Monday 4 July 2016

एनएसजी में प्रवेश से हमें क्या फायदा? (जी. बालाचंद्रन )

आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय शांति, सुरक्षा और समृद्धि को बनाए रखने में टेक्नोलॉजी का महत्व बढ़ता जाएगा। इसका विस्तार सूचना, संचार, मेडिकल और जैव विज्ञानों में होगा। इस तरह आगामी वर्षों में विभिन्न टेक्नोलॉजी निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं की भूमिका और महत्व बढ़ता जाएगा। यह इसलिए भी होगा, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सामना टेक्नोलॉजी के विस्तार सहित वैश्वीकरण और आतंकी गतिविधियों में लगे गैर-सरकारी किरदारों से उत्पन्न खतरे, दोनों से होगा।
वर्तमान में न्यूक्लीयर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी), मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेज़ीम (एमटीसीआर), वासेनार अरेंजमेंट (डब्ल्यूए) और ऑस्ट्रेलिया ग्रुप (एजी) प्रमुख टेक्नोलॉजी निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाएं हैं। ये कोई वैश्विक स्तर पर वार्ता के जरिये की गई संधियां या समझौते नहीं हैं। ये वास्तव में क्षेत्रीय व्यवस्थाएं हैं, जिन्हें समान विचारों वाले देशों ने बनाया है। दूसरे देशों को इसमें शामिल होना हो तो उसके लिए नियम हैं। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत के लिए इन निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं में सक्रिय रूप से सहभागी होना महत्वपूर्ण है ताकि इनमें होने वाला कोई भी घटनाक्रम इसके हितों पर विपरीत असर डाल सके। ऐसा 1992 में हो चुका है, जब एनएसजी के सदस्यों ने परमाणु व्यापार के लिए पूर्ण परमाणु निगरानी की शर्तें लागू कर दी थीं। इस संदर्भ में बीते वर्षों में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। अभी इसी माह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त वक्तव्य में मिसाइल टेक्नोलॉजी नियंत्रण व्यवस्था, ऑस्ट्रेलिया ग्रुप और वैसीनार अरेंजमेंट में भारत के प्रवेश पर जोर दिया था। इसमें अमेरिका ने एनएसजी देशों से भारत के आवेदन को समर्थन देने का आह्वान भी किया था। जहां तक एनएसजी का सवाल है, सिओल में एनएसजी का पूर्ण सम्मेलन भारत को सदस्यता देने के प्रश्न पर फैसला लेने में नाकाम रहा। ऐसा मुख्यत: इसलिए हुआ, क्योंकि ये सारी व्यवस्थाएं आम सहमति पर काम करती हैं। एनएसजी के एक सदस्य देश (चीन) को भारत के प्रवेश पर कड़ी आपत्ति है, जबकि कुछ अन्य सैद्धांतिक स्तर पर भारतीय सदस्यता को समर्थन देने के बावजूद प्रवेश देने की प्रक्रिया में अधिक स्पष्टता चाहते हैं। यह मामला अब एनएसजी के निवृत्तमान प्रमुख अर्जेंटीना के दूत रफेल ग्रॉसी को सौंप दिया गया है और संकेत तो यही है कि वर्ष के अंत तक भारत को प्रवेश देने का तरीका खोज लिया जाएगा।
यह सही है कि एनएसजी के भारत प्रवेश का विरोध करने वाला देश अब भी आम सहमति के नियम के तहत भारत की सदस्यता रोक सकता है। हालांकि, जिस निवृत्तमान प्रमुख को भारत को सदस्यता देने का कोई अन्य जरिया खोजने का दायित्व सौंपा गया है उन्होंने बहुत रोचक टिप्पणी की है, 'अब बात सारे विकल्पों की पड़ताल करने पर गई है। एनएसजी में सदस्यता के लिए (भारत को) कई विकल्प उपलब्ध हैं। मानदंडों के साथ, मानदंडों के बिना, किसी फैसले या मतसंग्रह के जरिये सदस्यता हो सकती है।' ऐसे में इस बात की संभावना ज्यादा है कि वर्षांत तक भारत एनएसजी का सदस्य बन जाए। जहां तक अन्य दो निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं का सवाल है, भारत उनकी सदस्यता की पूरी योग्यता रखता है। मजे की बात है कि जो देश एनएसजी में भारत का विरोध कर रहा है, वह अन्य किसी भी टेक्नोलॉजी नियंत्रण व्यवस्था का सदस्य नहीं है और इसलिए अन्य दो समूहों में भारत के प्रवेश के लिए वह कोई खतरा पैदा नहीं कर सकता। भारत में एनएसजी सदस्यता हासिल करने के भारत के प्रयासों की उपयोगिता महत्व पर सवाल उठाए गए हैं। दो चीजें शुरू में ही स्पष्ट हो जानी चाहिए। एक, जहां तक बिजली उत्पादन पर जोर देने वाले भारत के नागरिक परमाणु कार्यक्रम का सवाल है, भारत को एनएसजी सदस्यता मिलने से कोई नई सुविधा नहीं मिल जाएगी। 