Wednesday 8 June 2016

इतनी आसान नहीं काले धन की वापसी (पुष्परंजन, संपादक, ईयू-एशिया न्यूज)

तेरह साल पहले नरेंद्र मोदी एक महत्वपूर्ण अभियान पर स्विट्जरलैंड गए थे, जिसकी गाथा कई बार राजनीतिक मंचों पर दोहराई जा चुकी है। 22 अगस्त, 2003 वह ऐतिहासिक दिन था, जब नरेंद्र मोदी को स्विस सरकार ने कच्छ के महान क्रांतिकारी श्याम कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी की अस्थियां सौंपी थीं। उस समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इस बार प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी एक महाअभियान पर स्विट्जरलैंड जा रहे हैं? हर तरफ यही चर्चा है कि इस बार उनका मकसद वहां जमा भारतीयों के काले धन को वापस लाना है। लेकिन क्या यह काम इतना आसान है?
प्रधानमंत्री मोदी ऐसे समय स्विट्जरलैंड जा रहे हैं, जब उस देश पर खातेदारों से संबंधित सूचना हासिल करने के वास्ते चौतरफा दबाव बना हुआ है। मई 2012 में अपने यहां काले धन पर एक श्वेत पत्र जारी हुआ था, जिसमें यह आकलन किया गया कि स्विट्जरलैंड के सभी बैंकों में भारतीय खातेदारों की कुल जमा राशि 92.95 अरब रुपये (1.95 अरब स्विस फ्रांक) हैं। स्विस विदेश मंत्रालय ने श्वेत पत्र में जारी इन आंकड़ों की पुष्टि की थी। यह विक्रम और बेताल जैसा सवाल है कि किस आधार पर सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को यह जानकारी दी थी कि स्विस बैंकों में भारतीयों के 500 अरब डॉलर (24.5 लाख करोड़ रुपये) काले धन के रूप में जमा हैं? साढे़ चौबीस लाख करोड़ रुपये सवा अरब आबादी के हिस्से कर भी दिए जाएं, तब भी हर किसी के हिस्से 15 हजार रुपये से अधिक नहीं आएंगे।
स्विस नेशनल बैंक (एसएनबी) भारत के रिजर्व बैंक की तरह है, जो मुद्रा संबंधी नीतियों को जारी करता है। इसी स्विस नेशनल बैंक ने ज्यूरिख में 19 जून, 2014 को स्विट्जरलैंड के 283 बैंकों का वार्षिक डाटा जारी करते हुए कहा था कि 1.6 ट्रिलियन डॉलर के बराबर धन स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा है। खातेदारों के स्विट्जरलैंड से निकल लेने, और सोने की गिरती कीमतों के कारण 2015 में 23.5 अरब डॉलर का घाटा स्विस बैंकों को हुआ है, यह एसएनबी द्वारा मार्च 2016 में दी गई जानकारी से स्पष्ट हुआ।
स्विस सरकार ने खातों के खुलासे के लिए अक्तूबर 2015 में 30 देशों के पीयर रिव्यू ग्रुप (पीआरजी) का गठन किया है। ‘पीआरजी’ में भारत भी शामिल है, जिसका काम चोरी से हासिल डाटा के आधार पर काले धन के खातेदारों का पता लगाना है। इसके बावजूद, स्विस सत्ता के गलियारे, सूचनाओं तक पहुंच की सीमा निर्धारित करते हैं। सितंबर 2015 में स्विस संसद में एक नए कानून का प्रस्ताव रखा गया, जिसमें काले धन से संबंधित जानकारी मांगे जाने पर संबंधित देशों के साथ सहयोग करना था। इसे स्विस लोकतंत्र की खूबसूरती कहें कि ऐसे प्रस्ताव को कानून बनाने से पहले सभी 26 प्रांतों में मतसंग्रह कराया जाता है। स्विट्जरलैंड के लीडिंग अखबार नोय ज्यूरिचर त्साइटुंग ने यह जानकारी दी है कि स्विस जनमत इस कानून को बनाने के पक्ष में नहीं है।
