Monday 4 July 2016

एमटीसीआर की सदस्यता : झटके के बीच बड़ी उपलब्धि (सी. उदयभाष्कर)

भले ही इन दिनों यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के बाहर निकलने के बाद राजनीतिक और सामरिक प्रभावों का आकलन किया जा रहा है, लेकिन इस बीच जनसंहारक हथियारों के वैश्विक स्तर पर नियंत्रण के नए तरीके भी उभर रहे हैं। बीते दिनों भारत को सियोल में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में प्रवेश नहीं मिल पाना निराशाजनक रहा, लेकिन ये बड़ी उपलब्धि है कि भारत सोमवार को मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) का पूर्ण सदस्य बन जाएगा। जनसंहारक हथियारों से संबंधित तकनीक को विनियमित और नियंत्रित कतिपय व्यवस्थाओं द्वारा किया जाता है और इसमें से कई का गठन भारत द्वारा मई 1974 में किए गए परमाणु परीक्षण के बाद किया गया था। एनएसजी और एमटीसीआर, दोनों परमाणु हथियारों के नियंत्रण के लिए बनी इस व्यवस्था के भाग हैं। सियोल के अनुभव से यह अब पूरी तरह साफ हो गया है कि चीन भारत का एनएसजी में प्रवेश रोकने में सफल रहा। बीजिंग, जो कि 2004 में एनएसजी में शामिल हुआ था, ने अब यह निर्णय किया है कि वह भारत के पक्ष में अमेरिका के समर्थन से चलाई जा रही मुहिम का विरोध करेगा। मालूम हो कि जुलाई 2005 में बुश प्रशासन ने भारत के पक्ष में आवाज उठाई थी और इसे ओबामा प्रशासन द्वारा आगे बढ़ाया गया है। 1 यह जानना महत्वपूर्ण है कि चीन एमटीसीआर का सदस्य नहीं है, लेकिन वह परमाणु अप्रसार अभियान का अगुआ दिखने की कोशिश कर रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि चीन एक ऐसा देश है जिसने दूसरे देशों जैसे पाकिस्तान को बने बनाए परमाणु हथियारों की आपूर्ति की है। जाहिर है कि ऐसा उसने दक्षिण एशिया में भारत को नियंत्रित करने के लिए किया है। जनसंहारक हथियारों की क्षमता से लैस होना अपने आप में दुनिया की एक प्रमुख शक्ति होने का पैमाना है। यह क्षमता हासिल हो जाने से उस देश को कुछ सामरिक स्वायत्तता भी प्राप्त हो जाती है। भारत ने एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए, क्योंकि वह उसे भेदभावपूर्ण संधि मानता है। जो भी हो, भारत का एमटीसीआर में प्रवेश और सियोल में एनएसजी के 48 सदस्य देशों में से 38 देशों का समर्थन यह दर्शा रहा है कि आने वाले दिनों में वैश्विक सामरिक समीकरणों की दिशा बदलने वाली है। सामरिक रूप से अमेरिका अभी सबसे शक्तिशाली देश है और परमाणु शक्ति के रूप में रूस उसका समकक्ष है। भू-सामरिक मोर्चे पर अमेरिका और यूरोपीय संघ की जीडीपी बराबर है और जापान सहित इस समूह को अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन के रूप में देखा जाता है। शीत युद्ध के दौरान पूर्व का सोवियत संघ अमेरिका के बराबर की महाशक्ति था और उस समय चीन ने एक चतुर देश की भूमिका निभाई थी। वह आरंभ में तो मास्को कैंप में रहा, लेकिन वहां से हित सध गए तो बाद में पाला बदल लिया और अमेरिका के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने लगा। दरअसल चीन की तकनीक आधारित तेज आर्थिक वृद्धि का मुख्य आधार यही था। 1शीत युद्ध के बाद अमेरिका ने बीजिंग को वैश्विक जनसंहारक हथियार व्यवस्था में शामिल होने और एक उभरती शक्ति के रूप में सिद्धांतों का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार चीन ने 1992 में एनपीटी पर हस्ताक्षर कर दिए, जबकि वह पहले इसे बेकार का दस्तावेज कहता था। इसके बाद भी उसने दुनिया को अंधेरे में रखा और उत्तर कोरिया और पाकिस्तान को जनसंहारक हथियारों से लैस किया। बीच के दशकों में भारत ने अपने यहां आर्थिक और सुरक्षा उदारीकरण की शुरुआत की और यहां तीन महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने आर्थिक और व्यापार उदारीकरण की नींव रखी, मई 1998 में हुए परमाणु परीक्षण ने भारत को सामरिक स्वायत्तता दिलाई और सितंबर 2008 में एनएसजी द्वारा भारत को विशेष छूट देने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार भारत अमेरिका की तुलना में जीडीपी के मामले में छोटा ही सही, लेकिन वैश्विक सामरिक व्यवस्था में एक विश्वसनीय स्विंग स्टेट के रूप में उभर रहा है। इन दिनों ब्रिटेन की तरह अमेरिका में राष्ट्रीयता की भावना जोर पकड़ रही है और राष्ट्रपति के संभावित उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के जनवरी 2017 में अमेरिका के राष्ट्रपति बनने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा होता है तो बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में अमेरिका वैश्विक शासन व्यवस्था से स्वयं अलगाव का रुख करेगा। इसके परिणाम स्वरूप में दुनिया में उथल-पुथल महसूस की जा सकती है। 1इन परिस्थितियों में यह मोदी सरकार की बुद्धिमानी है कि उसने औपचारिक रूप से नाभिकीय कारोबार वाली व्यवस्था से जुड़ने की पहल की है, क्योंकि इसका सदस्य होने के बाद कई सारे लाभ स्वत: मिलने लगते हैं, जो कि बाहर रहने के दौरान मिलने वाली सुविधाओं से कहीं बढ़कर होते हैं। हालांकि सियोल का अनुभव भारत के लिए एक सामरिक झटका हो सकता है, लेकिन इसने मोदी सरकार को एक बहुत बड़ी सीख भी दी है। खासकर इस मामले में कि इस तरह के कूटनीतिक प्रयास को किस हद तक प्रचारित किया जाना चाहिए। यदि ऐसे मुद्दों पर विभिन्न प्रमुख दलों के बीच एक आम सहमति बन जाए तो वह देशहित में होगा। दरअसल भाजपा, जो पूर्व में संप्रग सरकार के हर कदम की गंभीर आलोचना करती थी, आज स्वयं उसी तरह की आलोचना का सामना कर रही है। इससे विरोधी दल की छवि तो नहीं बनती है, लेकिन देशहित जरूर आहत होता है। क्या संसद के मानसून सत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष द्वारा एमटीसीआर में भारत के प्रवेश को एक बड़ी उपलब्धि मानते हुए इसका समान रूप में स्वागत किया जा सकता है?1(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीड एंड एनालिसिस के निदेशक रहे हैं)(DJ)

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