Saturday 25 June 2016

एकजुट यूरोप का सपना भंग करता ब्रिटेन (वेदप्रताप वैदिक) भारतीयविदेश नीति परिषद के अध्यक्ष

ब्रिटेन अब यूरोपीय संघ से अलग हो गया है। यह फैसला तो यूरोपीय संघ के 28 सदस्य-राष्ट्रों ने किया है और ही ब्रिटेन की सरकार ने। यह फैसला किया है, ब्रिटेन की जनता ने। 48 प्रतिशत मतदाता चाहते थे कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ में बना रहे, लेकिन 52 प्रतिशत मतदाताओं ने उससे बाहर निकलने का समर्थन कर दिया। सिर्फ चार प्रतिशत मतदाताओं ने बाजी पलट दी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन ने पूरी ताकत झोंक दी, इसके बावजूद जनता ने यूरोपीय संघ छोड़ने का फैसला कर लिया। इसका नतीजा क्या हुआ? जैसे ही जनमत-संग्रह के परिणाम सामने आए, प्रधानमंत्री ने इस्तीफे की घोषणा कर दी। उनके विरोधी भी हिल गए। वे आग्रह कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद पर बने रहें और यूरोपीय संघ को ब्रिटेन को बाहर निकालने की प्रक्रिया का संचालन करें, लेकिन स्वाभिमानी केमरन कह रहे हैं कि अब नई स्थिति को संभालने के लिए नया प्रधानमंत्री ही चुना जाना चाहिए।
इस जनमत-संग्रह का जबर्दस्त असर हुआ है। ब्रिटिश मुद्रा का जितना तगड़ा अवमूल्यन आज हुआ है, पिछले 31 साल में कभी नहीं हुआ। भारत का सेंसेक्स 1000 अंक नीचे ढह गया। कई अन्य देशों की मुद्राएं भी नीचे लुढ़क गई हैं। यूरोपीय संघ के बाकी 27 सदस्यों में भी उहा-पोह शुरू हो गई है। इटली, हॉलैंड, फ्रांस, डेनमार्क आदि देशों के तथाकथित राष्ट्रवादी तत्व मांग करने लगे हैं कि वे भी जनमत-संग्रह करवाएं और यूरोपीय संघ छोड़ें। पहले भी कुछ देशों ने यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़ी है, लेकिन वह छोड़ना छोटा-मोटा धक्का था। ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से निकलना भूकंप की तरह है। अब स्काॅटलैंड दुबारा जनमत-संग्रह की मांग करने लगा है। वह ब्रिटेन को छोड़कर यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता है। ब्रिटेन के निकलने ने यूरोपीय संघ की मूल अवधारणा पर भी प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। इतना ही नहीं, दुनिया के अन्य महाद्वीपों में बने क्षेत्रीय संगठनों के भविष्य के बारे में भी शक पैदा होने लगा है।
जिन कारणों से ब्रिटेन अलग हो रहा है, उन्हीं कारणों से ऐसे क्षेत्रीय संगठनों से अन्य सबल राष्ट्रों को भी अलग होना पड़ सकता है। अभी तो हमारा दक्षेस (सार्क) लंगड़ा है। वह यूरोपीय संघ बनने से काफी दूर है, लेकिन उसमें भारत की स्थिति काफी मजबूत है। यूरोपीय संघ में जितनी ब्रिटेन की स्थिति है, उससे कहीं ज्यादा मजबूत। किंतु जैसे ब्रिटेन को यूरोपीय संघ छोड़ना पड़ रहा है, क्या भारत को भी दक्षेस छोड़ना पड़ सकता है? यह भयावह संभावना मुझे तभी से व्यथित कर रही है, जबसे ब्रिटिश जनमत-संग्रह की बात मैंने सुनी है। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ आखिर क्यों छोड़ा, यह सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
यूरोपीय संघ की स्थापना 1957 में हुई थी और ब्रिटेन इसमें 1973 में शामिल हुआ। 16 साल तक वह शामिल क्यों नहीं हुआ? क्योंकि वह अपने आपको यूरोपीय नहीं मानता। उनसे अलग और ऊपर मानता रहा है। शामिल होने के बावजूद उसने 'यूरो' मुद्रा को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। उसने पाउंड को ही अपनी मुद्रा बनाए रखा। इसी तरह अन्य सदस्य-राष्ट्रों की तरह शेन-जेन वीज़ा के आधार पर उसने अपने देश में मुक्त यात्रा की सुविधा नहीं दी। 