Friday 29 July 2016

राष्ट्रगान को मुकदमेबाजी में न उलझाएं (शशि थरूर )

कुछ समय पहले अभिनेता अमिताभ बच्चन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई थी कि उन्होंने कथित रूप से टी-20 विश्वकप क्रिकेट में भारत-पाकिस्तान मैच शुरू होने के पहले गलत ढंग से राष्ट्रगान गाया था। यह इस तथ्य को रेखांकित करता है कि हमारा राष्ट्रगान किस हद तक गर्व का विषय होने के साथ विवाद का विषय भी बन गया है। शिकायत में आरोप लगाया गया कि अमिताभ ने राष्ट्रगान गलत ढंग से गाया, क्योंकि यह 52 सेकंड में पूरा होने की बजाय 1 मिनट 22 सेकंड बाद पूरा हुआ। 52 सेंकड वह अवधि है, जो गृह मंत्रालय के दिशा-निर्देशों में आधिकारिक रूप से स्वीकार की गई है। उचित लय-ताल में राष्ट्रगान इतनी अवधि में पूरा होता है।
यह बहुत विचित्र लग सकता है, लेकिन इस मामले में 26/12 के दो हफ्तों बाद अमेरिकी शैली में दिल पर हाथ रखकर राष्ट्रगान गाने के आरोप में मेरे खिलाफ दायर इसी प्रकार के मामले की पीड़ादायक गूंज मौजूद है। तब शिकायत में कहा गया था कि सावधान की मुद्रा की बजाय इस तरह खड़े होना राष्ट्रगान का निरादर है। मामला चार साल चला और वकील की फीस के रूप में मुझे लाखों रुपए की चपत लगी, अंतहीन मानसिक परेशानी अलग झेलनी पड़ी। अाखिरकार केरल हाईकोर्ट ने मेरी इस दलील को स्वीकार कर लिया कि दिल पर हाथ रखना भी सम्मान व्यक्त करने का सूचक है। हमारे राष्ट्रगान में एेसा क्या है कि हम इसे लेकर इस तरह की मुकदमेबाजी के लिए प्रेरित होते हैं? इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति पर हिंदी जानने वाले विदेशियों के बीच राष्ट्रगान का वाद्यस्वरूप प्रस्तुत करने पर मुकदमा दायर किया गया था (यह बात अलग है कि राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति के किसी भी कार्यक्रम में आधिकारिक बैंड राष्ट्रगान का वाद्य स्वरूप यानी उसकी धुन ही बजाता है)।
एक अधिवक्ता संजीव भटनागर ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर राष्ट्रगान से 'सिंध' शब्द हटाने और उसके स्थान पर 'कश्मीर' शब्द लाने का अनुरोध किया। दलील यह कि सिंध अब भारत का भौगोलिक हिस्सा नहीं है। कोर्ट ने इसे नहीं माना, लेकिन इससे शिवसेना के एक सांसद हतोत्साहित नहीं हुए और उन्होंने यही मांग हाल ही में संसद में दोहरा दी। राजस्थान के राज्यपाल और उत्तरप्रदेश में किसी वक्त भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह ने राष्ट्रगान से 'अधिनायक' शब्द हटाने की मांग की, क्योंकि उनके मुताबिक रवींद्रनाथ टैगोर ने दिसंबर 1911 में जब 'जन गण मन' लिखा तो इस शब्द से उनका आशय ईश्वर से था, जबकि राष्ट्रगान में ऐसा लगता है कि यह शब्द ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम की ओर इशारा करता है।
