Thursday 7 July 2016

प्रधानमंत्री का अफ्रीकी दौरा : अनेक आयामों को साधना (प्रो. अजय दुबे)

अफ्रीका हमेशा से भारत के लिए एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। अफ्रीका को भारत का समर्थन उसकी आजादी के लिए, रंगभेद के खिलाफ चल रहे आंदोलन के लिए, या उसके आर्थिक विकास के लिए हमेशा मिलता रहा है। जब 1990 के दशक में भारत अपनी आर्थिक उदारतावादी नीति में व्यस्त था, उस दशक में और उसके बाद के दशक में चीन ने अपना वर्चस्व अफ्रीका में आर्थिक निवेश के माध्यम से जमाया। बहुत सारे देशों में उसकी पहुंच और पकड़ बहुत बढ़ गई और भारत, जिसके लिए अफ्रीकी देशों के पास काफी सम्मान और दोस्ताना रिश्ता था, उसमें पीछे रह गया। भारत में जब आर्थिक विकास ने तेजी पकड़ी, उस तेज आर्थिक विकास में भारत को अफ्रीकी संसाधन की जरूरत महसूस हुई। भारत के जो भौगोलिक-राजनीतिक-सामरिक हित इस क्षेत्र में बढ़े, जहां भारत एक नियंतण्र ताकत के रूप में उभरना चाहता था, उसमें उसे अफ्रीका की जरूरत महसूस हुई। उदाहरण के लिए हर पांच साल में भारत के आर्थिक विकास में जो ऊर्जा की जरूरत है, वह हर पांच साल में दोगुनी हो जाती है, और उसमें भी विशेषकर जो पेट्रोलियम पदार्थो की जरूरत है, वह बेहद महत्त्वपूर्ण जरूरत है, विशेषकर ऊर्जा के संदर्भ में। और इसलिए अफ्रीका अभी भी एक ऐसा क्षेत्र है, जहां विदेशी पकड़ उतनी मजबूत नहीं हुई है, जितनी खाड़ी के देशों में है।वैश्वीकरण के बाद अफ्रीकी देशों के पास भी विकल्प खुले हैं कि वो दूसरों देशों के साथ अपने संबंधों को विकसित कर सकते हैं। चीन, ब्राजील, अज्रेटीना, मलयेशिया, इंडोनेशिया आदि ने बाजार और ऊर्जा क्षेत्र को ध्यान में रखकर अफ्रीका में पहुंच बनाने के प्रयास किए हैं। खासकर खनिज पदार्थो के लिए। और फिर अफ्रीका के लिए विकल्प खुला। इस तरह के बहुत सारे अन्य खनिज पदार्थ जैसे पेट्रोलियम उत्पाद, गैस इत्यादि जैसे क्षेत्रों में भारत के लिए विकल्प खुले हैं। भारत को इनकी जरूरत है, क्योंकि हर पांच साल में भारत की जरूरत दोगुनी हो जाती है। इस लिहाज से ये क्षेत्र भारत के लिए अहम हैं क्योंकि चाहे वो खाड़ी देश हों, मयांमार हो या लैटिन अमेरिकी देश हों। हर तरफ विदेशी ताकतें बेहद मजबूती से जमे हैं। यकीनन यहां घुसना भारत के लिए बेहद मुश्किल है। भारत ने 2008 में भारत-अफ्रीका सम्मेलन आयोजित किया था, और जो इसकी ऐतिहासिक सद्भावना थी। उसे आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक रूप में रूपांतरित करने का प्रयास किया गया। भारत-अफ्रीका सम्मलेन के बाद भारत पहली बार, जिसकी छवि अभी तक मदद लेने वाले देश की रही है, मदद देने वाले देश के तौर पर उभर कर सामने आया। इसी प्रक्रिया में तीन भारत-अफ्रीका सम्मलेन, जो हर तीन साल के अंतराल (2008, 2011, और 2014 में लगातार हुए) पर होते आए हैं। उनमें भारत ने करीब 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया। यह भारत सरकार ‘‘एड इंवेस्टमेंट सॉफ्टलाइन क्रेडिट’ के रूप में अफ्रीका को उपलब्ध