Monday 4 July 2016

स्वास्थ्य क्षेत्र की समस्या : कारगर व्यवस्था की जरूरत (डॉ. केनेथ ई. थोर्प)

प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराना सभी सरकारों का एक सपना होता है। वास्तव में प्रत्येक राष्ट्र का स्थायित्वपूर्ण विकास उसकी जनता के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। हालांकि भारत तीव्र आर्थिक विकास की दिशा में अग्रसर है, लेकिन उसका अपूर्ण जन स्वास्थ्य एजेंडा अब भी चिंता का विषय है। कैंसर, क्षय रोग, श्वशसन संबंधी रोग, और मधुमेह जैसे गैर संक्रांमक रोग (एनसीडी) अब तपेदिक व कुष्ट रोग जैसी संक्रामक बीमारियों को पीछे छोड़ चुके हैं तथा देश में होने वाली कुल मौतों के 53 प्रतिशत का कारण बन चुके हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष 2020 तक 60 मिलियन से अधिक भारतीय एनसीडी से मृत्यु के शिकार हो जाएंगे। स्पष्ट तौर से सरकार को आसन्न स्वास्थ्य संकट को टालने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिये।
डब्लूएचओ वल्र्ड हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2015 के अनुसार भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1.16 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है, इस प्रकार इसका स्थान 194 देशों में 187वें नंबर पर है। प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च के मामले में भारत 157 वें स्थान पर है, और यह केवल 60 डॉलर खर्च करता है। स्वास्थ्य पर हमारा प्रति व्यक्ति सार्वजनिक खर्च इंडोनेशिया का 55 प्रतिशत, चीन के 20 प्रतिशत से भी कम एवं मेक्सिको व दक्षिण अफ्रीका का 11 प्रतिशत है। एनसीडी पर ग्लोबल मॉनीटरिंग फ्रेमवर्क को अपनाने वाला प्रथम देश होने एवं उसमें हेल्थ पॉलिसी ऐक्शन 2015 के समावेश के बावजूद भारत के एनसीडी प्रोग्राम (वर्ष 2025 तक एनसीडी द्वारा होने वाली अकाल मृत्यु की संख्या को कम करने पर लक्षित कार्यक्रम) के लिए वर्तमान बजटीय आवंटन कुल स्वास्थ्य बजट का 3 प्रतिशत है, जो कि बेहद मामूली है। संक्रामक रोगों एवं एमसीएच प्रोग्राम्स पर यह आवंटन कहीं अधिक है।
ग्रामीण भारत में चिन्हित किए गए रोगों का 30 प्रतिशत एवं शहरी क्षेत्र में 20 प्रतिशत मरीज आर्थिक लाचारी के कारण उपचार से वंचित रह जाता है। डब्लूएचओ हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2012 के अनुसार 39 मिलियन भारतीय चिकित्सा के भारी-भरकम खर्चे के कारण निर्धनता के चंगुल में फंस जाते हैं। नवीनतम डब्लूएचओ ग्लोबल हेल्थ एक्सपेंडीचर डेटाबेस के अनुसार वर्ष 2013 में भारत में कुल निजी स्वास्थ्य पर व्यय के 85.9 प्रतिशत हिस्से को लोगों को स्वयं ही भुगतान करना पड़ा। इसके अतिरिक्त ग्रामीण एवं शहरी भारत में अस्पताल में भर्ती होने पर क्रमश: 47 प्रतिशत एवं 31 प्रतिशत धन ऋनण अथवा परिसंपत्तियों की बिक्री से प्रबंधित किया गया। गैर संक्रामक रोगों का प्रभाव भारत जैसे संसाधन-न्यून देश पर आर्थिक भार को बढ़ाने का कार्य करेगा। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम एवं हारवर्ड स्कूल ऑॅफ पब्लिक हेल्थ की रिपोर्ट के अनुसार भारत एनसीडी के कारण 2012 से 2030 के बीच 4.58 टिलियन यूएस डॉलर गंवाने की स्थिति में है।
एनसीडी के दीर्घकालिक दुष्प्रभावों का सामाधान आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है। एक प्रभावी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के लिए सर्वव्यापी स्वास्थ्य सेवा कवरेज का सुनिश्चितीकरण आवश्यक है। एनसीडी प्रोग्राम्स के लिए व्यापक आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता है। हालांकि राय सरकारें अपने निवासियों की स्वास्थ्य सेवा के उत्तरदायित्व को उठाने का दावा करती हैं, लेकिन एक राय से दूसरे राय के स्वास्थ्य बजट में काफी भिन्नता होती