जून 1968 को इसे भारी बहुमत से स्वीकृति प्रदान कर दी और 1 जुलाई 1968 को हस्ताक्षर के लिए प्रस्तुत कर दी गयी। इसी दिन अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ तथा 50 से अधिक देशों ने उस पर हस्ताक्षर किए। यह संधि 5 मार्च 1970 से प्रभावी हो गयी। इस संधि के तहत परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है जिसने 1 जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण कर लिया हो। यही वजह है कि परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्र होने के बाद भी एनपीटी ने भारत को परमाणुशक्ति संपन्न देश की मान्यता नहीं दी है। जबकि यह सच्चाई है कि भारत इस संधि को प्रस्तुत करने वाला सहयोगी देा था। परमाणु प्रसार रोकने की प्रतिबद्धता के तहत भारत ने नवंबर 1965 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा तय किए गए सिद्धांतों का भी समर्थन किया। लेकिन जब 1968 में 11 सूची संधि पर हस्ताक्षर हुए तो भारत ने पाया कि यह न तो उसके द्वारा निर्धारित मापदंडों तथा न ही महासभा में सहमत सिद्धांतों के अनुरुप है। लिहाजा उसने एनपीटी पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। इस संधि की शतरें पर गौर करें तो इसमें व्यवस्था दी गयी है कि कोई भी परमाणु संपन्न देश अकेले या मिलकर अपने अस्त्र किसी भी राष्ट्र को नहीं देंगे। अणु शक्ति वाले देशों को आयुध वाले राष्ट्रों से किसी भी प्रकार के आणविक अस्त्र प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिए। संधि पर हस्ताक्षर करने वाला प्रत्येक राष्ट्र आणविक अस्त्रों की होड़ समाप्त करने एवं आणविक नि:शस्त्रीकरण को प्रभावाली बनाने के लिए बाध्य होगा। इसके अलावा संधि में यह भी व्यवस्था है कि गैर अणुशक्ति वाले देशों की बिना भेदभाव के कम कीमत पर आणुविक विस्फोटों के शांतिपूर्ण उपयोग के द्वारा प्राप्त बड़े लाभ मिल सकेंगे। लेकिन उल्लेखनीय बात यह कि इस संधि के प्रारुप पर आपत्ति दर्ज कराते हुए फ्रांस, इटली, जर्मनी और भारत ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भारत का तर्क दिया कि यह संधि भेदभावपूर्ण, असमानता पर आधारित एकपक्षीय एवं अपूर्ण है। हालांकि भारत को इस संधि पर हस्ताक्षर न करने के कारण परमाणु क्लब के सदस्यों की भारी आलोचना का सामना करना पड़ा लेकिन भारत आज भी अपने उसी पुराने तर्क पर कायम है कि आणुविक आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्षेत्रीय नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। भारत के इस तर्क से विश्व के कई देश सहमत भी हैं। दरअसल यह संधि छोटे राष्ट्रों के हितों को सुरक्षित रखने और समयानुकूल परिवर्तन करने में सक्षम है ही नहीं। गौर करें तो इस संधि के द्वारा एक ओर तो यह प्रतिबंध लगाया गया है कि जो राष्ट्र अभी तक परमाणु बम नहीं बना सके हैं, वे भविष्य में भी नहीं बनाएंगे, वहीं दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से परमाणु विहिन राष्ट्रों को अणुशक्ति संपन्न राष्ट्र द्वारा आणुविक हमले के समय जो गारंटी दी गयी वह भी अपर्याप्त है। इसके अलावा परमाणु संधि करने वाले राष्ट्रों के पास ऐसा कोई मापदंड नहीं है जिससे सैनिक कायरें एवं असैनिक कायरें में स्पष्ट रुप से विभाजन किया जा सके ताकि यह शंका न रहे कि असैनिक कायरें में किए गए अणु प्रयोग सैनिक कायरें में प्रयुक्त हो सकेंगे। महत्वपूर्ण बात यह भी कि परमाणु अप्रसार संधि के अमल में आने और परमाणु प्रौद्योगिकी पर कुछ विशिष्ट देशों के अधिकार के बावजूद भी पश्चिमी देशों की व्यापारिक वृद्धि और आपसी प्रतिद्वंदिता के कारण परमाणु तकनीकी का काफी विस्तार हुआ है। अमेरिका, सोवियत संघ, फ्रांस, ब्रिटेन, कनाडा और चीन के बाहर कम से कम डेढ़ दर्जन देश ऐसे हैं जहां पश्चिमी देशों ने परमाणु प्रौद्योगिकी बेची और पहुंचायी है। पश्चिमी कंपनियां विकासशील देशों में तकरीबन चार दर्जन परमाणु भट्ठियां लगी चुकी हैं। यहां मौजूद सवाल यह कि जब परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर फ्रांस के हस्ताक्षर न करने के बाद भी उसे एनएसजी में प्रवेश दिया जा सकता है तो फिर भारत को क्यों नहीं वैसे भी भारत एक शांति प्रिय देश है और उसका परमाणु अप्रसार संबंधित संस्थाओं से गहन संबंध रहा है। भारत हमेशा से परमाणु शस्त्रों के निषेध का पक्षधर रहा है। उसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु प्रसार को रोकने के लिए महति भूमिका निभायी है। ध्यान देना होगा कि 2 अप्रैल, 1954 के ‘‘स्टैंडस्टील एग्रीमेंट’ से लेकर 18 देशों के नि:शस्त्रीकरण समिति तथा बाद में नि:शस्त्रीकण सम्मेलन के माध्यम से उसने हमेशा एक परमाणु अस्त्रों से मुक्त विश्व गढ़ने का समर्थन किया है। इस सम्मेलनों के माध्यम से एक व्यापक एवं सार्वभौमिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि बनाने पर जोर दिया है। ध्यान देना होगा कि 1963 में आंशिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि (पीटीबीटी) के पांच धाराओं वाली संधि के अंतिम रुप प्रदान करने में भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। दिसंबर 1993 में भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध संधि का ब्यौरा संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश किया। सच तो यह है कि भारत हमेशा ही परमाणु शक्ति का उपयोग लोगों के जीवन स्तर को सुधारने व आर्थिक खुशहाली हेतु करने का पक्षधर रहा है न कि हथियारों के उपयोग का।(RS)

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