यहां वे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और ऐसी ही अालोचनाएं करने वाले मार्कंडेय काटजू के दृष्टिकोण की प्रतिध्वनि देते हैं, जिन्होंने अप्रैल 2015 को पोस्ट किए गए एक ब्लॉग में टैगोर को 'ब्रिटिशों का पिछलग्गू' बताया था (वही टैगोर जिन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में नाइटहुड की उपाधि त्याग दी थी!)। काटजू की दलील थी कि राष्ट्रगान में 'भारत भाग्य विधाता'( यानी भारत की नियति तय करने वाला) से टैगोर का आशय ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम से था। बिहार के जनता दल (यू) के विधायक राणा गंगेश्वर सिंह आलोचना में और भी आगे बढ़ गए और राष्ट्रगान को 'गुलामी की निशानी' बताकर उसकी निंदा कर दी- और तत्काल पार्टी से निलंबित कर दिए गए।
राष्ट्रगान को लिखने की जो भी परिस्थितियां रही हों, 'जन गण मन' को हमारे संविधान को औपचारिक रूप से स्वीकार किए जाने के दो दिन पहले 24 जनवरी 1950 को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया। इसे दो बहुत ही प्रिय राष्ट्रीय गीतों 'वंदे मातरम्' और 'सारे जहां से अच्छा' पर तरजीह दी गई। भारत के ज्यादातर घटक अंगों का आह्वान करने, जोशभरी धुन के साथ गाए जाने और विजयी भाव (जय है!) से खत्म होने वाली रचना 'जन गण मन' राष्ट्रीय गान के लिए उचित कृति है। यह भारत के प्रति गहरे प्रेम से भी जुड़ा हुआ है, तभी तो पिछले आठ वर्षों से एक फर्जी ई-मेल इंटरनेट पर चल रहा है, जिसमें दावा किया गया है कि यूनेस्को ने 'जन गण मन' को दुनिया के 'सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान' के रूप में चुना है, जबकि ूनेस्को में ऐसा कोई अवॉर्ड नहीं है।
मुझे लगता है कि चाहे यह ठीक हो, लेकिन हमें खुश होना चाहिए कि थोड़े राष्ट्रीय प्रतीक संस्थाएं ऐसी हैं, जो सारे भारतीयों में प्रेम और वफादारी की भावना पैदा करती हों और राष्ट्रगान उनमें शामिल है : राष्ट्रध्वज, क्रिकेट टीम और राष्ट्रगान, शायद यह सूची यहीं खत्म हो जाती है। किसी निर्णायक मैच में पराजित होने पर क्रिकेट टीम आलोचना की शिकार बन सकती है, लेकिन राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान अवमानना या दलीलों के परे हैं। वे उस सर्वश्रेष्ठ कल्पना को मूर्त रूप देते हैं, जिसकी हम भारतीय एक राष्ट्र के रूप में अपेक्षा करते हैं। यही वजह है कि अति उत्साहियों को जरा भी लगे कि इनका निरादर हुआ है तो वे उनके बचाव में सक्रिय हो जाते हैं। यह राष्ट्र के सम्मान से जुड़ा विषय है।
जो इसमें फेरबदल भी चाहते हैं तो वे ऐसा इसलिए चाहते हैं, क्योंकि वे उनके राष्ट्रीय विज़न को आदर्श रूप देना चाहते हैं। ऐसा चाहने वाले लोगों से मैं कहूंगा : वक्त अब चीजों को संयम के साथ, उदारता के साथ लेने का है दोस्तो। दुनिया के कई देशों के राष्ट्रगान काल बाह्य हो चुके हैं, जिनमें उनके जन्म की परिस्थितियों का वर्णन है। वे परिस्थितियां अब नहीं रही हैं। फिर चाहे अमेरिकी गान में गरजती तोपें हों या फ्रांसीसी गान में युद्ध का आह्वान हो। किंतु उन देशों में उन्हें उसी रूप में दो सदियों से ज्यादा समय से गाया जा रहा है और यही तो उन्हें खास बनाता है। उनका मूल रूप ही उनकी विशेषता है। अलग तरह से गाने से राष्ट्रगान की शक्ति, उसका असर कम नहीं होता। हम हमारे राष्ट्रगान के सम्मान में उसकी सबसे अच्छी सेवा यही कर सकते हैं कि उसे सतही मुकदमेबाजी का विषय बनाएं। राष्ट्रगान जैसा है वैसा ही बना रहे। जय है!
(येलेखक के अपने विचार हैं।)(DB)

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