कराएगी। इसके अलावा, खासी संख्या में फेलोशिप, कुछ सुरक्षा समझौते- जो हिंद महासागर से संबंधित हैं-पायरेसी पर लगाम लगाने के लिए किए गए। इसके साथही अफ्रीकी देशों से जो हमारी मित्रता है, उसके मद्देनजर वहां से ऊर्जा निर्यात के क्षेत्र में भी खासा सहयोग मिला। इन सबके अलावा भी बहुत सारे समझौतों पर सहमति बनी। चीन की अच्छी पहुंच होते हुए भी सारे अफ्रीकी देश भारत को एक लोकतांत्रिक ताकत के रूप में देखते हैं। उनके बीच भारत की छवि एक ऐसे राष्ट्र के रूप में है, जो उपनिवेश से स्वयं पीड़ित रहा है। एक ऐसे राष्ट्र के रूप में भी भारत की छवि उनके सामने प्रस्तुत है, जो विविधतापूर्ण राष्ट्र है और जिसने खुद को एक लोकतांत्रिक देश के रूप में सफलतापूर्वक परिलक्षित किया है। और यही नहीं भारत ने एक उभरती हुई नियंतण्र शक्ति के रूप में विश्व पटल पर अपनी मौजूदगी भी दर्ज कराई है। अफ्रीकी देशों की नजर में भारत की बेहद अच्छी छवि है। भारत और चीन के बीच तुलना करें तो भारत चीन के मुकाबले बहुत कम समृद्ध है। और निकट भविष्य में वह उसके आसपास भी नहीं पहुंच सकता। इसके बावजूद चीन और अफ्रीका के दरम्यान एक बहुत ही असहज सा रिश्ता है। ऐसा जो मतलब और स्वार्थ के साथ बढ़ता है। लेकिन इसके उलट भारत ने अफ्रीका के लिए काफी कुर्बानियां दी हैं। पिछले 70-80 सालों में जहां कई जगह उसने अफ्रीका के हितों को अपने हितों के ऊपर तरजीह दी है, जबकि चीन ने ऐसा कभी नहीं किया। इसलिए अफ्रीकी देश भारत को बहुत अच्छी दृष्टि से देखते हैं। चीन के प्रभाव के बावजूद। लेकिन इन सारे प्रयासों के बावजूद उनकी निरंतर शिकायत रहती है कि चीन और अमेरिका के राष्ट्रपति लगातार अफ्रीका के दौरे पर रहते हैं, लेकिन भारतीय नेतृत्व वहां नहीं जाता। वो संबंधों को जल्दी न तो जोड़ते हैं ना उसे प्रगाढ़ बनाने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। इस कारण, जो समझौते किसी के दौरे के दौरान होते हैं, वो कार्यान्वित नहीं हो पाते। सिर्फ अफ्रीकी राष्ट्रहित या यूं कहें कि एकतरफा दौरे/रिश्ते चलते रहते हैं। हाल के दिनों में जो दौर शुरू हुआ, वो अच्छा कदम है। मसलन पहले उप राष्ट्रपति गए। फिर राष्ट्रपति गए। अब प्रधानमंत्री जा रहे हैं। ये दौरे अफ्रीका में जो हमारे दोस्त हैं, उनसे रिश्तों में गर्मजोशी में जो कमी थी, उसे पाटने के लिहाज से बेहद अहम हैं। या जो भारत के अपने उद्देश्य चाहे वो निवेश की सुरक्षा के संबंध में हों या बाजार में पहुंच बनाने के लिहाज से, व्यापार के लिए हों या ऊर्जा सुरक्षा के लिए, चाहे भारत को सुरक्षा परिषद के लिए समर्थन के संदर्भ में हों या पर्यावरण समझौते या व्यापार वार्ता के संदर्भ में। सबसे इतर, जो दूसरे आयाम हैं, उनकी दृष्टि से राष्ट्राध्यक्ष के स्तर पर यह दौरा बेहद अहम है, विशेषकर उस दूरी को पाटने के लिहाज से जो अरसे में बनी थी। (लेखक सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज, जेएनयू में चेयरपर्सन हैं)(RS)

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