Friday 29 July 2016

डोपिंग का भी एक अर्थशास्त्र है (जगदीश कालीरमन, अंतरराष्ट्रीय पहलवान और कुश्ती कोच)

अभी डोपिंग को लेकर दो मामले सुर्खियों में हैं। एक पहलवान नरसिंह यादव का, तो दूसरा शॉटपुट खिलाड़ी इंदरजीत सिंह का। इंदरजीत सिंह ने आरोप लगाया है कि उनके यूरीन सैंपल के साथ छेड़छाड़ की गई है। उनका फिलहाल ‘ए’ सैंपल पॉजिटिव आया है, जबकि ‘बी’ सैंपल की जांच चल रही है। हालांकि ऐसा संभव नहीं है कि यूरीन सैंपल के साथ छेड़छाड़ की जाए। अव्वल तो खिलाड़ी खुद उसे सील करता है और फिर नेशनल एंटी-डोपिंग एजेंसी यानी नाडा टूटे हुए, खुले या फिर किसी भी प्रकार से छेड़छाड़ किए गए सैंपल को स्वीकार ही नहीं करता। लिहाजा उन पर कार्रवाई हो सकती है।
पहलवान नरसिंह यादव का मामला इससे पूरी तरह अलग है। उनका आरोप है कि उनके खाने में किसी ने मिलावट की है। इस तरह की साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता। अगर कोई खाने में कुछ मिलाकर दे रहा है, तो उसे एकदम से पता नहीं लगाया जा सकता। इस तरह की हरकत कोई भी, कहीं भी कर सकता है- स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर के खेलों में भी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी। हम यह कतई नहीं पढ़ सकते कि दूसरे के मन में क्या साजिश चल रह रही है। इस तरह के षड्यंत्र का शिकार कोई भी हो सकता है। आमतौर पर यह प्रतिद्वंद्विता में की जाती है। हालांकि नरसिंह का दावा इसलिए मजबूत जान पड़ता है, क्योंकि एक पहलवान को पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार किया है और देश में कुश्ती की सर्वोच्च संस्था भारतीय कुश्ती फेडरेशन ने भी नरसिंह का समर्थन किया है।
बहरहाल, ये मामले भारतीय खेल की एक स्याह तस्वीर दिखाते हैं। हालांकि डोपिंग को रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार और कुश्ती फेडरेशन अपनी कोशिशों में जुटे हैं। मगर डोपिंग जैसी समस्या से लड़ने के लिए जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक नीति बने। भारत सरकार, कुश्ती फेडरेशन, इससे जुड़े खिलाड़ी, सबको मिल-बैठकर एक बेहतर नीति बनानी होगी। फूड सप्लिमेंट का ही उदाहरण लें। चूंकि पहलवान आम लोगों के मुकाबले ज्यादा व्यायाम करता है, इसलिए उसे प्रोटीन की जरूरत भी ज्यादा होती है। खिलाड़ी यह कमी फूड सप्लिमेंट से पूरी करता है। दिक्कत यह है कि हमारे देश में बेहतर फूड सप्लिमेंट का उत्पादन नहीं होता। खिलाड़ी विदेशों में बने सप्लिमेंट का इस्तेमाल करते हैं। इन सप्लिमेंट की गुणवत्ता की जांच का कोई तरीका अपने देश में नहीं है।
इतना ही नहीं, विदेशों से आने के कारण उन पर कस्टम ड्यूटी भी लगती है और यह अपेक्षाकृत महंगा हो जाता है। अगर जरूरत को ध्यान में रखें, तो राष्ट्रीय स्तर के हर खिलाड़ी को अपने फूड सप्लिमेंट पर औसतन 15 से 20 हजार रुपये हर महीने खर्च करने पड़ते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी के लिए यह खर्च 40 हजार रुपये तक हो सकता है। जाहिर है, एक आम खिलाड़ी के लिए यह बहुत बड़ी रकम है, नतीजतन वह अपनी जरूरत पूरी करने के लिए या तो स्टेरॉइड लेता है या फिर शक्तिवद्र्धक दवाएं। यह उसकी मजबूरी हो जाती है।