1975 में भी मांग उठी थी कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ छोड़े, लेकिन प्रधानमंत्री हेराल्ड विल्सन को जनमत-संग्रह में 67 प्रतिशत लोगों ने समर्थन दिया और ब्रिटेन यूरोपीय संघ में टिका रहा। किंतु अब केमरन के जमाने में 43 साल के अनुभव ने ब्रिटिश जनता का मोहभंग कर दिया। यूरोपीय संघ में पूर्वी यूरोप के लगभग दर्जन भर देश मिले। इन देशों का जीवन-स्तर पश्चिमी यूरोपीय देशों के मुकाबले बहुत नीचा था। संघ में मिलने वाली छूट का फायदा उठाकर लाखों पूर्वी यूरोपीय मजदूर ब्रिटेन में भरा गए। ब्रिटेन के अपने मजदूरों के रोजगार छिनने लगे, जीवन-स्तर गिरने लगा और अपराध बढ़ने लगे। आतंकियों को ब्रिटेन में डेरा जमाने की सुविधा मिल गई। यूरोपीय संघ के कानूनों को ब्रिटिश व्यापार, खेती, कारखानों और मछली-संग्रह आदि पर लागू करने पर ब्रिटेन को काफी नुकसान होने लगा था। ब्रिटेन इस संघ का दूसरा सबसे मालदार और शक्तिशाली देश है। वह सांस्कृतिक दृष्टि से अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझता है। यदि वह यूरोपीय संघ पर निर्भर रहा है तो यूरोपीय संघ भी उस पर निर्भर रहा है। उसका 4 प्रतिशत व्यापार संघ के साथ होता है। अभी-अभी दोनों का अलगाव ब्रिटेन के लिए काफी हानिकर होगा, ऐसा लगता है पर धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होती जाएगी, क्योंकि सभी यूरोपीय देश ब्रिटेन के साथ अपनी द्विपक्षीय संबंधों की पुनर्परिभाषा में जुट जाएंगे। इसी स्थिति को ये देश यूरोपीय सपने का भंग होना मान रहे हैं।
क्या कभी भारत के साथ भी यही हो सकता है? क्यों नहीं? यूरोपीय संघ में तो ब्रिटेन की टक्कर के दो देश हैं- फ्रांस और जर्मनी, लेकिन भारत की टक्कर में कौन है? अकेला भारत दक्षेस के अन्य सातों देशों को मिला दें तो उनसे भी बड़ा है। पूरे दक्षिण एशिया में कहीं कुछ बवाल होता है, चाहे बांग्लादेश हो, म्यांमार हो, श्रीलंका हो, अफगानिस्तान हो, लाखों लोग जबर्दस्ती भारत में घुसे चले आते हैं। यदि यूरोपीय संघ की तरह दक्षेस-राष्ट्रों में वीज़ा हट जाएं, नौकरियां खुल जाएं, आवागमन मुक्त हो जाए तो यह भय तो है ही कि भारत करोड़ों शरणार्थियों से पट सकता है। ऐसे में भारत क्या करेगा, इस प्रश्न पर सोचने का मसाला हमें ब्रिटेन ने अभी से दे दिया है। शायद ऐसी नौबत आए, क्योंकि यूरोप के देशों में कच्चा माल नहीं है और उनकी जमीन भी छोटी है, जबकि दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के राष्ट्रों के पास अथाह कच्चा माल है और उनके पास इतनी ज्यादा खाली जमीन पड़ी हुई है कि वहां वे लाखों नहीं, करोड़ों नए आगंतुकों को बसा सकते हैं और उन्हें रोजगार दे सकते हैं।
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने का भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस प्रश्न पर अभी तक गहरी पड़ताल नहीं हुई है। उसका कारण है। भारत का दोनों से ही अच्छा संबंध है। ब्रिटेन में लगभग 30 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। लाखों भारतीय वहां पर्यटक, छात्र, व्यापारी आदि के तौर पर जाते रहते हैं। यूरोप से ज्यादा। ब्रिटेन में भारत की 800 से ज्यादा कंपनियां सक्रिय हैं। यूरोप में जितनी हैं, उनसे कहीं ज्यादा। अंग्रेजी में काम करने पर उन्हें ज्यादा सुविधा होती है। अब उन्हें अपने दफ्तर शायद यूरोप में खोलने पड़े। यों भी ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग होने में अभी कम से कम दो साल लगेंगे। इस अवधि में भारतीय हित-रक्षा का समुचित प्रबंध हो जाएगा। भारत को अभी थोड़ी और दूरंदेशी से काम लेना होगा। अभी तो सिर्फ ब्रिटेन टूटा है, कल इटली, फ्रांस और जर्मनी आदि देश भी अलग होने लगे तो भारत की नीति क्या होगी? यूरोपीय संघ के अध्यक्ष डोनल्ड टस्क की यह चेतावनी ध्यान देने लायक है कि 'ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होना, केवल यूरोपीय संघ के विसर्जन की शुरुआत हो सकता है बल्कि पश्चिमी सभ्यता के विनाश का प्रारंभ हो सकता है।' यह प्रतिक्रिया जरा भावुकताभरी है, लेकिन इसमें शक नहीं है कि रूस के ब्लादिमीर पुतिन से ज्यादा खुश आज कौन होगा?
(येलेखक के अपने विचार हैं।)(DB)

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