Friday 29 July 2016

नाकाम तख्ता पलट के तर्क-वितर्क हरिमोहन मिश्र

तूर्की में तख्तापलट की नाकाम कोशिश क्या आतंकवाद से लड़ने के तरीकों के खिलाफ पैदा हो रहे आक्रोश का नतीजा है? क्या इसमें बेहद उथल-पुथल के दौर से गुजर रही विश्व व्यवस्था के लिए भी कोई नया संकेत है? या फिर यह लम्बे समय से तुर्की में राष्ट्रपति एदरेगन के राजकाज खिलाफ पैदा हो रहे असंतोष का ही एक बेदम-सा इजहार था? ये सवाल आज खासकर आईएस के आतंक से बुरी तरह पीड़ित दुनिया और ब्रिटेन में चिलकॉट रिपोर्ट में नाजायज इराक युद्ध से हुई बर्बादी के लिए पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के खिलाफ चल रही बहस के आलोक में खास महत्त्व के हो गए हैं। दरअसल फ्रांस के नीस शहर में बेस्तिल दिवस पर भारी सुरक्षा तामझाम से भी फिदायीन हमले को नहीं रोका जा सका। अमेरिका, यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया में तो इसकी तबाही पिछले साल भर से रुक नहीं रही है। यूरोप के आर्थिक संकट में भी यह बड़ा पहलू बना हुआ है। सुरक्षा तामझाम पर जितना खर्च बढ़ता है, उसी मुकाबले दूसरे खर्चो में कटौती का असर अर्थव्यवस्था को झेलनी पड़ती है। इससे यह धारणा भी घर करने लगी है कि मौजूदा आतंक की व्यापकता और उससे लड़ने के नजरिए में भारी गफलत है। ब्रिटेन में चिलकॉन रिपोर्ट से इसी गफलत और आतंक से लड़ाई के मौजूदा रवैए के नफा-नुकसान पर बहस छिड़ी हुई है। वहां टोनी को कुछ लोग युद्ध अपराधी तक बताने लगे हैं।हाल के दौर में इसका सबसे अधिक देश तुर्की के शहरों को झेलना पड़ा है। पिछले साल से जारी बम धमाकों और आतंकी घटनाओं से लोग काफी तंगी महसूस कर रहे हैं। सीरिया और इस्लामिक स्टेट (आईएस) के खिलाफ अभियान, विद्रोही कुर्द लड़ाकों से लड़ाई ने भी तुर्की के जन-जीवन को काफी तबाह किया है। लिहाजा, ये हालात भी फौज में असंतुष्ट और राष्ट्रपति एदरेगन विरोधी तत्वों को शह की वजह बने हो सकते हैं। तुर्की सीरिया के शरणार्थी संकट को भी झेल रहा है और वह शरणार्थियों को यूरोप रवाना करने का भी मुख्य द्वार है। राष्ट्रपति एदरेगन सीरिया में अल असद की शिया सरकार के खिलाफ विद्रोहियों की मदद तो कर रहे थे, नाटो का महत्त्वपूर्ण ठिकाना होने के नाते तुर्की ही आईएस के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अभियान का भी मुख्य केंद्र है। इससे पिछले साल से ही तुर्की में पर्यटकों की आमद और कारोबार लगभग ठप्प हो गया था। एक खबर में तुर्की के एक बुद्धिजीवी को यह कहते उद्धृत किया गया है कि ‘‘हम ठगा-सा महसूस करते हैं। तुर्की के समाज में अब और ऊर्जा नहीं बची है। हम कुछ होने का इंतजार कर रहे हैं, मानो तुर्की के नए उभार का इंतजार कर रहे हों।’ दरअसल, तुर्की का समाज एक विचित्र स्थिति में फंसा हुआ है। उसके सभी बड़े शहरों में बम धमाके लगभग रोजमर्रा की बात हो चली है। उसका समज बुरी तरह बंटा हुआ है। वहां कुछ लोग किसी भी वक्त गृह युद्ध छिड़ने की आशंका जताने लगे थे। देश के दक्षिणी-पूर्वी सीमा पर कुर्द अलगावादी नए सिरे से सक्रिय हैं। उसके दक्षिण के देश इराक और सीरिया तो भयावह युद्ध की चपेट में हैं ही, जिसकी आग से वह झुलस रहा है। हालांकि तख्तापलट की नाकाम कोशिश साबित करती है कि राष्ट्रपति एदरेगन की पकड़ अभी बनी हुई है या यह कहिए कि लोग फौजी तानाशाही के पक्ष में कतई नहीं हैं। यह इससे भी साबित होता है कि एदरेगन की धुर विरोधी पार्टियों सहित लगभग सभी ने फौज के एक वर्ग की तख्तापलट की कोशिश का विरोध किया। बकौल एदरेगन, यह अमेरिका के पेनसिल्वानिया में स्वयंभू निर्वासन में रह रहे मौलाना फतुल्ला गुलेन के समर्थकों का कारनामा था। हालांकि फेतुल्ला समर्थकों ने इससे इनकार किया है और राजनीति में किसी तरह के सैन्य दखलअंदाजी की निंदा की है।एदरेगन के इस्लामी रुझान के विपरीत फतुल्ला उदार इस्लाम में यकीन करते हैं और सभी धर्मो को समान सम्मान देने के हिमायती हैं। लेकिन मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि तख्तापलट की यह कोशिश फौज में कमाल अतातुर्क की सेकुलर धारा में यकीन करने वालों की थी, जो एदरेगन के इस्लामी रीति-रिवाजों को शह देने के खिलाफ रहे हैं। 1920 के दशक में कमाल अतातुर्क ने तुर्की में एक आधुनिक सेकुलर व्यवस्था की नींव रखी थी। तुर्की कम से कम पिछले आठ दशकों तक उसी व्यवस्था को कड़ाई से पालन करता रहा है और समय-समय पर कई बार फौज ने सत्ता अपने हाथ में लेकर खास सेकुलर व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश की है। ऐसा आखिरी तख्ता पलट 1997 में हुआ था। लेकिन उसके बाद से फौज से विद्रोह की ताकत नहीं उभरी थी। हालांकि कमालवादी व्यवस्था में खासकर किसान और कुर्द जैसे अल्पसंख्यक उपेक्षित महसूस करते थे। इसी भावना को भुनाकर कुछ उदार किस्म की इस्लामी धारा में यकीन करने वाली एदरेगन की पार्टी एकेपी 2002 के आखिर में हुए चुनावों में सत्ता में पहुंची तो 2003 में प्रधानमंत्री बने एदरेगन ने मुस्लिम और गरीब इलाकों को विकसित करने की नीतियां बनाई। इससे वे काफी लोकप्रिय हो गए। 2014 में वे राष्ट्रपति चुन लिए गए। लेकिन एदरेगन के राज में बेपनाह भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलीं। उनके करीबी लोगों की सम्पत्तियों में बेपनाह इजाफा हुआ। इसके खिलाफ 2013 और 2015 में भारी प्रदर्शन हुए जिसे एदरेगन ने कड़ाई से दबा दिया। एदरेगन अपना जन समर्थन हासिल करने के लिए तुर्की के उस्मानिया साम्राज्य का गौरव वापस लाने की बात करते हैं और आठ दशकों के कमालवाद की सेकुलर व्यवस्था को बेमानी बताते हैं। यह सही है कि सेना में कमालवादी तत्व कई बार तख्तापलट की कोशिश कर चुके हैं पर उन्हें 1980 के बाद से कामयाबी नहीं हासिल हो पाई है। पर ताजा असंतोष की असली वजह शायद लगातार युद्ध की स्थितियों से जर्जर होती देश की व्यवस्था ही है। इसलिए प.एशिया के हालात और आतंकवाद से लड़ाई पर नए नजरिये की दरकार है।(DJ)

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