एक मुश्किल यह भी है कि खिलाड़ी ज्यादा पढ़े-लिखे होते नहीं। उनमें जागरूकता का अभाव होता है। वे अपेक्षाकृत कम पैसे खर्च करके स्थानीय फूड सप्लिमेंट खरीदते भी हैं, तो अव्वल उनकी जरूरतें पूरी नहीं होतीं और फिर उन्हें शायद ही पता चल पाता है कि उन सप्लिमेंट में किस तरह के तत्व मिले हुए हैं? नकली फूड सप्लिमेंट भी एक अलग मुद्दा है। लिहाजा, जब तक सरकार इन फूड सप्लिमेंट को लेकर नीति नहीं बनाएगी, या खिलाड़ी, फेडरेशन अथवा डॉयटीशियन के साथ मिल-बैठकर यह तय नहीं किया जाएगा कि किस खिलाड़ी को कौन-सा सप्लिमेंट चाहिए, डोपिंग की समस्या का अंत नहीं होने वाला। अच्छी बात यह है कि फेडरेशन इस प्रयास में जुटा है कि खिलाड़ियों को गुणवत्तापूर्ण फूड सप्लिमेंट मिले।
भारतीय खेल प्राधिकरण या भारत सरकार की तरफ से पहलवानों को फूड सप्लिमेंट दिए जाते हैं या उन्हें इसके एवज में पैसे भी दिए जाते हैं। मगर देश में बने होने के कारण उन सप्लिमेंट की गुणवत्ता अंतरराष्ट्रीय मापदंड के हिसाब से नहीं होती, और फिर भारत सरकार जो पैसे देती है, उसका सदुपयोग भी नहीं हो पाता। इसलिए जरूरी यह भी है कि देश में इस तरह की सुविधा उपलब्ध कराई जाए, ताकि अपने यहां गुणवत्तापूर्ण फूड सप्लिमेंट बन सकें। इनकी कीमत बाजार में मौजूदा गुणवत्तापूर्ण फूड सप्लिमेंट से कम होगी। इस बीच सरकार यह कर सकती है कि वह विदेश से आने वाले फूड सप्लिमेंट पर सब्सिडी दे, ताकि पहलवानों को आर्थिक राहत मिले।
नाडा की तरफ से भी इस संदर्भ में दिशा-निर्देश आने चाहिए। खिलाड़ी को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए कि उन्हें कौन-सा फूड सप्लिमेंट लेना है और कौन-सा नहीं। चूंकि खिलाड़ियों को भ्रमित करने वाले फूड सप्लिमेंट भी बाजार में हैं, जिनमें शक्तिवद्र्धक दवाएं मिली होती हैं। लिहाजा जरूरत यह भी है कि नकली फूड सप्लिमेंट के गोरखधंधे पर शिकंजा कसा जाए। हालांकि पहलवानों को भी चाहिए कि वह जो भी फूड सप्लिमेंट खरीद रहे हैं, उसका बिल जरूर लें। इससे दुकानदार पर दबाव बनता है और मिलावटी फूड सप्लिमेंट देने से वह बचता है। मुश्किल यह है कि ऐसे गोरखधंधे को रोकने का कोई माकूल तंत्र अपने देश में नहीं है, इसलिए यह धंधा खूब फल-फूल रहा है।
रही बात साजिशन खाने में मिलावट करने की, तो इसका शायद ही कोई हल है। जब किसी खिलाड़ी को अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए भेजा जाता है, तो उसका देश में पहले डोप टेस्ट होता है। इसमें निगेटिव पाया जाने वाला खिलाड़ी ही उस टूर्नामेंट में हिस्सा लेता है। वहां भी हर स्तर पर सतर्कता जरूरी है। वहां अगर वह खिलाड़ी वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी यानी वाडा के टेस्ट में फेल होता है, तो यह माना जाता है कि उसके साथ कोई साजिश हुई हो सकती है। यह साजिश किसी भी रूप में हो सकती है। यह खाने में मिलावट संबंधी साजिश भी हो सकती है, जिसका शायद ही अंत है। असल में, यह मानव स्वभाव का हिस्सा है। वह साम-दाम-दंड-भेद, कैसे भी करके अपने प्रतिद्वंद्वी को परास्त करना चाहता है। खिलाड़ी इसके अपवाद नहीं होते। उनमें भी इंसानी फितरत होती है। इस तरह की छोटी मानसिकता किसी भी खिलाड़ी की हो सकती है। मगर हां, इस पर थोड़ा-बहुत लगाम तब कसा जा सकता है, जब इस तरह के मामले में गिरफ्तार लोगों को सख्त सजा मिले। नरसिंह यादव के मामले में भी गिरफ्तार पहलवान से सारे राज खुलने की उम्मीद है। अगर दोषी को सजा मिलती है और उसे नजीर के तौर पर पेश किया जाता है, तो संभव है कि भविष्य में कोई इस तरह की हरकत करने से पहले दस बार सोचे।
नरसिंह यादव को मामला हमारे देश के पहलवानों के लिए एक सबक भी है। उन्हें काफी सतर्कता के साथ अपने खान-पान पर ध्यान देना होगा, ताकि ऐसी घटना फिर से न हो। उन्हें अपने आस-पास संदिग्ध लोगों को पहचानना चाहिए। आखिर यह उनके जीवन, करियर और सपने से जुड़ा मामला जो है।(हिन्दुस्तान )

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