Friday 29 July 2016

चीन की सीनाजोरी के अर्थ (डब्लू पी एस सिद्धू, सीनियर फेलो, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी)

हेग की परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन ने साउथ चाइना सी (दक्षिण चीन सागर) पर चीन के दावे को लेकर जो फैसला दिया है, वह पहली नजर में उसके और फिलीपींस का द्विपक्षीय मामला लगता है। लेकिन हकीकत में यह एक उदाहरण भी है कि चीन किस तरह से पूरी दुनिया पर एक नई विश्व-व्यवस्था को थोपने की कोशिश कर रहा है।
फैसले से पहले और बाद में लगा कि चीन इस मामले पर हंगामा करने और लड़ाई की धमकी देने की रणनीति अपना रहा है। उसके इस व्यवहार से भारत समेत दुनिया की सभी बड़ी ताकतों के कान खड़े हो गए।
चीन का रवैया कभी पूरी अवज्ञा के साथ इस मामले से अपने को अलग करने का दिखा, तो कभी अदालत के क्षेत्राधिकार को ही नकारने का और बाकी पक्षों को सीधे-सीधे धमकी देने का। उसने न तो कभी इस अदालत से सहयोग करने की थोड़ी-सी भी कोशिश की और न ही वह इस मामले पर अपने लिए समर्थन जुटाता दिखा। इस सबकी बजाय वह यह मानकर बैठा रहा है कि एक विश्व महाशक्ति के तौर पर उसे यह अधिकार है कि वह ऐसी सारी व्यवस्थाओं को धता बताए; उन व्यवस्थाओं को भी, जिन्हें बनाने में वह भागीदार है।
दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में उसका समर्थन करने वाले देशों में अफगानिस्तान और नाइजर भी शामिल हैं। ये दोनों ऐसे देश हैं, जो हर तरफ से भूमि से घिरे हैं और समुद्र के कानून का उनके पास कोई अनुभव नहीं है। विडंबना यह है कि इस मामले में ताईवान ने भी इस अदालत के फैसले को नकार दिया है, वह चीन के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है, जबकि साउथ चाइना सी पर वह भी अपना दावा जताता रहा है। पाकिस्तान भी चीन के साथ है। उसका कहना है कि इस मामले को सबंधित देशों को आपसी बातचीत से सुलझाना चाहिए, जबकि संयुक्त राष्ट्र में इस्लामाबाद के प्रतिनिधि का पक्ष यही है कि द्विपक्षीय मामलों को सुलझाने के लिए ऐसे फैसलों को लागू किया जाना चाहिए। चीन के 'वैकल्पिक अपवाद' के तर्क ने उसे ऐसा थोड़ा-बहुत समर्थन जरूर दिलवा दिया है।
लेकिन अमेरिका इससे सहमत नहीं है और उसके रक्षा सचिव एस्टर कार्टर ने कहा है कि चीन इस कदम से अपने लिए अलगाव की एक दीवार खड़ी कर लेगा। समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र संहिता, परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन और साउथ चाइना सी पर चीन का रवैया भारत के उस रवैये के बिल्कुल विपरीत है, जो उसने 2008 में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप से राहत पाने के लिए अपनाया था और कामयाबी भी हासिल की थी। बेशक इसमें अमेरिका ने भारत की मदद भी की थी। वहां पर भारत को यह राहत काफी कुछ दुनिया में नई दिल्ली की बढ़ती भूमिका और कुछ हद तक दुनिया की महत्वपूर्ण राजधानियों में चलाए गए उसके राजनयिक अभियान के चलते मिली थी।
अदालत के निणर्य पर चीन का रवैया शांतिपूर्ण विश्व-व्यवस्था के दो मिथकों को भी चुनौती देता दिखाई दे रहा है। इसमें पहला मिथक यह है कि देशों के बीच आर्थिक और व्यापारिक रिश्ते जितने ज्यादा होंगे, भू-राजनीतिक तनाव उतने ही कम हो जाएंगे। लेकिन चीन के मामले में अनुभव कुछ और ही कहता है। 2015 में एसोसिएशन ऑफ साउथ-ईस्ट एशियन नेशंस यानी आसियान चीन का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया था। चीन के आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से 2015 में चीन और फिलीपींस के बीच का व्यापार 2.7 फीसदी की दर से बढ़ा और 45.65 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया।
फिलीपींस उन चार आसियान देशों में से एक है, जिनका चीन के साथ कारोबार लगातार बढ़ रहा है। और अगर हम फिलीपींस के आधिकारिक आंकड़ों को देखें, तो 2015 में चीन उसका दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी था। जिन देशों को फिलीपींस से निर्यात होता है, उनमें चीन तीसरे नंबर पर है। लेकिन अदालत के इस फैसले के बाद दोनों देशों के बीच जो कड़वाहट दिखाई दी, वह यही बताती है कि इस बढ़ते व्यापार ने दोनों के बीच मित्रता बढ़ाने में कोई भूमिका नहीं निभाई।
ऐसा ही दूसरा मिथक यह है कि विवादों के निपटारे की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं जितनी ज्यादा और जितनी व्यापक होंगी, धमकियों और ताकत के इस्तेमाल की गुंजाइश उतनी ही कम हो जाएगी। चीन के रवैये ने इस मिथक को भी तोड़ दिया है। एक धारणा यह रही है कि आर्थिक और व्यापारिक संस्थाओं के एकीकरण से अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ रहा है, लेकिन इस फैसले के खिलाफ चीन की तीखी प्रतिक्रिया ने यह खतरा भी पैदा कर दिया है कि दुनिया में चलने वाली तमाम बहुपक्षीय प्रक्रियाएं अब विपरीत दिशा में जा सकती हैं। मसलन, सितंबर में चीन के हांगचो में जी-20 देशों का सम्मेलन हो रहा है, यह चीन के नेतृत्व में हो रहा है और वहां इसका असर दिख सकता है। इसी तरह, अक्तूबर में गोवा में ब्रिक्स देशों का सम्मेलन होना है, वहां भी इसका असर दिख सकता है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की जो प्रक्रिया चल रही थी, वह तो वैसे भी काफी धीमी पड़ चुकी है, मगर अब इसके और भी धीमे हो जाने की आशंका है। इसका असर भारत और चीन के बीच चल रहे सीमा-विवाद को निपटाने की प्रक्रिया पर भी पड़ेगा।
एक बात तय है कि परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन का फैसला लागू हो पाने की जरा भी संभावना नहीं है। ऐसे फैसले को सिर्फ अमेरिका लागू करवा सकता है, लेकिन एक तो अमेरिका अकेला ऐसा देश है, जिसने संयुक्त राष्ट्र के समुद्री कानून कन्वेंशन पर अभी तक दस्तखत नहीं किए हैं और दूसरा, अभी वह चीन को सैनिक चुनौती नहीं देना चाहता। बीजिंग ने इस मुद्दे पर सैनिक कवायद बढ़ाने की खुली धमकी दी है। इतना ही नहीं, उसने अपनी कथित 'कैरियर-किलर' मिसाइलों को भी तैनात कर दिया है।
दुनिया अब और ज्यादा उथल-पुथल भरी, और ज्यादा खतरनाक, और ज्यादा अव्यवस्थित हो चुकी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(Hindustan)

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