स्विट्जरलैंड में इस समय दक्षिणपंथी ‘स्वीस पीपुल्स पार्टी’ का बोलबाला है, जिसे 18 अक्तूबर, 2015 को हुए चुनाव में खासा बहुमत मिला है। इसी पार्टी के नेता उली माउरर इस समय स्विट्जरलैंड के वित्त मंत्री हैं, जिनसे दावोस बैठक में अरुण जेटली मिले थे। उली माउरर से मुलाकात के बाद वित्त मंत्री जेटली ने बयान दिया था कि स्विट्जरलैंड काले धन की जानकारी देने में भारत को सहयोग देने के लिए कटिबद्ध है। मगर एक सच यह है कि दक्षिणपंथी ‘स्विस पीपुल्स पार्टी’संसद में उस प्रस्तावित कानून के विरोध का मन बना चुकी है। पता नहीं, हमारे नेता उन पेचीदगियों का पूरा सच लोगों को बताने से परहेज क्यों करते हैं?
दिसंबर महीने में स्विस संसद ने ऑटोमेटिक इंफॉर्मेशन एक्सचेंज (एआईई) संधि का अनुमोदन किया था, जिसके तहत स्विट्जरलैंड हर साल सभी वित्तीय लेन-देन से संबंधित सूचनाएं उपलब्ध कराएगा। स्विट्जरलैंड ने अब तक जिन दस देशों से ‘एआईई’ करार किया है, उनमें भारत शामिल नहीं है। इसलिए काले धन की तह तक भारत अब भी नहीं जा पाएगा। भारत सरकार को चाहिए कि वह स्विट्जरलैंड से ‘एआईई’ करार करे। फिर भी, स्विस संसद से इसका अनुमोदन होते-होते 2018 निकल जाएगा, और 2019 में आम चुनाव होना है। कई बार चुनावी वादे या घोषणाएं गले की हड्डी बन जाती हैं। काले धन को वापस लाने का मामला कुछ ऐसा ही है।
स्विट्जरलैंड ने काले धन को सफेद करने का एक फॉर्मूला निकाला है, जिसे ‘रुबिक डील’ कहते हैं। 20 से 41 प्रतिशत तक दीजिए, और काले धन को सफेद कीजिए। दो साल पहले स्विस बैंक ‘यूबीएस’ ने 52 हजार अमेरिकियों के काले धन को सफेद करने के लिए 78 अरब डॉलर देना स्वीकार कर लिया था। ब्रिटेन, जर्मनी, और ऑस्ट्रिया रुबिक डील के हामीदार हैं। क्या रुबिक डील का ऐसा कोई प्रस्ताव हमारे प्रधानमंत्री कार्यालय में विचाराधीन है?
वित्त मंत्रालय के अधिकारी इस ताजा अपडेट से इनकार नहीं कर रहे कि पिछले तीन साल में स्विस बैंकों से भारतीयों के काले धन दुनिया के दूसरे ठिकानों की तरफ सरक गए हैं। पनामा उसका एक छोटा-सा उदाहरण है। ‘पनामा लीक’ का मुख्य सूत्रधार हर्वे फालसियानी को उसकी अनुपस्थिति में स्विस कोर्ट ने पांच साल की सजा सुनाई है। हर्वे फालसियानी जेनेवा के ‘एचएसबीसी’ में कंप्यूटर एक्सपर्ट था, जिसने एक लाख,30 हजार अकाउंट होल्डर के डाटा चुराए थे, और उनको उसने 2008 में फ्रांस को बेच दिया था। फ्रांस ने 782 भारतीय खातेदारों की सूचना भारत सरकार को दी थी।
‘एचएसबीसी’ जेनेवा में 1,195 भारतीयों के खाते हैं। ‘एचएसबीसी’ के अधिकारी कोई जानकारी देने और टिप्पणी से इनकार करते हैं। यह सिर्फ एक बैंक का मामला है। स्विट्जरलैंड में ऐसे 327 बैंक और ‘सिक्युरिटी डीलर’ हैं, जो हवाला और बेनामी खातों को खपाने में व्यस्त रहते हैं। पूरी स्विस बैंकिंग व्यवस्था बंद मुट्ठी की तरह है, जिसे खोलना किसी भी सरकार के लिए आसान काम नहीं है।
पनामा लीक का मुख्य सूत्रधार हर्वे फालसियानी इस समय बार्सिलोना में भूमिगत है। उसने दावा किया कि भारत में काले धन पर गठित एसआईटी के प्रमुख जस्टिस एमवी शाह को पनामा में काले धन के खातेदारों के नाम देने के लिए पत्र लिखा था। मगर इसके बरक्स न्यायमूर्ति शाह कहते हैं कि हर्वे फालसियानी की ओर से काले धन के नए नामों के बारे में कोई ऐसी जानकारी नहीं मिली है। कड़वा सच यह है कि पनामा से लेकर स्विट्जरलैंड तक जानकारी पाते-पाते पूरा देश पक चुका है। आम आदमी को मतलब कार्रवाई से है, जो कानून और वित्त मंत्रालय के गलियारों में कहीं गुम है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(Hindustan)

No comments:

Post a Comment