है। एनसीडी से निपटने का सबसे लागत सक्षम तरीका प्रारंभिक अवस्था में डाइग्नोसिस कर उपचार करने में सन्निहित है। लेकिन सुविधाओं, मानवशक्ति और संसाधनो के अभाव के कारण रोग के तुरंत पता लगाने एवं रोकथामपरक उपचार करने की प्रक्रिया प्राथमिकता के न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती है। एनसीडी के विलंब से पता चलने के कारण समूचे देश में इसके उपचार के खर्च में काफी वृद्धि हो जाती है। यह स्थिति तब तक नहीं बदल सकती, जब तक कि बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के जरिए एकीकृत सेवा डिलीवरी को वास्तविकता में नहीं परिवर्तित किया जाता एवं फंडिंग के एक ऐसे नए तरीके को नहीं अपनाया जाता, जिसमें अनेक हितधारकों की संलग्नता सुनिश्चित होती हो।
भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था अपनी समूची जनसंख्या को कवर करने के लिए एक एकल जन स्वास्थ्य उपचार की आर्थिक प्रणाली पर निर्भर नहीं कर सकती, खास कर चिकित्सा के बढ़ते खर्च एवं निजी बीमा पॉलिसियों की सीमित उपलब्धता एवं स्वास्थ्य सेवा के लिए धन उपार्जित करने के अन्य विकल्पों के अभाव के संदर्भ में। सरकार को एक ऐसे मल्टी-पेयर उपागम को अंगीकृत करने की आवश्यकता है, जिसमें सार्वजनिक निजी भागीदारी से उद्भूत व्यावसायिक स्वास्थ्य बीमा योजना एवं अन्य खोजपरक वित्तीय मॉडल का विस्तार शामिल है।
वास्तव में केंद्र व राय सरकार एवं निजी हितधारकों के बीच रणनीतिक सार्वजनिक निजी साङोदारी एनसीडी के प्रति वैश्विक व राष्ट्रीय ध्यानाकर्षण को उत्पन्न कर सकती है, अधिकाधिक धन को आकर्षित कर सकती है तथा सशक्त नीतियों की स्थापना को प्रोत्साहित करती है। सार्वजनिक निजी भागीदारी व्यापक स्वास्थ्य सेवा कवरेज को सुनिश्चित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाएगी, इससे ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र की विविधीकृत जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति करना संभव हो सकेगा। उदाहरण के तौर पर सीमित आर्थिक साधनों के साथ जीवन-यापन करने वाली जनता के लिए मूलभत स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने हेतु एक सामाजिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम को तैयार कर ग्रामीण एवं वंचित जनता के दुख को दूर करने की दिशा में एक कदम उठाया जा सकता है, जबकि निजी स्वास्थ्य बीमा योजनाएं कामकाजी शहरी लोगों के लिए अधिक प्रभावी हो सकती हैं।
अंतत: सरकार की महत्वाकांक्षा एक नीतिगत ढांचे के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्यसेवा कवरेज कॉल्स की व्यवस्था करने में सन्निहित है, जो एनसीडीज से मुकाबला करने लिए डिजाइन किए गए कार्यक्रमों को गति प्रदान करने में सक्षम हो। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश-स्वास्थ्य सेवा पर जीडीपी का आनुपातिक खर्च - वर्तमान समय के 1.1 प्रतिशत से बढ़ कर वर्ष 2025 तक कम से कम 2.5 से 3 प्रतिशत तक अवश्य हो जाना चाहिए। यह व्यवस्था एनसीडीज के लिए बजट में व्यापक वृद्धि के साथ राय एवं संघीय दोनों ही स्तर पर की जानी चाहिए। नवीन स्वास्थ्य नीति दूर-दराज एवं वंचित क्षेत्र में सप्लिमेंट केयर के लिए बैंक ऋ ण की व्यवस्था और कर लाभों व अंडरराइटिंग जैसे प्रोत्साहनों के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में अवश्य ही निजी निवेश को आकर्षित करेगी। एनसीडी से मुकाबला करने के लिए प्रत्येक निवेश निर्धनता के उन्मूलन का एक साधन है एवं अंतत: विकास को प्रोत्साहित करने का एक जरिया सिद्ध होगा, क्योंकि एनसीडी पर खर्च किया जाने वाला प्रत्येक रुपया जीवन के उत्पादक वर्षो में समाविष्ट होगा।
(लेखक पार्टनरशिप टू फाइट क्रॉनिक डिजीज (पीएफसीडी) के चेयरमैन हैं)(DJ)

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