Friday 29 July 2016

पदकों का जीडीपी से रिश्ता (संजय श्रीवास्तव)

ओलंपिक खेलों का कारवां अब चंद दिनों बाद ही सामने होगा। दुनिया के अमीर और गरीब देशों के एथलीट एक प्लेटफॉर्म पर होंगे। ओलंपिक में हम जो सामने देखते हैं-वो होते हैं विजेता और उम्दा प्रदर्शन। लेकिन बहुत सी बातें हम नहीं देख पाते, जो कामयाबी और पदकों की होड़ के पीछे-पीछे चलती हैं। क्या देशों और उनके सकल घरेलू उत्पाद के बीच कोई रिश्ता होता है। क्या भारत जैसे देश में पदकों की होड़ का गांवों से कोई संबंध है? नब्बे के दशक के बाद ऐसा क्या हुआ कि हम ओलंपिक में पहले से बेहतर प्रदर्शन करने लगे। बेशक हम अब भी जनसंख्या के लिहाजा पदकों की दौड़ में बहुत पीछे हैं लेकिन हम जहां भी हैं, वहां से एक आत्मविश्वास हमें आगे ही ले जा रहा है। इसकी क्या वजह है। क्या बाजार हमारे खेलों के लिए शुभ रहा है। ये बहुत से सवाल हैं जो आमतौर पर भारत के बदलते और सकारात्म होते खेल परिदृश्य में मायने रखते हैं।
एक जमाना था, जब अमेरिका ओलंपिक में शहंशाह था। वर्ष 1984 में अमेरिका ने 37 फीसदी स्वर्ण पदक जीते लेकिन वर्ष 2008 तक आते आते उसकी गोल्ड मेडल्स की सफलता महज 12 फीसदी पर सिमट गई। क्योंकि दूसरे देश तेजी से आर्थिक सुपरपॉवर बन रहे हैं। अमेरिका की जीडीपी का अनुपात विश्व फलक के परिप्रेक्ष्य में कम हो रहा है। वर्ष 1985 में अगर अमेरिका की जीडीपी दुनिया की 35 फीसद थी तो वर्ष 2012 तक आते आते ये महज 22 फीसदी हो चुकी है।
चीन के स्वर्ण पदकों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है, क्या इसकी वजह उसकी जीडीपी तो नहीं, जो वर्ष 1984 के बाद लगातार बढ़ रही है। चीन ने अगर 1984 में उपलब्ध स्वर्ण पदकों के सात फीसदी अपने नाम किए तो 2008 तक जीत के अनुपात में 17 फीसदी की बढोतरी ने इसे खेलों का सुपरपॉवर बना दिया। अगर वर्ष 1985 में वैश्विक जीडीपी में चीन का अनुपात महज दो फीसदी था तो वो अब बढकर 10 फीसदी हो गया है।
इसी परिप्रेक्ष्य पर अगर भारत को देखें तो 90 के दशक में भारत का आर्थिक परिदृश्य नाटकीय तौर पर बदलना शुरू हुआ। सत्तर के दशक में भारत की अर्थव्यवस्था सौ बिलियन डालर की थी। इसमें बढोतरी तो हो रही थी लेकिन बहुत धीरे ढंग से। अस्सी के दशक तक आते आते इसमें सुधार के लक्षण दिखने लगे। 1982 में ये 196 बिलियन डॉलर थी। लेकिन इसकी तुलना में अमेरिका और ब्रिटेन की अर्थव्यवस्थाएं बहुत आगे थीं। एक विराट देश के हिसाब से देखें तो खुद भारत के लिए ये पर्याप्त नहीं कही जाएगी। हालांकि देश का जीडीपी करीब सात फीसदी के हिसाब से बढ रहा था। वर्ष 1981 में जब पीवी नरसिम्ह राव सरकार ने देश के दरवाजे उदारीकरण के लिए खोले तो हमारी अर्थव्यवस्था तीन सौ बिलियन डॉलर से नीचे थी। लेकिन उसके बाद वो कुलांचे लगाने लगी। वर्ष 2000 में अर्थव्यवस्था 476.6 बिलियन डॉलर पर थी। ये दौर था जब भारत में बाजार मजबूत होने लगा था। देश की क्रय क्षमता बढ़ने लगी थी। आम भारतीयों की खरीदने की ताकत बढ़ने लगी थी। हमारी जीवन शैली, सुविधाएं, संरचना में साफ तौर पर गुणात्मक बदलाव आ रहा था। 2013 में हमारी अर्थव्यवस्था अब दो टिलियन डॉलर की हो गई। हालांकि हम अब भी चीन और अमेरिका की अर्थव्यवस्था से खासे पीछे हैं।
भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था और जीडीपी को ओलंपिक या अंतरराष्ट्रीय जगत में खेलों के परिप्रेक्ष्य देखें तो बदलाव साफ नजर आता है। 80 और 90 के दशक में हम जहां किसी भी खेल में बड़ी सफलताओं के लिए तरसते थे, वहीं अब भारत के खिलाड़ी बड़े पैमाने पर अंतररराष्ट्रीय स्तर पर चैंपियन हैं या अपनी मौजूदगी का मजूबती से अहसास करा रहे हैं। खेलों में हमारा विकास क्रमिक तौर पर आगे जा रहा है। अगर इसे ग्राफ के रूप में देखें तो सफलताओं का सिरा ऊपर और ऊपर की ओर है। 1986 में एक कांस्य पदक, चार साल बाद वर्ष 2000 में फिर कांस्य पदक, वर्ष 2004 के एथेंस ओलंपिक में एक रजत पदक। असल तरक्की का सफर वर्ष 2008 के बीजिंग ओलंपिक में पहली बार दिखा-जहां हमने एक स्वर्ण समेत तीन पदक जीते। इसके चार साल बाद लंदन ओलंपिक में ये संख्या बढ़कर छह पदकों तक पहुंच गई। अब दावा किया जा रहा है कि भारत रियो ओलंपिक में कम से कम 12 पदक जरूर जीतेगा। अगर मौजूदा तौर पर देखें तो बैडमिंटन, टेनिस, निशानेबाजी, कुश्ती, तीरंदाजी जैसे खेलों में हमारे खिलाड़ी लगातार केवल सफलताएं ही हासिल नहीं कर रहे हैं बल्कि रैंकिंग में लगातार टॉप टेन में जगह पा रहे हैं। अगर भारत में खेलों की ट्रेनिंग, सुविधाएं और टैलेंट तलाश की प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाले संसाधन अगर बेहतर हो जाएं। खेलों में धन का निवेश और बढ़े तो देश एक दशक से भी कम समय में ओलंपिक में कम से कम दस स्वर्ण सहित 25 पदकों को जीतने की स्थिति में आ सकता है। आज हम भारत में खिलाड़ियों और खेल क्षेत्र में मिल रही सुविधाओं की ओर देखें तो लगेगा कि महज एक दशक पहले हमारे खिलाड़ियों के सामने इसका घोर अभाव था। न उनके पास अंतरराष्ट्रीय एक्सपोजर था, न ही बेहतर और वैज्ञानिक तरीके की ट्रेनिंग, कोचिंग की हालत भी खासी लचर थी। खिलाड़ियों को पदक जीतने के बाद भी आर्थिक उत्साह के नाम पर कुछ खास नहीं मिलता था। खेल सिस्टम आमतौर पर खिलाड़ियों के मनोबल के रास्ते में आड़े आता था। वो सारी बातें बहुत हद तक बदल चुकी हैं। अब केवल सरकार ही खेलों के लिए पैसे नहीं देती बल्कि बाजार और बड़े ब्रांड भी खेलों से जुड़कर उन्हें नया रंग और आत्मविश्वास दे रहे हैं। कहा जा सकता है कि 125 करोड़ वाले देश के हिसाब से हमारी सफलता अब भी ऊंट के मुंह में जीरे सरीखी है, इसे और बेहतर होना चाहिए।
कुछ दिनों पहले गोल्डमैन सैच ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसका लब्बोलुआब ये था कि ओलंपिक में सफलता का आंकलन करने में देश के आर्थिक हालात खास भूमिका अदा करते हैं। इसके जरिए आप अंदाज भी लगा सकते हैं कि ओलंपिक में कौन-सा देश क्या करने वाला है। रिपोर्ट कहती है कि यादा जीडीपी का मतलब है खेल और खिलाड़ियों में यादा धन और ऊर्जा का निवेश। अभी हमारा स्पोर्ट्स बजट हमारी आबादी के हिसाब आठ रुपये प्रति व्यक्ति का है।
हां, ये पहलू जरूर देखा जाना चाहिए कि अब भी भारत के यादा सफल खिलाड़ी ग्रामीण पृष्ठभूमि से ही आते हैं, जहां न तो खेल की संरचना है और न यादा सुविधाएं लेकिन ग्राम्य जीवन में बहुत कुछ ऐसा है, जो यादा दमखम और जीवट वाले खिलाडिय़ों को पैदा करता है। रियो ओलंपिक में अंदाजन 120 के आसपास खिलाड़ियों का दल हिस्सा लेगा, इसमें 80 फीसदी खिलाड़ी ऐसे हैं, जो गांव में पैदा हुए और वहां मिट्टी में तपे।
अगर देश में कुछ योजनाएं ऐसी बनें कि गांवों में खेल की संरचना और सुविधाओं को बेहतर करें तो शायद आने वाले समय में हम खेलों के मामले में बदले हुए भारत को देख पाएंगे। हरियाणा, पंजाब, झारखंड, पश्चिम बंगाल, पूवरेत्तर और दक्षिण भारत के खिलाड़ी जिस तरह गांव से निकलकर आते हैं, उससे लगता है कि इन गांवों में खेलों से जुड़ने वाले संस्कार और संस्कृति कायम है। शहरी भारत से उलट वहां की जीवनशैली खिलाड़ियों में कुछ खास तत्व भरती है। गांव से जब कोई खिलाड़ी निकलता है तो वह अपने समाज और इलाके का रोल मॉडल भी बनता है। कुछ इलाकों में तो खेल सशक्तिकरण और जातीय गर्व का भी प्रतीक बन रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(dj)

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