2008 में एनएसजी से मिली छूट के तहत भारत में बिजली के लिए परमाणु ऊर्जा के पूर्ण विकास को समर्थन हासिल है। सदस्यता के बाद भी भारत को उस टेक्नोलॉजी तक पहुंच नहीं मिल पाएगी, जो एनएसजी के दिशा-निर्देशों के तहत फिलहाल प्रतिबंधित है। यहां यह बता देना मौज़ू होगा कि किसी भी निर्यात नियंत्रण व्यवस्था में सदस्यता मिलने से इनके द्वारा नियंत्रित टेक्नोलॉजीतक अपने आप पहुंच नहीं मिल जाती। इस पर तो टेक्नोलॉजी निर्यात करने वाले देश के संबंधित राष्ट्रीय कानून लागू होते हैं।
फिर इन टेक्नोलॉजी निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं में से एक या सभी की सदस्यता लेने से भारत को कौन-सा फायदा मिल जाएगा? पहली बात तो यह कि सदस्यता से यह सुनिश्चित हो जाएगा कि इन व्यवस्थाओं के नियमों मंे भविष्य में कोई भी बदलाव भारत की सहमति के बिना नहीं हो पाएगा। इस प्रकार भारत उसके राष्ट्रीय हितों पर विपरीत प्रभाव डालने वाले परिवर्तनों से खुद सुरक्षित रख सकेगा। हालांकि, भारत के लिए यह दुखद होगा कि सदस्यों में एक भी ऐसा हो जो भारत विरोधी बदलावों को रोक दे।। ऐसा होने की आशंका बहुत ही कम है, लेकिन ऐसी आशंका को पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। 1998 के भारत के परमाणु परीक्षण के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव हमें नहीं भूलना चाहिए। इसे नियंत्रण व्यवस्थाओं के सारे सदस्य देशों का समर्थन था। इन प्रतिबंधों का भारत की सुरक्षा पर स्पष्ट नकारात्मक प्रभाव पड़ा था।
दूसरी बात अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत के बढ़ते आर्थिक राजनीतिक प्रभाव के साथ उसे अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को आकार देने वाली वैश्विक संस्थाओं में भी सक्रिय होना चाहिए। इस प्रकार ऐसी संस्थाओं की सदस्यता भारत की बढ़ती वैश्विक भूमिकाओं के अनुरूप है। तीसरी बात, इनकी सदस्यता से भारत अन्य सदस्य देशों के राष्ट्रीय कानूनों की अनिश्चितताओं से बच सकेगा। जैसे अमेरिकी कानून के मुताबिक यदि एमटीसीआर द्वारा नियंत्रित चीजों का कोई गैर सदस्य देश किसी दूसरे गैर-सदस्य को निर्यात करता है तो उस पर अमेरिकी प्रतिबंध अपने आप लग जाएंगे। 1990 के दशक में तत्कालीन सोवियत संघ की एजेंसी ग्लोवकॉस्मोस और भारत के इसरो पर ऐसे प्रतिबंध लगाए गए थे, क्योंकि सोवियत एजेंसी ने इसरो को क्रोयोजेनिक इंजन की टेक्नोलॉजी हस्तांतरित की थी। मौजूदा परिदृश्य में यदि भारत, चीन के वियतनाम, फिलीपीन्स जैसे पड़ोसियो को उसी तरह ब्रह्मोस मिसाइल देता जैसा चीन पाकिस्तान को देता है तो उस पर प्रतिबंध लग जाते, लेकिन एमटीसीआर की सदस्यता मिलने के बाद यह संभव नहीं है।
आखिर मंें, चूंकि चीन एनएसजी के अलावा किसी अन्य समूह का सदस्य नहीं है और वे सारे अाम सहमति से चलते हैं, तो जैसे को तैसा की तर्ज पर भारत यदि चाहे तो वह अन्य सारे समूहों में चीन के प्रवेश को रोक सकता है। (येलेखक के अपने विचार हैं।)
टेक्नोलॉजीआर्थिक मुद्दों के विशेषज्ञ,कंसल्टिंग फेलो, आईडीएसए (DB)

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